Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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भोजन की शुद्धता का हमारे चरित्र पर प्रभाव
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(श्री सीताराम शरण)
हमारे देश में भोजन की शुद्धता का बड़ा महत्व माना गया है। अन्य देश वाले तो भोजन का संबंध केवल स्वास्थ्य से ही समझते हैं पर आर्य जाति के विद्वानों ने चरित्र और धर्म से भी उसका संबंध माना है। यहाँ पर भोजन के संबंध में केवल इस दृष्टि से ही विचार नहीं किया जाता था कि वह शुद्ध पदार्थों से और शुद्ध तरीके से बनाया गया है, वरन् उसकी सामग्री भले या बुरे कैसे साधनों से प्राप्त की गई है, इसका भी ध्यान रखा जाता था। उदाहरण के लिए किसी प्रकार की बेईमानी या चोरी से प्राप्त धन से जो भोजन तैयार किया जायेगा, वह चाहे ऊपरी दृष्टि से कैसा भी शुद्ध और सफाई के साथ क्यों न बनाया गया हो उसका प्रभाव हमारे मन पर अच्छा नहीं पड़ सकता। वह आध्यात्मिक भावों का पतन करने वाला ही माना जायेगा।
गीता के 17 वें अध्याय में भोजन के संबंध में कुछ श्लोक हैं जिनमें इस विषय की बड़े तात्विक ढंग से विवेचना की गई है। भगवान ने भोजन तीन प्रकार का बताया है-सात्विक, राजस और तामस, आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख एवं प्रीति को बढ़ाने वाले एवं रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले, स्वभाव से ही प्रिय भोजन को सात्विक कहा गया है। कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, आदि गरम तथा तीक्ष्ण, रूखे, दाह कारक, दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले खाद्य पदार्थों को राजस कहा गया है। जो भोजन अधपका, रस रहित, दुर्गंधयुक्त और बासी, झूठा, अपवित्र हो उसे तामस बतलाया गया है।
गीता के उपर्युक्त विवेचन को ध्यान रखकर जब हम वर्तमान समय में अपने भोजन पर विचार करते हैं तो जान पड़ता है कि हमारे आजकल के खाद्य पदार्थ विशेषतः तामस और राजस हो गये हैं। इन दोनों प्रकार के गुणों का प्रभाव गीता के 14 वें अध्याय में इस प्रकार बतलाया गया है-”रजोगुण रागमय होता है और इसकी उत्पत्ति कामना तथा वासना से होती है। वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फलों की शृंखला से बाँधता है। तमोगुण देहधारियों को मोह में डालने वाला है और उसकी उत्पत्ति अज्ञान से होती है। वह जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा से बाँधता है।”
अब हम सहज में समझ सकते हैं कि आजकल स्वार्थ साधन, प्रमाद, आलस्य, निद्रा, रोग और नीचतायुक्त विचारों की जो अधिकता दिखलाई पड़ती है उसका हमारे भोजन से क्या संबंध है? आज कल शहरों के शिक्षित समाज में अण्डा और माँस आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है। जिन घरों में पीढ़ियों से कभी माँस, मदिरा, अण्डे का व्यवहार तो दूर रहा-नाम तक नहीं लिया जाता था, उन उच्च जातियों के शिक्षित नवयुवकों को होटलों में ‘आमलेट’ तथा अण्डों से बनी अन्य वस्तुएँ खाते देख हृदय को घोर कष्ट होता है। वे लोग यह तर्क पेश करते हैं कि विज्ञान के अनुसार अण्डा निरामिष भोजन है। पर उनका यह तर्क कुतर्क मात्र है। विज्ञान के अण्डे को चाहे जो कुछ सिद्ध कर दिया हो पर है तो वह पक्षियों के वीर्य आदि का सम्मिश्रण ही। फिर यह किस प्रकार सिद्ध किया जा सकता है कि प्रत्येक निरामिष पदार्थ भोजन के उपयुक्त ही होता है। उदाहरण के लिए प्याज, लहसुन आदि वनस्पति हैं और अनेक रोगों में लाभजनक भी सिद्ध होते हैं, पर उनका भोजन के रूप में नियमित सेवन उत्तेजनाकारी और तमोगुण की वृद्धि करने वाला होता हैं, इसलिए वे त्याज्य माने गये हैं। इसीलिए भगवान ने गीता में त्याज्य पदार्थों के नाम नहीं गिनाये हैं वरन् उनके लक्षणमात्र दे दिये हैं जिससे लोग अपनी बुद्धि से प्रत्येक पदार्थ के प्रभाव को देखकर उनके गुण दोषों को स्वयं ही जान सकें।
आजकल बड़े शहरों में होटलों का प्रचार बढ़ रहा है। इनमें उत्तम परिवारों के व्यक्ति छोटे-छोटे और पर्दा लगे स्थानों में माँस तथा अण्डे से बनी चीजें और अनेक बार शराब भी उड़ाते देखे जाते हैं। ये होटल प्रायः आधी रात तक चलते रहते हैं, उनकी सभी चीजें तेज मसालेदार और तेज खटाई तथा मिर्च आदि से युक्त होती हैं। अनेक पंजाबी होटलों में तो इन पदार्थों में हलका लाल रंग मिलाकर उन्हें और भी वीभत्स बना दिया जाता है। जो लोग इस प्रकार के घोर तामसी और राजसी पदार्थों का सदैव सेवन करेंगे उनसे धार्मिक वृत्ति और उत्तम साँस्कृतिक स्वभाव की क्या आशा की जा सकती है?
आजकल कृत्रिम और डिब्बों में बंद भोज्य-पदार्थों का प्रचार बढ़ता जा रहा है और उनका उपयोग फैशन का एक अंग माना जाता है। मैदा के बने महीनों पुराने बिस्किट, चाकलेट आदि खाना आजकल सभ्यता की निशानी समझा जाता है। डेनमार्क का दूध, कनाडा का मक्खन, आस्ट्रेलिया आदि के डिब्बों में बंद फल आदि महीनों पुरानी वस्तुएँ अगर न खायें तो अपने ‘सभ्य’ मित्रों की भाषा में पुराणपोथी (आर्थोडाक्स) कहलायेंगे। तात्पर्य यह है कि इस समय खाद्य पदार्थों की आँतरिक शुद्धता तथा सात्विकता की ओर किसी का ध्यान नहीं है। होटल में बढ़िया काँच की टेबल पर चमचमाती चीनी मिट्टी के प्लेटों में सुँदर सजा हुआ भोजन चाहिए, फिर चाहे उसके बनने का स्थान, सामग्री, बर्तन तथा बनाने वाले कैसे भी गंदे क्यों न हों।
लहसुन , प्याज खाने वालों के शरीर, पसीना, मल आदि सबसे बड़ी तीव्र गंध आने लगती है। ये आलस्य और प्रमाद की मात्रा बढ़ाते हैं। यही बात अन्य सब तामसी पदार्थों की है। वास्तव में भोजन करते समय विचार करने की मुख्य बात यही है कि उसकी सामग्री सात्विक गुणों को लिये है या नहीं? देखना यह चाहिए कि उसका हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है। एक विचारक का कथन है कि “माँस खाकर माँस बढ़ाने की अपेक्षा घास खाकर मर जाना अच्छा है। “ इसका आशय यही है कि भोजन करना जीवन का उद्देश्य नहीं माना जा सकता, यह केवल किसी उच्च उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर को ठीक हालत में बनाये रखने का साधन मात्र है।
इसी प्रकार जूठा भोजन करने में भी अब विशेष संकोच नहीं किया जाता। एक ही थाली या पात्र में साथ-साथ खाना ही जूठा खाना नहीं है, वरन् काँच के गिलासों और चीनी के बर्तनों के व्यवहार से भी यह बुराई पैदा हो जाती है। आधुनिक सभ्यता में इन बर्तनों को मामूली धो लेने से शुद्ध मान लिया जाता है। पर इनको होटलों, शर्बत, लस्सी बेचने वालों आदि के यहाँ किस प्रकार धोया जाता है यह देखने से ही जाना जा सकता है। कितने ही फेरी लगाने वाले तो एक बाल्टी पानी भर कर रख लेते हैं और प्रत्येक जूठे बर्तन को उसी में एक बार डुबा देने से उसे धोया हुआ मान लेते हैं। स्टेशनों और नुमाइशों आदि में आजकल यह नियम भी प्रचलित हो गया है कि एक बर्तन में पोटाश परमनगेटेड (कीटाणु नाशक दवा) घोलकर रख लेते हैं और पानी पीने वालों के जूठे बर्तनों को उसमें डुबा कर दूसरों को पानी पीने के लिए दे देते हैं। चाहे विज्ञान के सिद्धाँतानुसार यह प्रणाली छूत के रोगों से रक्षा करने वाली हो, पर मन तथा आत्मा पर इसका कुप्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। स्कूलों और कालेजों के विद्यार्थी एक ही बर्तन में मिलकर खाते हुए प्रायः देखे जा सकते हैं। सबके लिए रखा हुआ सूखा मेवा, फल आदि भी अनेक बार इस प्रकार खाये जाते हैं कि वे थूक लग कर जूठे हो जाते हैं और फिर अन्य मेवा अथवा फलों के ढेर में मिला दिये जाते है। दुःख तो इस बात का है कि इन सब बातों में आजकल कोई बुराई नहीं मानी जाती वरन् इनको गौरव की वस्तु और प्रगति का चिन्ह माना जाता है। यही कारण है कि ये खराब आदतें घटने के बजाय तेजी से बढ़ती जा रही हैं।
इस परिस्थिति को देखते हुए इस बात की आवश्यकता है कि हम भोजन के संबंध में भगवान के महान उपदेशों पर मनन करें और यह निर्णय करें कि हमारा वर्तमान भोजन अवनति की ओर ले जाने वाला है या उन्नति की ओर? उससे हमारे चरित्र का उत्थान होता है या पतन?