Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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परमेश्वर को पाने के लिए प्रतीकोपासना आवश्यक है।
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(स्वामी विवेकानंद)
केवल कुछ थोड़े से धर्मों को छोड़कर प्रत्येक धर्म में सगुण परमेश्वर की उपासना ने स्थान पा लिया। शायद जैन और बौद्धों को छोड़कर प्रत्येक धर्म ने सगुण परमेश्वर की कल्पना स्वीकार की, बौद्ध भी, यद्यपि वे सगुण परमेश्वर को तो तथापि अपने धर्म संस्थापकों की ठीक करते हैं, जिस प्रकार अन्य धर्मोपासक ईश्वर की। किसी एक ऐसे उन्नततम व्यक्ति और उपासना, जो मनुष्य को उसके प्रेम का बदला दे सके, सर्वत्र दिखायी देती है। विभिन्न धर्मों में यह प्रेम और भक्ति भिन्न-भिन्न रूपों में विभिन्न परिमाण में प्रकट होती आई है। सबसे पहली अवस्था है ‘बाह्य उपचार’। इस अवस्था में सूक्ष्म वस्तु की कल्पना कर सकना प्रायः असंभव होता है। इसलिए उन सूक्ष्म कल्पनाओं को स्थूल रूप में परिणत किया जाता है। फलस्वरूप मनुष्य अनेक प्रकार की मूर्तियाँ मानने लगा और उसके साथ अनेकों प्रतीकों का उदय हुआ। सम्पूर्ण विश्व का इतिहास यही दिखलाता है कि इन मूर्त विचारों तथा प्रतीकों द्वारा ही मनुष्यों ने निर्गुण को ग्रहण करने का प्रयत्न किया है। घण्टे, स्तुति, पोथी, मंत्र-तंत्र, मूर्तियाँ और धर्म के अन्य बाह्य अनुष्ठान, ये सब इसी श्रेणी में गिने जाते हैं। मनुष्य की इंद्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य कोई भी वस्तु तथा निर्गुण की कल्पना सुगमता से करा देने वाली कोई भी स्थूल आकृति इस काल में पूजा का विषय बन जाती है।
प्रत्येक धर्म में ऐसे धर्मोपदेशक सदैव जन्म लेते आये हैं जिन्होंने प्रतीकों और बाह्य अनुष्ठानों के विरुद्ध कमर कसी है। किंतु उनकी चेष्टा सफल न हो सकी, क्योंकि मनुष्य जब तक मनुष्य है, अधिकाँश जन-समाज कोई ऐसा ठोस स्थूल प्रतीक अवश्य चाहेगा, जिसका वह आश्रय ले सके, जिसको केन्द्र मानकर अपने मन के विचारों को गूँथ सके।
मुसलमानों और प्रोटेस्टेंट पंथ के ईसाइयों ने बाह्य अनुष्ठानों के हटाने में काफी शक्ति खर्च की है, परंतु इतना होते हुए भी ये बातें उनके पंथों में भी घुस पड़ी हैं। बाह्य-विधियाँ नष्ट नहीं हो सकतीं, बहुत प्रयास के बाद केवल इतना ही हो जाता है कि जन-समाज एक प्रतीक को छोड़कर दूसरा प्रतीक ग्रहण कर लेता है। वही मुसलमान, जो ‘काफिर’ की मूर्ति पूजा को पाप बतलाता है, जब काबे की मस्जिद में जाता है तो इस प्रकार नहीं सोचता और बड़ी श्रद्धा से दीवाल में लगे काले पत्थर को चूमता है। प्रोटेस्टेंट पंथ वाले गिरिजाघर को अन्य सब स्थानों से अधिक पवित्र और पूजनीय मानते हैं और इस प्रकार गिरिजा घर का मकान ही उनके लिए पूजा का प्रतीक बन जाता है। इसी प्रकार वे बाइबिल को भी परम पवित्र मानते हैं, और वह अन्य धर्म के धार्मिक प्रतीकों की तरह ही काम देती है।
इसीलिए मूर्तिपूजा या प्रतीकोपासना के विरुद्ध उपदेश देना व्यर्थ है। मनुष्य उन्हें इसीलिए काम में लाते हैं कि वे कुछ विशिष्ट भावों के संकेत स्वरूप होते हैं। यदि विचार किया जाय तो यह सम्पूर्ण विश्व ही किसी अव्यक्त शक्ति का एक विशाल प्रतीक है। इसीलिए मूर्तियाँ, घंटे, मोमबत्तियाँ, ग्रंथ, गिरजाघर, मंदिर और अन्यान्य पवित्र प्रतीक बड़े अच्छे हैं और अभ्यास रूपी पौधे की बाढ़ के लिए बहुत उपयोगी हैं, लेकिन इनका उपयोग बस यहाँ तक है, इससे अधिक नहीं। अधिकाँश लोगों की सीमा इन प्रतीकों तक ही रहती है जिससे इस पौधे की बाढ़ नहीं हो पाती। ठाकुरद्वारे में जन्म लेना एक बहुत अच्छी बात है, पर मंदिर में ही मर जाना दुर्भाग्य है। अध्यात्मरूपी पौधे की बाढ़ में पहुँचाने वाली इन उपासना विधियों का अभ्यास करना अच्छा है, पर आजन्म उसी उपासना-पद्धति में पड़े रहना और मर जाना यह प्रकट करता है कि उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई।
इन बाह्य अनुष्ठानों में एक कल्पना मुख्य है जो दूसरी सब कल्पनाओं से श्रेष्ठ है। वह है नाम की उपासना। यह उपासना पद्धति प्रायः सभी धर्मों में पाई जाती है। नाम अत्यंत पवित्र माना जाता है और ईश्वर का नाम सबसे अधिक पवित्र है। ईश्वर के नाम की महिमा अतुलनीय मानी गई है, और ऐसा माना गया है कि यह पवित्र नाम ही परमेश्वर है। और यह सत्य भी है, क्योंकि यह विश्व नाम और रूप के अतिरिक्त और है ही क्या? क्या शब्दों के बिना तुम सोच सकते हो? शब्द और विचार एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते। जब कभी तुम सोचते हो तो शब्द-आकृतियों द्वारा ही। एक के साथ दूसरा आता ही है, नाम रूप की याद दिलाता है, और रूप से नाम का स्मरण होता है। यह संपूर्ण विश्व मानो परमेश्वर का स्थूल प्रतीक है, और उस के पीछे है उसका महिमान्वित नाम। इसीलिए नाम का इतना माहात्म्य है और दुनिया में वह सब जगह पूजा जाता है-चाहे जान बूझकर और चाहे अनजाने मनुष्य को नाम की महिमा मालूम हो ही गई है।
हम यह भी देखते हैं कि भिन्न-भिन्न धर्मों में पवित्र पुरुषों की पूजा होती आई है। कोई कृष्ण की पूजा करता है, कोई ईसा की और कोई बुद्ध की और कोई अन्य विभूतियों की। इसी तरह लोग संतों की पूजा करते आ रहे हैं और सैकड़ों साधु-संत आज संसार में पूजे जा रहे हैं। और वे क्यों न पूजे जाएं? परमेश्वर सर्वत्र विद्यमान है वह घर-घर में प्रकट हो रहा है, लेकिन मनुष्य को वह मनुष्य में ही दिखलाई पड़ सकता है। जब उसकी ज्योति, उसका अस्तित्व, उसका ईशत्व मानवीय मुखमण्डल पर प्रकट होता है तभी मनुष्य उसे पहचान सकता है। इस तरह मनुष्य सर्वदा मानव रूप में परमेश्वर की पूजा करता आ रहा है और जब तक मनुष्य, मनुष्य रहेगा, वह ऐसा करता ही जायेगा।
इस प्रकार प्रत्येक धर्म में हम तीन मुख्य बातें देखते हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर की पूजा की जाती है। वे हैं-(1) प्रतिमाएँ या प्रतीक (2)नाम और (3) अवतारी पुरुष। प्रत्येक धर्म में ये बातें हैं, फिर भी लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। प्रत्येक दूसरों से कहता है-”यदि संसार में कोई प्रतिमा सच्ची है, तो वह मेरे धर्म की, कोई नाम सच्चा है, तो मेरे धर्म का। तुम्हारी तो केवल पौराणिक कथाएँ हैं।” इस तरह का भाव किसी एक राष्ट्र या जाति में नहीं पाया जाता है। सभी लोग यही सोचते हैं कि वे जो कुछ करते आये हैं वही सच है और अन्य लोगों को भी वैसा ही आचरण करना चाहिए।
पर ये तो उपासना के बाहरी अंग हैं, जिनमें होकर मनुष्यों को गुजरना पड़ता है। ये मंदिर और गिरजा, पोथी और पूजा-ये धर्म के केवल प्राथमिक उपकरण मात्र हैं, जिनसे मानव की अध्यात्म-शक्ति बलवती होती है, जिससे वह आध्यात्मिकता की उच्चतर सीढ़ियों पर पैर रखने में समर्थ होता है। यदि उसकी इच्छा है कि उसकी धर्म में गति हो तो ये पहली सीढ़ियाँ आवश्यक हैं। पर आजकल के मनुष्य धर्म के बारे में केवल बड़ी-बड़ी बातें ही करना चाहते हैं, पर उसे पाना नहीं चाहते और न उसका प्रत्यक्ष अनुभव लेना चाहते हैं। क्या तुम यह कहने का साहस कर सकते हो कि दुनिया के ये लोग परमेश्वर को चाहते हैं पर उसे पा नहीं सकते? असंभव! दुनिया में ऐसी कौन सी इच्छा है जिसकी पूर्ति का साधन मौजूद नहीं है। मनुष्य चाहता है कि साँस ले और वह देखता है कि खाने के पदार्थ उसके सामने मौजूद हैं। इच्छाएँ क्यों उत्पन्न होती हैं? इसीलिए कि उनके विषय बाहर विद्यमान हैं। प्रकाश विद्यमान था, इसलिए आँखों ने जन्म लिया और शब्द विद्यमान था इसलिए कानों का जन्म हुआ। इस तरह मनुष्य की प्रत्येक इच्छा किसी न किसी बाह्य विद्यमान वस्तु के कारण ही उत्पन्न हुई है। तो फिर पूर्ण विकास की इच्छा, अंतिम ध्येय पर पहुँचने की इच्छा तथा प्रकृति से परे जाने की इच्छा, यह स्वयं ही-बिना आधार के ही क्यों कर उत्पन्न हो सकती है? ऐसी कोई वस्तु होनी ही चाहिए जिसने इस इच्छा को मनुष्य के हृदय में उत्पन्न किया है। इसलिए जिस व्यक्ति में यह इच्छा उत्पन्न हुई है वह अवश्य ही अपने ध्येय तक पहुँच जायगा और इसकी आरंभिक सीढ़ी सदैव यही प्रतीकोपासना ही रहेगी।