
प्रतिज्ञा (Kavita)
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क्षण भर इन्द्रिय-चिन्तन का मुझको अवकाश न होगा,
दूषित विकार का उर में अब कभी विकास न होगा।
मैं तभी पतित हूँगा जब इस शव में श्वास न होगा,
मानव हूँ, पशु न बनूँगा मन का विश्वास न होगा।
बस मेरे व्रत-संयम में कृत्रिमता लेश न होगा,
अभिलाषा-दमन करूंगा मन पर अनुशासन होगा।
साधन में युग बीतेंगे फिर भी आभास न होगा,
मन से अपमानित होकर मेरा उपहास न होगा।
वासना जगत की पाकर मुझ में उल्लास न होगा,
त्यागूँगा सकल प्रलोभन तृष्णा का वास न होगा ।
मानी मानव अब मन का जीवन भर दास न होगा,
विघ्नों को सम्मुख पाकर पथ-भ्रष्ट, हताश न होगा।