
विश्व संकट का समाधान
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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार आगे भी पाँच वर्ष घोर अनिष्ट के दिखाई पड़ रहे हैं। यह भयंकरता कितनी होगी, माप यह है कि मनुष्य जाति के सामूहिक दुष्कर्म जितने अधिक होंगे उतना ही आज संसार को सहना पड़ेगा। यह वर्ष तो उन अशुभ कर्मों के फूट पड़ने का अनुकूल अवसर मात्र है।
सूक्ष्म दृष्टि से, आध्यात्मिक दिव्य दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट दिखाई देता है कि आसुरी विचारों एवं कर्मों ने आकाश को बुरी तरह तमसाच्छन्न कर रखा है, इन काली घटाओं को जब भी बरसने का अवसर मिलेगा गजब ही ढा देने की परिस्थिति पैदा कर देंगी। दूरदर्शी तत्ववेत्ता लोग अदृश्य के इन्हीं शुभ-अशुभ जमघटों को देखकर भले-बुरे भविष्य की भविष्यवाणियाँ किया करते हैं। ग्रह दशा को उस भविष्य दर्शन के जानने में एक सहायक दूरबीन माना जा सकता है। उनकी स्थिति का गणित करके वही काम निकाला जाता है जैसा बड़ी दूरबीन लगाकर क्षितिज पर बहुत दूर उड़ती हुई किसी चीज को देखा जा सकता है।
इसमें सन्देह नहीं कि मानव जाति के सामूहिक दुष्कर्म जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उसी तेजी से बढ़ते रहे, उनकी रोक थाम न हुई, तो विश्व संहार की वैसी ही दुर्घटना अगले वर्षों में हो सकती है, जैसी नीचे ही गई है।
बैंगलोर की ज्योतिष सम्बन्धी पत्रिका ‘एसट्रोलाजिकल मैगज़ीन’ के सम्पादन श्री बी. बी. रमन ने लिखा कि सन् 1957 और 58 में काल सर्प योग पड़ रहा है। यह योग अपूर्ण है इस कारण युद्ध की तनातनी पैदा होकर थोड़ी ही हानि होगी। सन् 1959 के अगस्त के अन्त में शनि, मंगल,राहु एक केन्द्र में आ जायेंगे। इससे युद्ध का वातावरण बढ़ेगा और राष्ट्र संघ आवश्यकता के वशीभूत होकर नैतिकता को त्याग देगा। राष्ट्रों के बीच झगड़ों और फूट में वृद्धि होगी और परिस्थिति संकटजनक हो जायगी। पर असली संकट सन् 1962 में ही आने वाला है।
सन् 1962 में 5 फरवरी को केवल सूर्य ग्रहण ही नहीं पड़ेगा वरन् आठ ग्रह एक साथ इकट्ठे हो जायेंगे। यह योग वास्तव में बड़ा शक्तिशाली है और भयंकर फल उत्पन्न करने लायक है। ऐसा जान पड़ता है कि इस अवसर पर रूस और अमरीका दोनों केवल धमकी और शक्ति प्रदर्शन ही से संतुष्ट न रहकर विश्वव्यापी संग्राम के लिये तैयार होकर मैदान में उतरेंगे। पर ग्रहों के प्रभाव से बड़ी शीघ्रता से प्रहार होगा, बड़ी शीघ्रता से नाश होगा और युद्ध का अन्त भी शीघ्र ही आयेगा। निश्चय ही संसार को एक महान संकट का सामना करना पड़ेगा और राज्यों के संचालक मंगल के प्रभाव को रोकने में असमर्थ होंगे।
पं. हरदेव शर्मा त्रिवेदी ने सन् 1957 के अन्त में और जनवरी फरवरी 1958 में युद्ध की परिस्थिति पैदा होने की लिखी है जो शाँतिप्रिय राजनीतिज्ञों के प्रयत्न से संभल जायगी ऐसी आशा है। पर 1962 के योग के लिये आपका भी यही मत है कि उस समय विनाशकारी घटनाएँ होना लगभग निश्चय सा ही है।
ज्योतिषाचार्य पं. कृष्णामुरारी मिश्र ने सामयिक पत्रों में प्रकाशित कराया है कि सन् 1962 की 16 फरवरी तक का काल मानव जाति के लिये अत्यन्त भयंकर होगा जब युद्ध, दैवी आपत्तियाँ तथा अन्य घटनाओं के फलस्वरूप संसार की जनसंख्या का एक चौथाई भाग नष्ट हो जायगा। उस समय सूर्य, चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, शनि और केतु एक ही राशि अर्थात् मकर राशि में निवास करेंगे। केवल राहु अत्यन्त्र होगा किन्तु मकर राशि पर उसकी भी पूर्ण दृष्टि होने से मकर में नवों ग्रहों का वास समझना चाहिये महाभारत के समय केवल सात ग्रह एक राशि पर आये थे। इस बार का योग उससे भी अधिक प्रकोप भारत के पूर्वी तथा पश्चिमोत्तर प्रदेशों,पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मलाया, थाईलैण्ड, चीन का उत्तरी भाग, रूस का पश्चिम भाग, ग्रीस, हंगरी, नार्वे, डेनमार्क, ब्रिटेन, आयरलैण्ड, हालैण्ड, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका), ब्राजील और सीरिया पर होगा।
ईसाइयों की ‘बाइबिल’ में भी बहुत सी भविष्यवाणियाँ दी गई हैं और उसमें से अभी तक बहुत सी सत्य सिद्ध हो चुकी हैं। उन्हीं भविष्यवाणियों में एक भविष्यवाणी यह भी है कि सन् 1966 के लगभग में संसार के राष्ट्रों में कलह, फूट और स्वार्थ साधन का भाव बहुत अधिक बढ़ जायगा और उसके फल से युद्ध का वातावरण बड़े भीषण रूप में प्रकट होगा। उसी समय लोग, अकाल, भूकम्प आदि दैवी कोपों से भी मनुष्यों का संहार होगा। अन्त में थोड़े से पुण्यात्मा और परोपकारी व्यक्ति ही बच सकेंगे। बाइबिल में ये सब बातें रूपक और अलंकार युक्त भाषा में लिखी गई हैं।
इसी तरह मुसलमानों की कुरान तथा अन्य धर्म ग्रन्थों में भी इस युग परिवर्तन की बात पाई जाती है। उसके अनुसार इस्लाम की चौदहवीं सदी में कयामत (प्रलय) हो जायगी। मुसलमानों में आमतौर पर विश्वास किया जाता है कि चौदहवीं सदी के अन्तिम भाग में दुनिया में बड़ी-बड़ी भयंकर घटनायें होंगी बहुत सी नाशकारी लड़ाइयाँ होंगी, मुसलमानी धर्म का अन्त हो जायगा और अन्त में एक नया पैगम्बर (अथवा अवतार) पैदा होकर नया धर्म चलायेगा। चार-पाँच सौ वर्ष पहले फ्राँस में ‘नोस्टरडम’ नाम का विद्वान भविष्यवाणियों के सम्बन्ध में एक विशाल ग्रन्थ लिखा गया है। उसकी अनेक बातें अभी तक पूरी हो चुकी हैं। उसमें लिखा है कि “तीसरा महायुद्ध वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं में से फट पड़ेगा। यह युद्ध मुख्य रूप से ‘गरुड़’ और ‘रीछ’ के मध्य होगा। इस युद्ध में कोई जीत नहीं सकेगा, वरन् दोनों एक दूसरे की शक्ति का नाश कर देंगे। इस युद्ध के बाद दोनों में से एक को भी महान शक्ति यों नहीं गिना जायगा।” (अमरीका का राष्ट्रीय चिन्ह ‘ईगल’ (गरुड़) है और रूस को ‘रशियन वियर’ (रूसी भालू) कहा जाता है।
जर्मनी के एक ज्योतिष-विज्ञान ज्ञाता प्रो. ट्रोइन्सकी ने कहा है कि “ राजनैतिक संघर्ष सन् 1955 से अधिक उग्र होते जायेंगे सन् 1958-59 की साल में संघर्ष भयंकर रूप धारण करते रहेंगे। सन् 1961 से 1963 तक के वर्षों में इससे भी भीषण अवस्था विभिन्न देशों के बीच उत्पन्न हो जायेगी जो सन् 1965 तक जारी रहेगी। इसी वर्ष इन समस्त घटनाओं का कोई निश्चित परिणाम दिखाई देगा।
उपरोक्त भविष्यवाणियाँ तथा संसार की वर्तमान राजनीतिक एवं जन प्रवृत्तियाँ बतलाती हैं कि मानव जाति को निकट भविष्य में भयंकर आपत्तियों का सामना करना पड़ेगा। महायुद्ध,महामारी, दुर्भिक्ष, दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि, अस्थिरता, अव्यवस्था, अराजकता जैसी अनेक विपत्तियाँ संसार के सामने के अनेक रूपों में उपस्थित होंगी, जिसके फलस्वरूप अपार धन जन की हानि होने की सम्भावना है। संसार के एक तिहाई मनुष्य इन विपत्तियों की चक्की में पिस जावें तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।
वास्तविक संध्या काल वह होता है जिस समय सूर्य बिलकुल उदय या अस्त हो। यह समय प्रायः 5-5 मिनट का प्रातः संध्या होता है। वास्तविक संध्या काल 5-5 मिनट होने पर भी व्यवहारिक संध्या एक-एक घण्टे की मानी जाती है। चन्द्र, सूर्य ग्रहण के वास्तविक काल से बहुत पहले और बहुत पीछे तक सूतक काल रहता है। उसी प्रकार सन् 62 में जिस महा भयंकर कुयोग की सूचना ज्योतिषियों ने दी है, और जिसके कारण संसार में प्रलयकाल का दृश्य दिखलाई पड़ने की आशंका उत्पन्न हो गई है उसका वास्तविक समय यों 16 जनवरी से 12 फरवरी तक 26 दिन का है, पर इसका पूर्व एवं पर काल 5-5 वर्ष आरम्भ तथा अन्त में रहेगा। सन् 57 से वह अशुभ कुचक्र आरम्भ होता है और उसकी समाप्ति सन् 67 तक चलेगी। इस प्रकार से 10 वर्ष का मानना चाहिये।
समय की इस कठिनाई को पाठक स्वतः अनुभव कर रहे होंगे। इस वर्ष भी संसार कम विपत्तियों में से नहीं गुजर रहा है।
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने नये प्रकार के शिकंजे और दाव-पेंच तैयार करके पहले से भी भयंकर रूप में प्रकट हो रही हैं। युद्ध की चिनगारियाँ एशिया, योरोप, अफ्रीका के विशाल भूखंडों में अनेकों स्थानों पर सुलग रही हैं, थोड़ा-सा भी अवसर पाने पर वे दावानल का रूप धारण कर सकती हैं। अणुबम, उद्जन बम आदि सर्वसंहारी अस्त्र मानव सभ्यता को मटियामेट कर देने और धरती को प्राणी विहीन बना देने के लिए चुनौती के रूप में खड़े हुए हैं। इन अस्त्रों के परीक्षण मात्र से विश्व का वातावरण भयंकर रूप से विषाक्त होता चला जा रहा है और उसके कारण जगह-जगह इन्फ्लुएंजा आदि बीमारियाँ फैल रही हैं और सर्दी, गर्मी, वर्षा के मौसमों का सन्तुलन बिगड़ रहा है उनके मनः संस्थान क्रोध, द्वेष, अवज्ञा और उच्छृंखलता से भरे हुए आ रहे हैं। यह दुर्भाग्य आगे और भी बुरे रूप में उपस्थित होगा जबकि बालक विकलाँग, अन्धे, गूँगे, बहरे, अपाहिज और पागल जैसी स्थिति में पैदा होकर धरती पर भू-भार की तरह जीवन व्यतीत करेंगे और कैंसर, राजयक्ष्मा, अस्थि शोथ आदि भयंकर रोगों की यातनाओं से तड़प—तड़प कर प्राण देंगे। अणुबमों के परीक्षण से उत्पन्न हुई आकाश-व्यापी रेडियो सक्रियता से इस प्रकार के अनेक उपद्रव खड़े हो रहे हैं और आगे होंगे।
संसार को जला डालने वाली भयंकर दावानल के शोले जो उठ रहे हैं और विकराल सर्वनाश का जो दृश्य उपस्थित करने वाले हैं उन्हें शान्त करने के लिए एक प्रचण्ड वरुणास्त्र की आवश्यकता है। दुनिया हाइड्रोजन बम बनाने में लगी हुई है। पर उससे उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों को शमन करने की शक्ति किसी में नहीं है। यह कार्य इस ऋषियों की भूमि भारतवर्ष में ही हो सकता है। यहाँ से संसार को शाँति प्रदान करने वाली अमृत निर्झरिणी सदा से ही बहाई जाती है। इस समय जिस वरुणास्त्र की इन सम्भावित आपत्तियों को टालने की, इनका प्रतिरोध करने की, इनमें समस्त मानव जाति को बचाने की क्षमता किसी में है तो वह इस ऋषि भूमि भारतवर्ष में ही है। अन्य देश आग्नेयास्त्र बना रहे हैं। वरुणास्त्र, इन अग्नियों को शान्त करने वाला, शान्ति वर्षा के अस्त्र, जिससे करोड़ों प्राणियों के धन-जन की रक्षा हो सके, केवल भारत ही बना सकता है और बना रहा है।
गायत्री तपोभूमि द्वारा आयोजित ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान वस्तुतः एक आध्यात्मिक वरुणास्त्र है। एक-एक हाइड्रोजन बम बनाने में लाखों-करोड़ों रुपये की लागत आती है और भारी श्रम एवं साधन सामग्री जुटानी पड़ती है। इस वरुणास्त्र के बनाने में धन की मशीनों की, वस्तुओं की तो आवश्यकता नहीं है, पर श्रम अवश्य चाहिये और वह श्रम भी अश्रद्धालु लोगों का नहीं, उनका जिनका हृदय धर्म-भावनाओं से परिपूर्ण हो। रावण को मारने के लिए त्रेता में एक घड़े की आकृति का महा-बम बना था, उसमें ऋषियों ने अपने रक्त-बिन्दु भरे थे, उसे खेत में गाढ़ा गया था और उससे सीता-शक्ति का प्रादुर्भाव होकर दशों दिशाओं में विजय दुन्दुभी बजाने वाली असुरता का विनाश हुआ था। त्रेता में जिस प्रकार अपना रक्त-बिन्दु देकर शाँति बम बना रहे थे उसी प्रकार का प्रयत्न गायत्री तपोभूमि द्वारा ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान, वरुणास्त्र बनाने का किया जा रहा है। यदि यह बन गया तो दैवी प्रकोप की सर्व संहारकारी असुरता की विभीषिका जो किलकारियाँ भर रही हैं वह शान्त हो सकती हैं, समाप्त हो सकती हैं।