Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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सच्चरित्रता का मूल आधार ईश्वर भक्ति ही है।
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(श्री ज्ञानेन्द्र मोहनदास)
मनुष्य जन्म पाकर ज्ञान का प्राप्त करना सबसे प्रधान कर्तव्य माना जाता है। पर ज्ञान का अर्थ केवल बहुत से ग्रंथों को पढ़ लेना अथवा कोरा पंडित बन जाना ही नहीं है। जब तक विद्या बुद्धि के साथ मनुष्य में नैतिक बल और सच्चरित्रता का गुण न होगा तब तक कोई उसका आदर-सम्मान नहीं कर सकता। जब किसी को दुर्व्यसन लग जाता है तब बुद्धि के सहारे उसे पूर्णतः नहीं रोका जा सकता। जिनमें नैतिक बल का अभाव है वे केवल बुद्धि के द्वारा धार्मिक नहीं बन सकते। प्रायः यह देखने में आता है कि जिनमें नैतिकता और सच्चरित्रता का भाव नहीं है उनकी विद्या बुद्धि दूसरों का अनहित करने वाली, असत्य को सत्य सिद्ध करने वाली बन जाती है। इसलिए जो शक्ति नैतिकता में है वह बुद्धिमानी में नहीं है। बुद्धि केवल मार्ग दिखलाने वाली है। यदि पथिक जान बूझकर कुमार्ग पर चला जाय और कष्ट उठाये तो बुद्धि उसका कुछ नहीं कर सकती। पर नैतिकता मनुष्य को सुमार्ग से विचलित नहीं होने देती, इसीलिए मनुष्य को बुद्धि रहते भी नैतिक बल की उपेक्षा नहीं करना चाहिए।
जैसे बुद्धि के साथ नैतिकता का थोड़ा ही संबंध है उसी प्रकार विद्या के साथ भी अधिक संबंध नहीं है। यदि ऐसा न होता तो अनेक प्रसिद्ध विद्वानों, लेखकों और मेधावी व्यक्तियों में अनेक शराबी, फिजूलखर्च और व्यभिचारी क्यों दिखलाई पड़ते? उनकी यह विशाल विद्या, प्रतिभा उनको पाप-चिंता और दुराचार से क्यों नहीं हटाती? अतएव क्या स्त्री और क्या पुरुष, सबके लिए सबसे पहली और सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि वे नीति और धर्म के पथ पर चलना सीखें। जो शिक्षा धर्म और नीति से रहित है वह शिक्षा नहीं, वरन् कुशिक्षा है। जिस कर्म में धर्म और नीति का संबंध नहीं वही पाप कर्म है। जिन बालकों को आरंभ में धर्म और नीति की शिक्षा नहीं दी जाती, वे बड़े होने पर प्रायः दुश्चरित्र होकर अपने वंश और देश को कलंकित करते हैं। इसलिये शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को चरित्र हीनता से दूर रखना ही होना चाहिये। दुश्चरित्र विद्वान से तो वह मूर्ख ही अच्छा है जो सच्चरित्र है। सच्चरित्रता के न होने से मनुष्य अपना भला भी नहीं कर सकता, दूसरों का कल्याण तो क्या कर सकेगा। इसलिए व्यक्ति और समाज का हित इसी में है कि प्रत्येक नागरिक को आरंभ से ही नैतिकता की शिक्षा दी जाय, धर्म का रूप समझाया जाय और उनके अनुसार चलने का अभ्यास कराया जाय।
यद्यपि देश, काल, जाति, समाज और संस्कार के भेद से धर्म और उपासना की पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न हैं, तो भी धर्म का मूल रूप सर्वत्र एक है, और उन्हीं मूल सिद्धाँतों को आरंभिक अवस्था में हृदयंगम कराना चाहिए। धर्म की शेष क्रियाएँ, उपासना की पृथक-पृथक विधियाँ तो बाद में स्वयं आ जाती हैं। धर्म का मूल आधार तो एक ईश्वर में विश्वास करना है। अगर हम यह समझ लें कि हम सबको एक ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वह हमारा वास्तविक पिता है तो फिर हम किसी के साथ कभी भी बुरा या हानिकारक आचरण कैसे कर सकते हैं? ऐसे सर्वशक्तिमान और कल्याणकारी जगदीश्वर में अटल विश्वास और भक्ति करना ही धर्म का प्रथम सोपान है। जिस पर तुम्हारी भक्ति होगी, जिस पर तुम्हारा प्रेम होगा, उसकी प्रसन्नता के काम तुम अवश्य करोगे। इसलिए यदि तुम्हें ईश्वर के प्रति भक्ति का भाव होगा तो नीतिपूर्वक लोकोपकारी काम करने को तुम अपने आप तैयार होगे और अनुचित कामों से तुमको घृणा होगी। श्री कृष्ण भगवान ने गीता में कहा है-
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्य भाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यगव्यवसितो हि सः॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छन्तिं निगच्छति।
अर्थात् “जो दुराचारी है, किंतु शुद्ध मन से ईश्वर का भजन करता है, वह थोड़े ही दिनों में धर्मात्मा होकर शाँति-सुख पाता है।” इसलिए जो मनुष्य सच्चे हृदय से ईश्वर की भक्ति करेंगे, निष्कपट भाव से उसकी उपासना करेंगे, तो सभी जगह उनका आदर सम्मान होगा। ईश्वर की भक्ति द्वारा जब तुम्हारे हृदय में कर्तव्य बुद्धि जागृत होगी और बुरे कामों से घृणा होगी तो तुम स्वयं ही ईश्वर को प्रसन्न करने वाले कामों को समझ जाओगे और वैसा ही आचरण करने लगोगे।
किसी विद्वान का कथन है कि “कर्तव्य का पालन करना ही धर्म है। जो लोग उचित कर्म का त्याग नहीं करते उनके धर्म की रक्षा अपने आप होती है।” शास्त्रों में भी यही कहा गया है-”धर्मस्त विहितं कर्म्म ह्यधर्मस्तद्विपर्यय।” जीवन की सार्थकता तभी है जब धर्म का पालन होता रहे। धर्महीन जीवन मृत्यु का ही दूसरा नाम है, बल्कि हम तो यहाँ तक कह सकते हैं कि अधार्मिक जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है। धर्म में प्रवृत्त होने के लिए मनुष्यत्व का ज्ञान होना आवश्यक है और मनुष्यत्व का ज्ञान तब तक नहीं हो सकता जब तक ईश्वरीय शक्ति में विश्वास और भक्ति न हो। इसीलिए मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य अथवा साधन ईश्वर की भक्ति, प्रेम ही है। जो मनुष्य भक्ति के मार्ग पर चलेगा उसका धर्मप्रेमी अथवा सच्चरित्र होना कठिन नहीं है। ईश्वर में अटल विश्वास और भक्ति मनुष्यत् व लाभ करने का प्रथम सोपान है। जो ईश्वर के भक्त नहीं हैं वे मनुष्य होकर भी मनुष्यता से रहित हैं। इसलिए बालकों को शिक्षा देना प्रारंभ करते ही उनको ईश्वर से प्रेम और भक्ति करना भी सिखाना चाहिए। जिन बालकों को बचपन में धर्म, नीति और भक्ति की शिक्षा नहीं दी जाती वे युवा होने पर अपना चरित्र ठीक नहीं रख सकते। नीतिपूर्वक चलने पर भी जब तक मनुष्य अन्य प्राणियों से प्रेम करना न सीखे तब तक मनुष्य जीवन अधूरा हो रहता है। इस कमी को पूरा करने वाली ईश्वर भक्ति ही है। इसके बिना मनुष्य का हृदय कोमल, शाँत और विशुद्ध नहीं बन सकता, और जब तक ये गुण मनुष्य में न हों अन्य मनुष्य भी उससे प्रेम नहीं कर सकते। संसार में जो मनुष्य दूसरों को प्रेम न करे और दूसरे उसे प्रेम न करें तो उसका जीवन निरर्थक ही है और इस प्रकार का विशाल और सच्चा प्रेम ईश्वर की भक्ति करने से ही मिल सकता है।
यह कहा गया है कि चरित्र से मनुष्यत्व प्राप्त होता है, पर भगवान की भक्ति चरित्रवान को देवत्व प्रदान करने वाली है। वह हमको एक ऐसा अलौकिक आनंद देती है, जिसकी तुलना और किसी आनंद से नहीं की जा सकती। वह मनुष्य के हृदय को अमृत के समान मीठा और नवनीत के समान कोमल बना देती है। तब उस मनुष्य को सर्वत्र आनंद ही आनंद दिखलाई पड़ता है, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, शत्रुता के सब भाव लोप हो जाते हैं। क्योंकि जब मनुष्य परमात्मा को ही जगत का सच्चा पालनकर्ता मान लेता है, तब उसके हृदय में स्वभावतः ही सब प्राणियों के लिए आत्मभाव का उदय होता है। वह समझने लगता है कि यदि मैं किसी जीव को कष्ट पहुँचाऊंगा तो परमात्मा अवश्य मुझसे अप्रसन्न होगा। इसी प्रकार किसी प्राणी को दुःख से छुड़ाने या उसका कोई उपकार कर देने से परमात्मा की कृपा भी अवश्य होगी। इस प्रकार ईश्वर की सच्ची भक्ति करने वाला व्यक्ति अपने देश, समाज और आस-पास रहने वालों का सच्चा हितैषी बन जाता है और वही सच्चरित्रवान कहलाने का अधिकारी होता है। जिन लोगों का ख्याल है कि भगवान की भक्ति का अर्थ मंदिर में घंटों आँखें मूँदकर बैठे रहना अथवा ठाकुरजी के आगे विह्वल होकर नाचने गाने लगना ही है, वे कुछ गलती करते हैं। भक्ति की दशा में बहुत प्रगाढ़ हो जाने पर कभी-कभी मनुष्य में ये लक्षण भी उत्पन्न हो जाते हैं, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह अपने जीवन के प्रधान कर्तव्यों से मुँह मोड़ ले। इसके विपरीत हम तो ईश्वर-भक्ति का अर्थ यह समझते हैं कि वह व्यक्ति लोक और परलोक की वास्तविकता को समझ जाता है और जन-साधारण में जन, धन और यश आदि का जो मोह दिखलाई पड़ता है उससे वह छूट जाता है। इस लिए जब कभी अवसर आये वह दूसरों की सेवा, उपकार, उद्धार के लिए अधिक से अधिक त्याग और बलिदान कर सकता है। स्वार्थ और स्वार्थ से उत्पन्न पाप कार्यों की तो भक्त के लिए संभावना ही नहीं करनी चाहिए। इसलिए अपने हृदय में ऐसी सच्ची ईश्वर-भक्ति उत्पन्न करना और उसके द्वारा सत्कर्म करके मानव जीवन सफल बनाना ही हम सब का परम कर्तव्य है।