Magazine - Year 1955 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(पं. राजकिशोर मिश्र, पटियाली)
यज्ञ की शक्ति अनन्त है। उसके द्वारा कठिन और असम्भव कार्य भी सम्भव हो सकते हैं। राजा त्रिशंकु का वृत्तान्त ऐसा ही है, उसने शरीर समेत स्वर्ग जाने की इच्छा की और यज्ञ शक्ति के प्रभाव से वह कार्य सफल भी हुआ। किन्तु केवल यज्ञ−हवन ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिए गुरुजनों का सद्भाव और आशीर्वाद भी आवश्यक है। त्रिशंकु ने वशिष्ठ और उनके पुत्र को रुष्ट करके यही भूल की थी, फलस्वरूप वह अभीष्ट प्रयोजन के पुण्य फल को खो बैठा।
महाभारत में त्रिशंकु का वृत्तान्त इस प्रकार है:—
जब त्रिशंकु ने वशिष्ठ जी से कहा कि हम कोई ऐसा यज्ञ करना चाहते हैं जिससे शरीर सहित देवताओं के रहने योग्य स्वर्ग को चले जायें। इस प्रश्न को सुनकर वशिष्ठ जी बोले।
अशक्यमितिचाप्युक्तो वशिष्ठेन महात्मना॥
प्रत्याख्यातो वशिष्ठेन स ययौ दक्षिण दिशाम्॥
अर्थ—ऐसा नहीं हो सकता−वशिष्ठ जी ने ऐसा उत्तर पाकर त्रिशंकु दक्षिण दिशा को चले गये। वहाँ वशिष्ठ जी के पुत्र दीर्घतपा तप कर रहे थे। उनसे जाकर त्रिशंकु ने कहा कि मैंने यज्ञ की कामना से गुरुदेव वशिष्ठ जी को व्रती करने को कहा था सो उन महात्मा ने जवाब दे दिया, अतएव अब आप अनुग्रह करके यज्ञ कराइये। आप लोग कृपा करके मेरे यज्ञ को सिद्ध कर दीजिए जिससे मैं शरीर सहित स्वर्ग को चला जाऊँ, आपको ऐसा करना चाहिए।
इस प्रकार की बात सुनकर वशिष्ठ जी के पुत्र त्रिशंकु से बोले कि हे राजन्! तुम निर्बोध हो तुम अपनी पुरी को चले जाओ। हे राजन्! यह जानलो कि, हमारे पिता ही तीनों लोकों को या कराने में समर्थ हैं। हम पुत्र होकर किस प्रकार पिता का अनादर करें? उनके इस प्रकार के वाक्य सुनकर त्रिशंकु ने कहा कि आपके पिता जी ने भी हमें जवाब दे दिया और आपने भी, अब मैं और किसी के पास जाकर उनसे यज्ञ कराऊँगा। जब ऋषियों ने ऐसे कठोर वाक्य सुने और—
शेपुःयाम संक्रुद्धाश्चांडालत्वं गमिस्यसि॥
इत्युक्त्वा ते महात्मानोविवुशुः स्वं स्वमाश्रमम्॥
अर्थ—महा क्रोधित हो शाप दिया कि, तू चाण्डाल अवस्था को प्राप्त हो जा। यह शाप देकर वे महात्मा अपने−अपने आश्रम में प्रवेश कर गये।
चाण्डाल हो जाने के बाद वे विश्वामित्र मुनि से मिले और कहा कि आप मेरे अभीष्ट यज्ञ को पूरा कीजिये। इस प्रकार के वाक्यों को सुनकर विश्वामित्र जी ने त्रिशंकु से यज्ञ करवाया और कहा।
पश्य मे तपसो वीर्यं स्वार्जितस्य न नरेश्वरः॥
एषः त्वाँ स्वशरीरेण नयामि स्वर्ग भोजसा॥
अर्थ—मेरा तप बल देखो जो मैंने तपस्या से प्राप्त किया है। मैं अपने तप के प्रभाव से तुम्हें शरीर सहित स्वर्ग को पहुँचाऊँगा।
हे राजन्! यद्यपि शरीर सहित स्वर्ग में जाना सहज नहीं हैं किन्तु मेरी तपस्या के संचित फल के प्रभाव से तुम स्वर्ग को जा सकोगे। जो कुछ मेरी तपस्या का फल है, उसके प्रभाव से तुम स्वर्ग को जाओ।
विश्वामित्र जी के ऐसे कहते ही ऋषियों के देखते देखते त्रिशंकु शरीर सहित स्वर्ग को चले गये। स्वर्ग जाने पर सुरराज ने कहा—हे राजन्! तुमको वशिष्ठ गुरुदेव ने शाप दिया है इसलिये तुम नीचे को मुँह करके गिरो। तब गिरते हुए त्रिशंकु ने विश्वामित्र जी को देखकर ‘त्राहि त्राहि’ शब्द कहा। और विश्वामित्र जी ऐसे आर्तस्वर को सुनकर—
रोषमाहरयत्तीव्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्॥
ऋषि मध्ये स तेजस्वी प्रजापतिरिवापरः॥
अर्थ—ऋषियों के बीच में वह तेजस्वी दूसरे प्रजापति की तरह महा क्रोधकर “कहीं रहो−वहीं रहो” यह वचन बोले और अपने तपोबल से त्रिशंकु को वहीं रोक दिया। तदनन्तर यज्ञ समाप्त होने पर ऋषि गण अपने अपने स्थानों को चले गये।
वशिष्ठ के शाप ने यद्यपि त्रिशंकु को स्वर्ग प्राप्त नहीं होने दिया, फिर भी महा याज्ञिक विश्वामित्र का तप इतना प्रचण्ड था कि उसने त्रिशंकु को अधः पतित होने से रोक लिया।