Magazine - Year 1957 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भय और व्यक्तित्व का विकास
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री रघुनंदन प्रसाद जी, एम., एल.एल.बी.)
मनुष्य के जीवन में भय की मनोवृत्ति भी बहुत बड़ा स्थान रखती है। अधिकाँश लोगों का ख्याल है कि यदि किसी प्रकार के दण्ड का भय न रहे तो समाज का काम ही नहीं चल सकता! दण्ड के भय से ही चोर, बदमाश और बुरे स्वभाव के लोग दबे रहते हैं, अन्यथा वे भले आदमियों का जीना असंभव कर दें। इसी विचार के आधार पर हमारे देश में बालक को बहुत छोटी अवस्था से “हौआ” का डर दिखाने लगते हैं। कुछ बड़े होने पर उसे माता-पिता द्वारा मार पड़ने और भगवान की नाराजगी का भय दिखलाया जाता है और अंत में राज्य-सत्ता का भय उसके सामने आ जाता है।
हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि वर्तमान समय में जैसा सामाजिक वातावरण बन गया है उसमें अधिकाँश मनुष्य भय के कारण ही अनीति के मार्ग से बच पाते हैं। परंतु इसे भी सभी बुद्धिमान स्वीकार करेंगे कि भय के आधार पर जो नियंत्रण किया जाता है वह केवल ऊपरी होता है, भीतर उसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है। इसलिए अक्सर यह देखा गया है कि जो लोग भय के कारण धर्म और नीति का पालन करने को बाध्य थे, उस भय के उठ जाने पर एकदम निरंकुश होकर घोर अधर्म के मार्ग पर दौड़ने लगते हैं।
हमारे यहाँ अधिकाँश घरों में बालकों की धर्म शिक्षा का श्रीगणेश भय से ही किया जाता है। बालकों के मन में छोटेपन से ही यह भावना भरी जाती है कि ईश्वर प्रत्येक बुरे काम का दण्ड देता है। इससे कुछ लोग तो खाने-पीने, खेलने, लड़ाई-झगड़े प्रत्येक बात में ईश्वर का नाम लेकर ही बालक को डराते हैं। कुछ समय तक तो इन बातों का प्रभाव रहता है और बालक खराब कामों के करने से रुक जाता है। परंतु यह भावना स्थायी नहीं होती। जब वह नित्य प्रति देखता है कि उसके अन्य साथी झूँठ बोलते हैं, पर ईश्वर उनके कान नहीं उमेठता, तो धीरे-धीरे उसके हृदय से वह भय कम हो जाता है। वह अपने चारों ओर देखता है तो उसे मालूम होता है कि जिस ईश्वरीय दण्ड का उसे भय दिखाया जाता है उसकी कोई सत्ता नहीं है। संसार में झूँठ और मक्कार ही मौज करते दिखलाई पड़ते हैं और सत्यवादी अपने सत्य के कारण मारे जाते हैं। जब लड़का पाठ याद करके नहीं लाता और शिक्षक से झूठ-मूठ कह देता है कि ‘कल उसे बुखार आ गया था,’-तो उसको मास्टर छोड़ देते हैं। पर जो साफ-साफ कह देता है कि वह दिन भर गिल्ली-डंडा खेलता रहा तो उस पर बेंतों की मार पड़ती है। यह देखकर उसके हृदय में सत्य के लिए स्वभावतः अश्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है और वह झूठ बोलने को ही लाभजनक समझने लगता है। धीरे-धीरे ऐसा समय आता है जब सत्य को पूर्ण रूप से ठुकरा कर असत्य का पक्का पुजारी बन जाता है।
संसार के धर्म प्रचारक यह कहकर ऐसे व्यक्ति की शंका का निवारण करना चाहते हैं कि ईश्वर का दण्ड और पुरस्कार तुरंत प्राप्त नहीं होता। कभी-कभी न्याय होने में काफी देर लग जाती है, परंतु ईश्वरीय दण्ड से बचा नहीं जा सकता। यदि अपराध करने वाला इस लोक में दंड से बच गया तो उसे परलोक में उसका फल अवश्य मिलेगा। पर ऐसी गूढ़ बातों पर उसको हृदय से विश्वास नहीं हो पाता। अनेक बार तो संसार में सर्वत्र अन्याय और अत्याचार का बोलबाला देखकर और दूसरी तरफ ईश्वरीय दंड की बात सुनते-सुनते वह ईश्वर की सत्ता में ही अविश्वास करने लगता है। वह अपने मन में सोचता है कि यदि इस संसार का नियंत्रण करने वाली कोई सर्वशक्तिमान और न्यायकारी सत्ता होती तो वह ऐसे अन्याय और अनाचार को सहन कर सकती।
ईश्वर के भय के बाद समाज, राजसत्ता और गुरुजनों की भर्त्सना का भय है। परंतु जब तक ये भय केवल बाहर से दबाव डालते हैं, तब तक वे पाखण्ड और मिथ्याचार की ही उत्पत्ति करते हैं। ऐसे मनुष्य का ध्येय धर्ममय जीवन व्यतीत करना नहीं होता वरन् धर्म-प्रदर्शन हो जाता है।
इन बातों पर विचार करने से यही भली प्रकार समझा जा सकता है कि भय के आधार पर स्थायी श्रद्धा और विश्वास का निर्माण नहीं किया जा सकता। जहाँ श्रद्धा और विश्वास होता है वहाँ भय के द्वारा मनुष्य की तामसिक वृत्तियों को राजसिक वृत्तियों में परिवर्तित किया जा सकता है। परंतु जहाँ हृदय के भीतर श्रद्धा और विश्वास नहीं है, वहाँ तो भय अंतरात्मा में प्रवेश करके घुन की तरह मनुष्य के व्यक्तित्व को खोखला कर देता है। इस कारण बालकों को धर्म अथवा नीति की शिक्षा भय के आधार पर देना हानिकारक है। इससे उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता। बालकों से यह कभी मत कहो कि वे ईश्वर से डरें, किंतु उनसे कहना चाहिए कि वे ईश्वर से प्रेम करें, उसके प्रेम के पात्र बनें। भय के आधार पर बालकों के ऊपरी आचार को नियंत्रण करने से उनका उत्साह और साहस मारा जाता है। कठपुतली की तरह दिखावटी और ऊपरी पवित्रता से आँतरिक आत्मशुद्धि प्राप्त नहीं होती। प्राकृतिक नियम यह है कि मनुष्य बाहर से प्रेरणा पाता है और जब उसको अपने अंतर में संग्रहीत करके स्वभाव में मिला लेता है, तो वह उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायक हो पाती है, अन्यथा केवल एक बाहरी दबाव बने रहने पर वह मनुष्य के व्यक्तित्व को दबा लेती है और उसके मन में एक अंतर्द्वंद्व खड़ा कर देती है जो जीवन भर काँटे की तरह खटकता रहता है।
शिक्षक का काम है कि वह अपने शिष्य के हृदय को मजबूत और बलवान बनाये। व्यावहारिक जीवन में मस्तिष्क की उन्नति पर्याप्त नहीं है। वहाँ तो हृदय की उन्नति और विशालता से ही ज्यादा काम चलता है। सदाचार का आश्रय और स्थान हृदय ही है। इसीलिए बालकों को बुरी आदतों से बचाने के लिए उनके हृदय को ही कमजोर कर दिया जाय यह शिक्षा की कोई सराहनीय रीति नहीं मानी जा सकती। माता-पिता और अन्य गुरुजन, जिनके ऊपर बालकों की शिक्षा की जिम्मेदारी है, जितनी जल्दी इसको समाप्त कर दें उतना ही उनके लड़के-लड़कियों और शिष्यों आदि के लिए अच्छा है।
भय का तात्कालिक प्रभाव हृदय पर तथा स्नायु मण्डल पर पड़ता है और जब किसी मनुष्य को किसी प्रकार के स्थायी भय के आधीन रखा जाता है तो उसका स्नायु मण्डल कमजोर पड़ जाता है। स्नायुमण्डल की कमजोरी से उसकी सहन शक्ति में कमी हो जाती है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना है, इस व्यक्तित्व का विकास श्रद्धा और विश्वास के आधार पर किया जा सकता है। भय के द्वारा तो केवल उसका गला घोटा जा सकता है। भय हमारे श्रद्धा और विश्वास के निर्माण में बाधा स्वरूप है। उसके कारण हमारी शारीरिक और मानसिक प्रवृत्तियाँ दो विरोधी धाराओं में बँटी रहती हैं। शिक्षा और नैतिकता का उद्देश्य मनुष्य के हृदय में ऐसा सत्साहस उत्पन्न करना है, जिससे वह अपने को परिस्थितियों से ऊँचा अनुभव करें और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बदलने का सदैव प्रयत्न करता रहे। इस भावना को जगाना और उसमें आत्म विश्वास और आत्म नियंत्रण पैदा करना ही सारी नैतिक शिक्षा का ध्येय है।