Magazine - Year 1955 - Version 2
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यज्ञ की आवश्यकता
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यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।
यज्ञ ही श्रेष्ठ कर्म है। क्योंकि यज्ञों द्वारा मनुष्य ब्रह्म साक्षात्कार की पात्रता प्राप्त कर सकता है और ब्रह्म साक्षात्कार ही तो मनुष्य जीवन का अन्तिम ध्येय है। ‘महायज्ञैः यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः’ यज्ञ की उत्पत्ति ब्रह्म से ही है। आदि पुरुष परमात्मा ने सृष्टि रचना यज्ञ से ही की और उसी से वेदों के ज्ञान को प्रगट किया जो यज्ञ पूर्ति का साधन बना। ‘तस्माद् सर्व हुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छंदासि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्त त्माद जायत।
यजु॰ 1−7
ऐहिक एवं पारलौकिक सब प्रकार के सुखों का साधन एक मात्र यज्ञ ही है। व्यक्ति एवं समष्टि की उन्नति यज्ञ द्वारा ही सम्पन्न हो सकती है। यज्ञ के महात्म्य को हमारे पूर्वजों ने समझा था। उनके यज्ञ मय जीवन की धाक सारे विश्व में थी। वे सच्चे नेता थे, मानव के पथ प्रदर्शक बने, विश्व भर के कौने 2 से मनुष्य आ आकर अपने कर्तव्य का पाठ ले जाते थे। समय का परिवर्तन हुआ, हमने यज्ञ को भुला दिया, अपना बल, वैभव, विद्या, एवं ऐश्वर्य सभी कुछ खो दिया, यहाँ तक कि दासता की जञ्जीरों में जकड़े गये।
संसार का सारा खेल मन के ऊपर निर्भर है। मन की संस्कृत अवस्था से मनुष्य जीवन को सफल बना कर आनन्द का उपभोग कर सकता है और यदि मन विकृत हुआ तो जीवन को अन्धकार मय बना कर नारकीय यातनाओं का घर बना देगा। ‘मन एव मनुष्याणाँ कारणं बन्धमोक्षयोः’
जीवन के इतने उपयोगी साधन मन के संस्कार का एक मात्र उपाय यज्ञ ही है। इसीलिए यज्ञोपदेष्टा ऋषि ने आदेश दिया “मनो यज्ञेन कल्पताम्”
मन के पश्चात् इन्द्रियों का नम्बर आता है। इन्द्रियों के अविकल एवं पुष्ट होने पर ही तो जीवनचर्या सुचारु रूपेण चल सकती है। इन्द्रियाँ जब बल हीन होने लगती हैं तो मनोवांछित कार्यसिद्धि होने में अन्तराय उपस्थित होने लगते हैं। इन्द्रियों के आश्रित शरीर की भी अधोगति हो जाती है। कर्म सभी लुप्त हो जाते हैं, क्योंकि “शरीर माघं खलु धर्म साधनम्” इन्द्रियों की पुष्टि भी यज्ञ से ही सम्भव है। ऋषियों ने अनेक प्रकार के ऐसे यज्ञों का वर्णन किया है जिनके द्वारा इन्द्रियाँ स्वस्थ एवं बलवती बनती हैं “दुघ्नायजेत इन्द्रिय कामः” अर्थात् इन्द्रियों की पुष्टि की कामना वाला मनुष्य दही से यज्ञ करे। आर्षवाक्य इस कथन की पुष्टि करता है । लगभग 35 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के निवासियों का स्वास्थ्य जब विकृत होने लगा तो उन्होंने विश्व के चिकित्सा विशेषज्ञों का अपने यहाँ अधिवेशन कराया और बिगड़े हुए स्वास्थ्य का निदान कराया। उन सब ने एक मत हो कर दही के विशेष प्रकार के संस्कार के उपयोग का उन्हें आदेश दिया, परिणामतः वे स्वस्थ बने। यही संस्कार तो यज्ञ में किया जाता है। हम भारतीयों को अब अपने ऋषियों पर आस्था नहीं रही। पाश्चात्यों के वचनों को प्राप्त वाक्य मानने लगे। ऐसी अवस्था का यही कारण है कि हम लोग अब यज्ञ विधि को भूल गये। विनियोग की अज्ञानता से यज्ञ की पूर्णता तो नहीं हो सकती। संसार तो उपयोगिता वादी है चमत्कार के पीछे दौड़ता है। भारतीय याज्ञिकों को अपना उत्तरदायित्व समझना चाहिये।
चिकित्सा का सर्वोत्तम साधन यज्ञ ही है। यज्ञ में औषधियों का संस्कार किया जाता था, जिससे उनमें दिव्यता आती थी। इस प्रकार के यज्ञों को भैषज्य यज्ञ कहते हैं जो आयुर्वेद से सम्बन्ध रखते हैं। शत पथ ब्राह्मण में लिखा है “भैषज्य यज्ञा वा एते ऋतु सन्धिषु व्याधिर्जायते तस्मादृतु संधिषु प्रयुज्यते” अर्थात् भैषज्य यज्ञों का प्रयोग ऋतु सन्धियों में होता है क्योंकि ऋतु सन्धियों में व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। भैषज्य यज्ञों से राज यक्ष्मा जैसे रोग से मुक्ति मिलती है और स्वस्थ व्यक्ति विशेष बलवान बन जाता है। औषधियों के संस्कार के अनेकों उदाहरण वेदों में मिलते हैं।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टि वर्धनम्।
उर्वा रुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥
यजु॰ 3—60—
अर्थात् सुगन्धि और पुष्टि के बढ़ाने वाली तीनों अम्बिकाओं (अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका जड़ी विशेष) को हवक करता हूँ जिससे मृत्यु के दुःख से उसी तरह छूट जाऊँ , जिस तरह पका हुआ फल अनायास अपने बंधन से छूट जाता है परन्तु मोक्ष से न छूटूँ
बल बुद्धि के साथ साथ यज्ञों से सुसंतान की प्राप्ति होती है। इतिहास इसका साक्षी है प्राचीन काल में पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा मन चाही संतति मिलती थी। राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा ही चार पुत्र रत्न प्राप्त किये थे। जिनके पुत्री ही होती हों वे पुत्र प्राप्ति के लिये अथर्व वेद में लिखी औषधि का यज्ञ में संस्कार करें।
शमीमश्वत्थ आरूढ़स्तत्र पुंसवनं कृतम्।
तद्वै पुत्रस्य वेदनं तत्स्त्रीष्वा भरा मीस॥
अथर्व 6−11−1
अर्थात्—शमी वृक्ष पर उगे हुये वट वृक्ष की जड़ को लेकर पुँसवन संस्कार के दिन से कुछ दिन गर्भवती स्त्री को पानी में पीस कर पिलावे तो पुत्र उत्पन्न होगा।
राज्य संगठन एवं सार्वभौम राज्य की प्राप्ति का मुख्य साधन यज्ञ ही है। शत पथ ब्राह्मण में लिखा है कि “राष्ट्र वै अश्वमेधः तस्माद्राष्ट्री अश्वमेधेन यजेत अश्वमेधयाजी सर्व दिशो अभिजयन्ति” अर्थात् राष्ट्र ही अश्वमेध है। इसलिये राष्ट्रवादी को अश्वमेध करना करना चाहिये क्योंकि अश्वमेध करने वाला समस्त पृथिवी को जीत लेता है। इसी प्रकार राजसूय यज्ञ से राजा होता है। यह राजगद्दी के समय का यज्ञ है जिससे राज्य की स्थिति पुष्ट हो जाय।
“राज्ञः एव सूर्य कर्म। राजा वै राजसूयेन इष्ट्वा भवति” शतपथ 13−2−2−1
पृथिवी को उर्वरा बनाने नई भूमि तैयार करने के लिये तथा धन सम्पत्ति के निमित्त गोमेध यज्ञ किया जाना चाहिये। दुष्ट शत्रुओं को पराजित करने के लिये श्येन योग का विधान है “श्येनेनाभिचरन्यजेत” वाक्य इस कथन की पुष्टि करता है।
पशुओं की वृद्धि का उपाय भी यज्ञ ही है “उद्भिदा यजेत् पशुकामः” अर्थात् पशुओं की कामना वाले को उद्भिद् यज्ञ करना चाहिये। इसी प्रकार पशुओं की कातना की सिद्धि के लिये अन्य प्रकार के यज्ञों का भी विधान है “चित्रया यजेत पशुकामः” इत्यादि इत्यादि आर्य वाक्य इसमें प्रमाण है।
अवर्षण से दुर्भिक्ष पड़ जाता है उसके हटाने के लिये वर्षा कराने का सफल साधन यज्ञ ही है। “निकामे निकामे पर्जन्यो वर्षतु” वेद वाक्य इस बात को स्पष्ट करता है कि आर्य याज्ञिक जब चाहते थे तभी वर्षा करा लेते थे। राजा जनक ने कारीरी यज्ञ के द्वारा वर्षा कराई थी। इतिहास इसका साक्षी है। पानी बरसाने वाले यज्ञों में उनचास प्रकार के पवनों का अधिक विचार किया जाता है। इसका वर्णन ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के शान्तनु सूक्त में विशद रूपेण किया गया है। वेदों में इन्द्र और वृत्र के अलंकारों से यानी सम्बन्ध रखने वाली अनेक सूक्ष्म बातें बतलाई गई हैं।
दिव्य सुखों की प्राप्ति का एक मात्र साधन यज्ञ ही है। “दर्शपूर्णमासाभ्याँ स्वर्गकामो यजेत”
“ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामोयजेत” आदि यज्ञ सम्बन्धी आर्षवाक्यों से सिद्ध होता है कि यज्ञों से स्वर्ग प्राप्ति का अनुपम साधन आर्यों ने भगवत् कृपा से प्राप्त कर लिया था। इससे भी आगे उपासना यज्ञ द्वारा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी याज्ञिक जानते थे। पुरुष सूक्त में स्पष्ट ही वर्णित है कि।—
“यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ते हनाकं माहेमानः सचन्त यत्रपूर्वे साध्याः सन्तिदेवाः।
अर्थात् देवताओं ने यज्ञ से यज्ञ किया, जो प्रथम धर्म था। वे उसी से उस महान् स्वर्ग को गये, जहाँ पूर्व काल के वेदर्षि गये हैं।
ऊपर लिखित सिद्धियों के प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अपने जीवन में परम संतुष्ट हो जाता है, कोई कामना शेष नहीं रह जाती और कामना नहीं रहने से तो मोक्ष प्राप्ति होती है।