
धर्म प्रचार-सर्वश्रेष्ठ पुण्य-कार्य है।
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यह सुनिश्चित तथ्य है कि कोई बात पहले विचार क्षेत्र में आती है, मन में जड़ जमाती है, बुद्धि उस पर जोर देती है तब वह कार्य रूप में परिणित होती है। संयोगवश, घुणाक्षर न्याय से आकस्मिक रीति से हो जानी वाली थोड़ी-सी घटनाओं को छोड़कर शेष सभी कार्य पहले विचार क्षेत्र में आते हैं। जो कार्य आज होते दिखाई पड़ रहे हैं वे किसी समय उनके कर्ताओं के मस्तिष्कों में घूम रहे हैं, वे पूरे या अधूरे रूप में कल कार्य रूप में परिणित होकर रहेंगे। मानव प्राणी का निर्माण इसी आधार पर हुआ है, उसके विचार ही कार्य बन जाते हैं। इसलिए विचारों को भी एक प्रकार से कार्य ही कहते हैं। जिस प्रकार भले बुरे कर्मों का पुण्य-पाप होता है वैसे ही भले बुरे विचारों का भी होता है क्योंकि विचार वस्तुतः सूक्ष्म रूप से कार्य ही हैं। जो बात आज विचार क्षेत्र में घूम रही है, शरीर के कल पुर्जे कल उसे कार्य बना कर उपस्थित कर देंगे।
आप जो कार्य लोगों से कराना चाहते हैं, उसे पहले उनकी भूमिका में प्रवेश कराना होगा। यह विचार जैसे-जैसे प्रबल और परिपुष्ट होते जावेंगे वैसे-वैसे ही यह सम्भावना बढ़ती जायेगी कि अभीष्ट कार्यक्रम प्रत्यक्ष क्रिया रूप में सामने आवें। इसलिए जन प्रवृत्ति को किसी दिशा में मोड़ने के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता प्रचार की होती है। प्रचार का बल तोपों और तलवारों से भी असंख्य गुणा अधिक है। लोग अपने भौतिक व्यापारिक गुण और राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रचार शस्त्र का ही सहारा लेते हैं। दो-दो पैसा लागत मूल्य की बेकार दवाओं के लम्बे-चौड़े विज्ञापन छाप कर दीवारें रंग कर लोगों ने जनता में अरबों-खरबों शीशियाँ बेच दीं और करोड़ों रुपया बटोर लिया। चाय वालों ने, बीड़ी वालों ने अपनी बेकार चीजों को लोगों के मुँह पर ऐसा चढ़ा दिया कि उनके बिना चैन नहीं। सिनेमा वालों के पोस्टर और प्रदर्शन ही जनता को खेल देखने के लिए खींच ले जाते हैं। राजनैतिक पार्टियाँ विशाल जुलूस, रैली-सम्मेलन पत्र, पत्रिकाएं, पर्चे, पोस्टर, भाषण, संगीत आदि द्वारा जनता को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
यह भौतिक उद्देश्यों के लिए प्रचार शस्त्र के उपयोग की बात हुई। पर शुभ उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भी इसी प्रकार शस्त्र को काम में लेना पड़ता है। ईसाइयों ने पिछले दिनों बाइबिल का संसार की सभी भाषाओं में अनुवाद किया है और सस्ती पुस्तिकायें, इतनी बड़ी संख्या में छापी हैं कि संसार के हर मनुष्य के हिस्से में 27-27 पुस्तिकाएं आती हैं। उनके लाखों प्रचारक दुनिया में काम करते हैं। फलस्वरूप गत 200 वर्षों के थोड़े से समय में संसार की लगभग आधी आबादी ईसाई हो गई। 200 वर्ष पूर्व जो ईसाई मुश्किल से, कुछ करोड़ थे। वे ही प्रचार के बल से बढ़कर दुनिया की आधी आबादी पर छू गये और दिन-दिन तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। दूसरी ओर प्रचार के अभाव से दुनिया का सबसे बड़ा बुद्धिमत्ता, नीति शास्त्र-आचार संहिता और तत्व-दर्शन वाला हिन्दू धर्म दिन-दिन घटता चला जा रहा है।
प्रचार का महत्व सदा सभी लोगों ने एक सामान स्वीकार किया है। केवल उनकी पद्धतियों में अन्तर होता है। जिस प्रकार आज ईसाई काम करते हैं उसी प्रकार 2000 वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म के प्रतिष्ठाताओं ने प्रचार का महत्व समझ कर भेजा था। उस जमाने में यातायात के साधनों के अभाव में दूरवर्ती यात्राएं बड़ी कठिन थीं, पर बौद्ध भिक्षुओं ने इस सर्वश्रेष्ठ पुण्य कार्य के लिए अपने प्राण तक अर्पण करना स्वीकार किया। हजारों भिक्षु प्रचार के लिए दूर देशों को जाने के कठिन मार्ग में रास्ते में ही मर गये, पर हजारों ने अपनी जान पर खेल कर दुनिया के कोने-कोने में प्रचार कार्य और उस परम पवित्र धर्म सेवा को व्यक्तिगत पूजा उपासना से हजारों गुना महत्वपूर्ण समझ कर अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। उसी का फल है कि बौद्ध धर्म आज भी ईसाई धर्म के बाद दूसरे नम्बर पर है, और संसार के एक बड़े भाग की जनता बौद्ध धर्म की अनुयायी है।
ऋषियों की कार्य पद्धति में भी धर्म प्रचार को सर्वप्रधान स्थान दिया गया है। रामायण गीताभागवत, सत्यनारायण व्रत-महात्म्य, आदि में धर्म प्रचार ही एक मात्र उद्देश्य है। कुम्भ आदि पर्वों पर, तीर्थ स्थानों में निर्धारित समय और निर्धारित स्थान पर लाखों जनता एकत्रित होकर वहाँ धर्म प्रचार के उद्देश्य से ही पधारे हुए सन्त महात्माओं के प्रवचनों से लाभ उठाती थी, स्वाध्याय, पाठ, अमुक ग्रन्थों का पाठ करने की प्रक्रियाओं के पीछे भी यही लक्ष है।
साधु ब्राह्मणों का इतना सम्मान इसीलिए था कि वे जन समाज के नैतिक आध्यात्मिक, चरित्रात्मक स्तर स्थिर रखने के लिए निरन्तर प्रचार कार्य में संलग्न रहते थे और अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं को तिलाँजलि देकर अपना जीवन इतना उत्कृष्ट बनाते थे कि उनका प्रचार सच्चे अर्थों में प्रभावशाली सिद्ध हो सके। साधु का प्रधान कार्य परिव्राजक बनकर निरन्तर धर्म प्रचार करते रहना है। उनके लिए शास्त्र की आज्ञा यही है कि अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा माँगने जाने के बहाने नित्य ही बराबर धर्मोपदेश करें। जिस दिन धर्मोपदेश नहीं, उस दिन रोटी भी नहीं, यह शर्त लगाकर भिक्षा ही जीविका बनाने का साधु के लिए आदर्श नियत किया गया था। एक स्थान पर न रहकर निरन्तर भ्रमण करते रहने का व्रत भी उन्हें इसीलिए दिया जाता था कि अधिकाधिक दूर का क्षेत्र उनकी सेवा से लाभ उठा सके और एक स्थान पर रहने के कारण मोह एवं परिग्रह की प्रवृत्ति उनमें पैदा न होने पावे। ब्राह्मण गृहस्थ हो सकता है, एक स्थान पर रह सकता है, सीमित क्षेत्र में सेवा कर सकता है, भिक्षाटन की अपेक्षा दक्षिणा ले सकता है इतनी ही उसे सुविधा एवं छूट है शेष कार्य एवं उद्देश्य उसके भी साधुओं जैसे ही हैं। जिस दिन ब्राह्मण स्वाध्याय एवं धर्म प्रचार नहीं करता उस दिन वह अपने कर्तव्य से पतित होकर प्रायश्चित्त का भागी बनता है। धर्म-ग्रन्थों का दान हिन्दू धर्म में सबसे बड़े दान की अपेक्षा हजार गुना अधिक माना गया है। इसका कारण धर्म भावनाओं की अभिवृद्धि के साधनों को महत्व देना ही है।
आज के साधु ब्राह्मण दान दक्षिणा लेने, चेली चेला बनाने और शौक की जिन्दगी बिताने में लगे रहते हैं, पर प्राचीन काल में उनका सारा समय जनता का मानसिक स्तर ऊँचा रखने के लिए धर्म प्रचार के कठिन कार्यक्रमों में दिन रात लगे रहने का होता था। उनके इस कार्य की महानता एवं उपयोगिता को जनता समझती थी इसीलिए उन्हें इतना सम्मान प्रदान करती थी, उनके चरणों पर मस्तक झुकाती थी। पर आज तो जमाना उल्टा होने के साथ-साथ यह साधु ब्राह्मण भी उलटे हो गये हैं। निस्वार्थ धर्म सेवा के स्थान पर ब्राह्मण का लक्ष्य नाना विधि तरकीबें ढूंढ़ कर यजमान से अधिकाधिक पैसे झटकना और साधु का कार्य मुफ्त में जनता से सब कुछ प्राप्त करते रहना और अपनी निज की मुक्ति एवं ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने की स्वार्थ साधना में लगे रहना मात्र बन गया है। समाज का मानसिक स्तर स्थिर रखने की जिम्मेदारी को छोड़ कर अन्य साधारण व्यवसायियों जैसी स्वार्थ बुद्धि जब से अपनाई तब से हमारा सामूहिक अधःपतन आरम्भ हो गया और आज हम इस हीन दशा को पहुँच गये।
गायत्री परिवार ब्राह्मण-संस्था है उसने कन्धे पर सामूहिक रूप से वह जिम्मेदारी ली है जो तथाकथित साधु ब्राह्मणों ने उतार कर फेंक दी है। लोग सत्कर्म करें, सदाचारी रहें, ईमानदार बनें परस्पर सद्व्यवहार करें, संयमी बनें, कर्तव्य का ध्यान रखें इस प्रकार की गतिविधि संसार में उत्पन्न हो ऐसा ही क्रिया कलाप, आचार−व्यवहार चलने लगे, इसके लिए यह आवश्यक है कि इस प्रकार की भावनाएँ लोगों के मस्तिष्कों में ठूँस-ठूँस कर भर दीं जाएं। यदि इस प्रकार के ठोस और मजबूत विचार तर्क, विवेक युक्त एवं प्रभावशाली ढंग से जनता को न दिये गये तो यह आशा नहीं की जा सकती कि जन-समाज में श्रेष्ठ आचरण दृष्टिगोचर होने लगेंगे। कोई बात कार्य रूप में दिखाई दे, इसके लिये यह नितान्त आवश्यक है कि उस विचार धारा का जनता के मन में गहराई तक प्रवेश करा दिया जाय। पर्याप्त विचार बल हुए बिना जो कार्य किसी प्रेरणा विशेष के कारण किये जाने लगें तो वे ठहरेंगे नहीं स्थायी नहीं रहेंगे, अधिक दिन चल न सकेंगे। इसलिए गायत्री परिवार का प्रमुख कार्य जनता के बौद्धिक क्षेत्र में उच्च आदर्शों का गहराई तक प्रतिष्ठापन करना है। इसके लिए उसे धर्म प्रचार की वही आर्य पद्धति अपनानी पड़ेगी जो सनातन काल से ऋषि मुनियों द्वारा साधु ब्राह्मणों द्वारा अपनाई जाती रही है।
जन साधारण को सन्मार्गगामी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि दुष्प्रवृत्तियों की बुराइयाँ और सन्मार्ग की महत्ता को उनके अन्तः प्रदेश में गहराई तक बिठा दिया जाय। यह कार्य धर्म प्रचार के परम पुनीत अस्त्र द्वारा ही संभव है। प्राचीन काल के प्रायः सभी ऋषि मुनि साधु ब्राह्मण इस धर्म सेवा के लिए अधिकाधिक समय लगाते थे। जगद्गुरु शंकराचार्य का सारा जीवन इसी पुनीत कार्य में लगा। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती इसी प्रक्रिया में संलग्न रहे। मीराबाई अपना राजमहल छोड़कर जगह-जगह भटकने के लिए निकल पड़ीं। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर इसी उद्देश्य के लिए जीवन भर भ्रमण करते रहे। रामतीर्थ, विवेकानन्द,गाँधी आदि महात्माओं ने घर-घर अलख जगाया। देवर्षि नारद को यह अधिकार प्राप्त था कि वे चाहे जब विष्णु भगवान के पास पहुँचते थे। यह अधिकार और किसी भी ऋषि को प्राप्त न था। उनको इतनी बड़ी महत्ता प्राप्त करने का कारण यह था कि उन्होंने धर्म प्रचार को ही अपनी एकमात्र साधना बनाया था, और यह परम निस्वार्थ उपासना भगवान को अन्य सब साधनाओं की अपेक्षा अधिक प्रिय है।
शास्त्रों में लिखा है कि पुण्य या पाप की प्रेरणा देने वाले को इस प्रेरणा के फलस्वरूप होने वाले कार्यों का दसवां भाग पुण्य-पाप प्राप्त होता है। धर्म प्रचार के द्वारा अनेक व्यक्तियों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है, फलस्वरूप उन शुभ कार्यों का दशाँश पुण्य उस प्रचारक को मिल जाता है। जो व्यक्ति सहस्रों व्यक्तिओं को धर्म मार्ग में प्रवृत्त करने की प्रक्रिया में प्रवृत्त है उसे उस जन समूह द्वारा किये हुए सत्कर्मों का दशाँश पुण्य मिलने से वह पुण्य इतना बड़ा हो जाता है कि साधारण जप, तप के द्वारा उतना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं।
युगाचार परिवर्तन की, असुरता को निवारण करके देवत्व की स्थापना की, साँस्कृतिक पुनरुत्थान की जो परम पवित्र योजना गायत्री परिवार द्वारा प्रारम्भ की गई है उसकी सफलता का प्रधान अस्त्र धर्म प्रचार है। संसार में सुख शान्ति स्थापित करने का महान उद्देश्य पूरा करने के लिए हमें इस साधन को पूरी श्रद्धा और तत्परता के साथ हाथ में लेना होगा। इसकी उपेक्षा करके हम कभी भी अपना लक्ष पूरा न कर सकेंगे।
ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के याज्ञिकों पर जप और उपवास की जिम्मेदारी डाली गई है। साथ ही यह भी प्रयत्न किया गया है कि इस महान धार्मिक अभियान में भाग लेने वाला व्यक्ति किसी रूप में धर्मप्रचार की परम पवित्र जिम्मेदारी को भी अपने कंधे पर ले। यह धर्म प्रचार ही इस महायज्ञ का ब्रह्मभोज है।
अनुष्ठान के तीन आवश्यक अंग होते हैं। (1) जप (2) हवन (3) ब्रह्मभोज। इन तीनों कार्यों को मिलाकर ही कोई अनुष्ठान पूर्ण होता है। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के लिए भी इन तीन आधारों का अनिवार्य रूप से संकल्प किया गया है। यों रूढ़ि के रूप में आज भी ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए मनुष्यों को लड्डू पुआ खिलाकर लोग यह आत्म सन्तोष कर लेते हैं कि हमने कुछ पुण्य कमा लिया या एक धार्मिक परम्परा को पूरा कर लिया। वस्तुतः ब्रह्मभोज का उद्देश्य उन्हीं ब्राह्मणों को भोजन कराने से पूरा हो सकता है जो अत्यन्त उच्च चरित्र के, ब्रह्म पारायण, अपरिग्रही, विद्वान एवं समाज की धर्म सेवा में निरन्तर संलग्न हैं। ऐसे लोगों को ही भोजन कराने का पुण्य होता है। इन गुणों के अभाव में किसी वंश विशेष में जन्म लेने के कारण न तो किसी को धर्म के नाम पर प्राप्त भोजन करने का अधिकार है और न उन्हें भोजन कराने वाले को कुछ पुण्य मिलता है। आज ब्रह्मभोज के उपयुक्त ब्राह्मण ढूँढ़े नहीं मिलते, ऐसी दशा में हमें विवेक से काम लेना होगा और उसी कार्य को ब्रह्मभोज मानना होगा जिसके द्वारा सद्ज्ञान प्रसार का उद्देश्य पूरा होता हो। इस दृष्टि से सत्साहित्य का वितरण एवं सद्ज्ञान का प्रसार ही विवेक पूर्ण ब्रह्मभोज की कसौटी पर खरा उतरता है। शास्त्रों में अन्न दान की अपेक्षा ज्ञान दान का पुण्य सौ गुना अधिक माना गया है।
महायज्ञ के होता यजमानों के लिये यह शर्त रखी गई है कि उन्हें सर्वोत्तम पुण्य कार्य ज्ञानदान-ब्रह्मभोज के लिए कुछ पैसा अवश्य खर्च करना चाहिए भले ही वह एक मुट्ठी अन्न या एक पैसा प्रतिदिन ही क्यों न हो। ब्रह्मभोज जैसे महान कार्य के लिए इतना छोटा त्याग-जिसके मन में श्रद्धा का तनिक सा भी बीजाँकुर हो वह गरीब से गरीब होते हुए भी आसानी से कर सकता है।