Magazine - Year 1955 - Version 2
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सन्त दर्शन (Kavita)
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हे समर्थ, हे परम हितैषी, तुम से ही कल्याण हमारा।।
तुम्हें न पाकर व्यर्थ चला जाता मानव का जीवन सारा।। परम बन्धु युग युग के योगी, महाबुद्ध, हे अमर महात्मन।
चूम सके तो चरण तुम्हारे उसका सफल हुआ मानव तन।
देव तुम्हारे दर्शन करके लग जाता तुम में जिसका मन।
तुम्हें छोड़ फिर कहीं न जाता तुम्हीं दीखते हो प्रियतम धन।
कितनों ने ही सीख लिया मर कर जीने का मन्त्र तुम्हारा ।।1।।
जाने कितने मुरझाये मुख खिलते देखे तुमको पाकर।।
सदा पीड़ितों की पुकार पर रहे दौड़ते कष्ट उठाकर।
जो न कहीं सुख देख मिला, वह देखा श्री चरणों में आकर।
जो न कभी हो सका वही, हो गया तुम्हारा ध्यान लगाकर।
शरण ले लिया उसको जिसने कभी हृदय से तुम्हें पुकारा ।।2।।
तुमको हमने दीनों दलितों की कुटिया में जाते देखा।
अपने योग शक्ति से उनके तुमको दुख मिटाते देखा।
कहीं अश्रु से गीली पलकें स्वामिन! तुम्हें सुखाते देखा।
जो कि तुम्हें करना था उसको कभी न देर लगाते देखा।
तुमने उसकी सुनी दयामय, जिसको सबने ही दुतकारा ।।3।।
निज तन मन का ध्यान न रखकर तुमने पर उपकार किया है।
तुमने सदा बिना कुछ चाहे प्राणि मात्र से प्यार किया है।
हे संघर्षातीत! तुम्ही ने षट रिपु का संहार किया है।
शरणागत डूबते हये को जब देखा तब तार दिया है।
भव सागर में पड़े जीव को नाथ तुम्हीं से मिला किनारा।
हे अभेद दृष्टा! मंगलमय, शोक विनाशक, हे विज्ञानी।
जन मन रंजन, भक्त पाल, हे बाल सखा, श्रद्धेय अमानी।
अतुलित प्राण शक्ति के सागर गुण गुण आगर है अनुपम दानी।
तुमसे ज्ञान ज्योति पाते हैं जग के चिर-तमवेष्ठित प्रानी।
सदा अशक्त बद्ध पीड़ित को, दिया तुम्हीं ने शक्ति सहारा ।।5।।
वीत राग, हे परम तपस्वी, नित्य समाहित चित्त, धीर तुम।
शिव सुन्दर-सत्य के समिश्रण, हरते भव की विषम पीर तुम।
पावन तप के ओज तेज से दीप्त मान निर्दोष वीर तुम।
हे संदर्शक परम तत्व के, चलते तम का हृदय चीर तुम।
पथिक हृदय को तुमसे मिलती दिव्य प्रेम की अविरल धारा ।।6।।
हे समर्थ! हे परम हितैषी! तुमसे ही कल्याण हमारा।।
*समाप्त*