Magazine - Year 1959 - October 1959
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Language: HINDI
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कर्म-फल की अमिट छाप
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(श्री हेमचन्द साहित्य मनीषी)
हमारे देश में पढ़े-लिखे और ज्ञानियों की ही नहीं वरन् अशिक्षित ग्रामीण जनता तक की यह धारणा है कि संसार का प्रत्येक कार्य और घटना कर्म-फल के अधीन है। हमने जैसा किया है वैसा ही हम पा रहे हैं और जैसा अब कर रहे हैं उसका वैसा ही फल आगे चलकर पायेंगे, यह विचार यहाँ की जनता में दृढ़ रूप से समाया हुआ है। पर खेद है कि लोग उसके वास्तविक रहस्य से अनजान हैं, इसलिए उसका उल्टा सीधा अर्थ लगाकर लाभ के स्थान में हानि उठा लेते हैं। जैसा कि प्रायः देखा गया है कि अनेक लोग तो कर्म का अर्थ भाग्य लगाकर एक प्रकार से निकम्मे अथवा काहिल बन जाते हैं। इसलिए आवश्यकता है कि लोगों को कर्म-सिद्धाँत की वास्तविकता स्वरूप और उसका अर्थ समझाया जाय। इस संबंध में आधुनिक थियोसॉफी समाज की अधिष्ठात्री मिसेज एनी बीसेंट ने अपने ग्रन्थों में अनेक रहस्यों को प्रकट किया है जिनके आधार पर कर्मों के स्वरूप का कुछ परिचय यहाँ दिया जाता है।
कर्म की व्यवस्था समझने के लिए सबसे पहले विश्व के तीन मण्डलों और उनके संबंधी मनुष्यों के तत्वों का स्पष्ट ज्ञान होना आवश्यक है। ये तीन मंडल हैं-सुषुप्ति मण्डल, स्वर्ग-मंडल और भूमंडल। भूमंडल के दो विभाग सूक्ष्म (गगन मंडल) और स्थूल (पृथ्वी) हैं। प्रथम सुषुप्ति मंडल में बुद्धि तत्व और महाकारण देह रहती है। दूसरे स्वर्ग में मनस तत्व और कारण देह तथा मानसिक अथवा संबंधी देह रहती है। (3) गगन मंडल में काम तत्व और सूक्ष्म देह है। (4) भूमंडल में लिंग तथा स्थूल तत्व और स्थूल देह रहती है।
विश्व के स्थूल मंडल अर्थात् इस जगह में कार्य करने के लिए जीवन को स्थूल देह की सहायता लेनी पड़ती है, इसलिए जीव की चेतना का प्रकाश मस्तिष्क की शक्तियों से सीमाबद्ध किया जाता है। गगन-मंडल की प्रकृति कई दरजे की सूक्ष्मता वाली होती है, इसलिए इस मंडल के कार्य के लिए जीव कई प्रकार की सूक्ष्म उपाधियों से काम लेता है। इन सब उपाधियों को ही सूक्ष्म शरीर के नाम से पुकारते हैं। स्वर्ग अर्थात् देवयान मंडल भी दो भागों में विभक्त है, जिनमें से एक को रूप भवन और दूसरे को अरूपभवन कहते हैं। रूप भवन में जीव मायावी शरीर के आश्रय से काम करता है, इस मायावी रूप को मानसिक प्रकृति से बनने के कारण मानसिक देह भी कहते हैं। अरूप भवन में कारण शरीर काम देता है। चतुर्थ मंडल मनुष्य की पहुँच से बहुत ऊँची है इसलिए उसका विशेष विवरण देना यहाँ पर अनावश्यक प्रतीत होता है।
यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि इन मंडलों की प्रकृति में परस्पर बड़ा अंतर होता है। प्रत्येक मंडल की प्रकृति अपने ऊपर के मंडल से अति घन और स्थूल होती है। सृष्टि क्रम में भी इसी प्रकार प्रकृति सूक्ष्म से स्थूल और अघन से घन होती जाती है। इसके अतिरिक्त इन मंडलों में देवों (तत्वों) के बहुत से गण भी बसते हैं। देव गणों की बहुत सी श्रेणियाँ होती हैं। सबसे उच्च श्रेणी के महामति वाले देवगण सुषुप्ति मंडल में रहते हैं, और नीची श्रेणी के मन्दमति वाले देवगण स्थूल मंडल में निवास करते हैं। प्रत्येक मंडल में कोई भी ऐसा अणु नहीं है जिसमें प्रकृति और पुरुष का संयोग न हो। अणु के शरीर को प्रकृति कहते हैं और उसके प्राण को पुरुष के नाम से पुकारा जाता है। कणों के पृथक-पृथक संघात अनेक प्रकार के रूप रूपांतर और मूर्तियों को धारण कर अपनी-अपनी जाति के देवगणों से प्रविष्ट अथवा संयुक्त होते हैं।
गगन मंडल के देवगण मनुष्य का सूक्ष्म शरीर निर्माण करते हैं, और उसकी सूक्ष्म इंद्रियों को सचेत करते हैं, जिनके द्वारा मनुष्य इन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करता है। जहाँ कहीं थरथराहट (वाइब्रेशन) अथवा स्पर्श होता है, वहाँ कोई न कोई देवता अपने आपको उससे सम्बन्धित कर लेता है। मनुष्य का मन अपने भवन अर्थात् गगन मंडल की सूक्ष्मतर प्रकृति में कार्य करके नाना प्रकार के आकार उत्पन्न करता है, इन आकारों को संकल्प-रूप कहते हैं। मन की जिस शक्ति से ये रूप उत्पन्न होते हैं, उसे कल्पना शक्ति कहते हैं। बात चीत के समय संकल्प-रूपों को दूसरों के समक्ष प्रकट करने के लिए शब्द तो एक तुच्छ और अधूरा साधन है। शब्दों में इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि वह एक मनुष्य के मन के आशय को दूसरे के मन में यथार्थ रूप से पहुँचा सकें। यही कारण है कि प्रायः वार्तालाप में एक आशय को प्रकट करने के लिए बार-बार लंबे लंबे वाक्य कहने पड़ते हैं। पर ये संकल्प रूप जिन देवताओं से संबंधित होते हैं उनका एक-एक विशेष रंग होता है, जिसे देखने से मनुष्य के मन का आशय शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक ठीक और शीघ्र समझा जा सकता है। यह रंगों की भाषा एक बड़ा गुप्त रहस्य है, जिसे जानकर मनुष्य सहज ही में देवताओं से वार्तालाप कर सकता है। ये रंग प्रत्येक मनुष्य के मुख मंडल के पास उसी प्रकार दिखलाई पड़ते हैं जैसे हम इन मूर्तियों के चारों तरफ एक प्रभामंडल देखा करते हैं। पर ये रंग उन्हीं महापुरुषों को दिखलाई पड़ते हैं जिनकी दिव्य-दृष्टि खुल जाती है और इनके ही द्वारा वे किसी व्यक्ति के आन्तरिक विचारों और कर्मों का पता लगा लेते हैं।
मनुष्य अपने संकल्प रूपों को उत्पन्न करके उन्हें केवल दूसरे मनुष्यों की ओर भेजता ही नहीं वरन् अपने से मिलते जुलते अन्य संकल्प के रूपों को जो गगन-मंडल में उपस्थित रहते हैं और वैसे ही विचार वाले अन्य व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न किये गये थे, चुम्बक की तरह अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। यदि उसके संकल्प उत्तम और शुद्ध होंगे तो वे वैसी ही कल्याणकारी शक्तियों को स्वाभाविक रूप से अपनी ओर आकर्षित करेंगे। इनके फल से वह आदमी उस समय ऐसे श्रेष्ठ या महान कार्य कर जावेगा जो बाद में स्वयं उसे आश्चर्यजनक जान पड़ेंगे। इसी प्रकार यदि मनुष्य में संकल्प निकृष्ट और अशुद्ध हैं, तो अपकारी शक्तियों के समूह को आकर्षित कर इनके बल द्वारा अपने बित्त से बढ़कर ऐसा अपराध कर डालेगा जिसके लिए उसे बाद में महा पश्चाताप होगा और वह कहेगा ‘आरण्य है कि ऐसा बड़ा काम कर्म करने का साहस मुझ में कहाँ से आ गया! उस समय अवश्य ही मेरे सिर पर कोई भूत चढ़ गया होगा जिसने ऐसी करतूत मुझ से करा दी।’ निःसंदेह गगन-मंडल की अपकारी शक्तियों ने उसके म्लेच्छाभाव होने के कारण उसकी ओर खिंच कर वह क्रूरतापूर्ण शक्ति प्रदान की थी। संकल्परूपी देवता चाहे भले हों या बुरे, मनुष्य की वासनायुक्त सूझ देह के देवताओं और उसके निज संकल्पों के साथ संबंध उत्पन्न कर लेते हैं। पर यह संबंध सजातीय अर्थात् अपने से मिलते-जुलते व्यक्तियों पर ही होता है। विजातियों पर उनका कुछ वश नहीं चलता क्योंकि वे परस्पर प्रतिघातक होते हैं। इसलिए सत्पुरुष केवल अपने तेज के बल से ही मलीन अथवा अधर्म योनि के देवताओं को परे भगा देते हैं।
साँसारिक मनुष्य प्रायः इस संसार में व्यतीत हुए 50-60 वर्ष के जीवन को ही सत्व समझते हैं। पर वास्तव में यह जीवन कुछ भी महत्व का नहीं है, क्योंकि इस जीवन के बाद मनुष्य को इसी देह के सूक्ष्म और कारण शरीर द्वारा हजारों या लाखों वर्ष का जीवन अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए वेदान्तियों का यह कहना है कि इस संसार का जीवन तो इन्द्रजाल सदृश्य भ्रम है, असत्य नहीं कहा जा सकता। पारलौकिक जीवन की तुलना में यह जीवन वास्तव में नगण्य है। पर इसका महत्व इस दृष्टि से अवश्य बहुत अधिक है कि इस लघु जीवन में ही हमको स्वतंत्र कर्म करने का अधिकार मिलता है और इस समय हम जैसे कर्म करते हैं उन्हीं का फल हमको आगामी हजारों वर्षों तक भोगना पड़ता है।