Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवन−दर्शन (Kavita)
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जिन्दगी में मैं सदा, हँसता रहा, हँसता रहूँगा!
आपदा आएं निरन्तर
किन्तु मैं रुकता नहीं हूँ।
शक्तियों के सामने भी
मैं कभी झुकता नहीं हूँ॥
यह प्रगति मेरी न कोई,
रोक सकता है धरा पर,
मैं विजेता की तरह—बढ़ता रहा, बढ़ता रहूँगा॥
पंथ है मुझको अपरिचित
किन्तु मैं थकता नहीं हूँ।
पग बढ़ाकर अग्रगामी
फिर कभी हटता नहीं हूँ।
पहुँचता जबतक न मंजिल पर
नहीं विश्राम लूंगा,
मैं पवन की भाँति यों चलता रहा, चलता रहा॥
तृषित चातक की तरह,
मैं प्रीत के ही गीत गाता।
और व्याकुल शलभ सा मैं,
गुनगुनाता, मुस्कराता॥
प्रेम पारावार में ही−
नाव जीवन की चलेगी,
मृत्यु लौकिक है इसी में, डूबता तैरता, रहूँगा॥
आप में हर्षित न होता,
दुःख में फिर दुखित क्यों हूँ?
संघर्ष के जीवन समझता,
सफलता पर मुदित क्योँ हूँ?
फिर निराशा भी मुझे क्या,
मार्ग में उन्मन करेगी?
आत्मदानी शुभ सुमन सा मैं खिला, खिलता रहूँगा
जिन्दगी में मैं सदा, हँसता रहा, हँसता रहूँगा!