Magazine - Year 1959 - October 1959
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Language: HINDI
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ब्राह्मणत्व की महान जिम्मेदारी
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(श्री शम्भूसिंह कौशिक)
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवान्यज्ञेन बोधय।
आयुः प्राणं प्रजाँ पशून्कीर्ति यज्ञमानं चवर्धय।
अ. 19। 13। 1
अर्थात्-हे वेद का अनुशीलन करने वाले ब्राह्मण उठ? तैयार हो, देवों को अर्थात् विद्या और ज्ञान की कामना करने वालों को यज्ञ द्वारा अध्ययन द्वारा जगा। आयु, प्राणशक्ति, प्रजा, पशु कीर्ति और यजमान को बढ़ा।
उक्त वेद मंत्र में ब्राह्मण के महान् कर्तव्य और उत्तरदायित्व का विवेचन किया गया है। वेद भगवान ब्राह्मण के महत्वपूर्ण कर्तव्य का ज्ञान कराते हुए उसे कार्य रूप में परिणित करने का आदेश दे रहे हैं और ब्राह्मण को सावधान कर रहे हैं। उक्त वेद मन्त्र के अनुसार ‘ब्राह्मणास्पते’ वेदज्ञानुसार चलने वाला वेद पालक होना ब्राह्मण का प्रथम आवश्यक कर्तव्य है। वेदज्ञान से परिपूर्ण होने के लिए उसे विचार एवं कार्य दोनों में उतारने के लिए, वेद भगवान की आशाओं के अनुसार आचरण करने के लिए ब्राह्मण का प्रारम्भिक जीवन होता है। यह प्रारम्भिक जीवन वेदाध्ययन, वेदाभ्यास एवं वेद के अनुकूल आचरण करके उसे जीवन में सराबोर करने का समय है। ब्राह्मण को सर्वप्रथम वेदज्ञान, वेदानुकूल आचरण, वेदाध्ययन आदि में रत होकर तपश्चर्यामय जीवन बिताना चाहिए। जब इसमें पूर्णता प्राप्त हो जाय तो वेद भगवान दूसरा आदेश दे रहे हैं।
‘उत्तिष्ठ’ उठ, सावधान हो। वेदाध्ययन एवं उसके अनुसार जीवन को बना लेना ही ब्राह्मण के लिए काफी नहीं है। इसके बाद भी कुछ और महान शक्ति को समझ और सावधान हो। शक्ति सम्पन्न होते हुए भी यदि मनुष्य निरुद्देश्य हो, उसके जीवन में सावधानी न हो, ढीलढाल हो तो वह शक्ति कोई महत्व नहीं रखती। तथा वह शक्ति सम्पन्न व्यक्ति भी कुछ नहीं कर सकता। उसका जीवन यों ही निरुद्देश्य समाप्त हो जाता है। अतः आगामी कर्तव्य क्षेत्र में उतरने के पहले वेद भगवान ब्राह्मण को सावधान करते हैं और सदैव अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहने के लिए सचेत करते हैं।
जिस प्रकार युद्ध शुरू होने के पूर्व सेना को सेनापति की ओर से सावधान होने का आदेश मिलता है उसी प्रकार वेद भगवान भी ब्राह्मण को इस संसार के समरांगण में अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए उतरने से पहले सावधान कर रहे हैं। निश्चय ही ब्राह्मण का जीवन संसार में व्याप्त अज्ञानान्धकार, बुराइयां, दुख, कमजोरी कुरीतियाँ आदि को दूर करने लिए ही होता है। दूषित एवं अनैतिक तत्वों से संघर्ष कर स्वस्थ समाज के निर्माण का महान् उत्तरदायित्व ब्राह्मण पर ही है। संसार पथिक को उलझनों, संघर्ष, कठिनाईयों दुखों, उद्वेगों से बचाकर अपने विस्तृत वेदज्ञान अमृत का पान कराते हुए उसे सुख, शाँति, सम्पन्नता, आदि से परिपूर्ण करना ब्राह्मण का ही पवित्र और पावन तथा महान् कर्तव्य है।
वेदज्ञान से पूर्ण होकर और सावधान होकर फिर ब्राह्मण को क्या करना चाहिए इसके लिए वेद भगवान कहते हैं “देवान यज्ञेनबोधय।” देवों को अर्थात् सत्पथ का अनुगमन करने वालों को, परमार्थ के लिए कुछ त्याग एवं कष्ट सहन करने वालों को यज्ञ द्वारा जगा। अर्थात् उनमें यज्ञ भावनाओं को भरके, परमार्थ, समाज सेवा धर्मसेवा की शिक्षा देकर उन्हें जगा। ब्राह्मण का प्रधान आवश्यक कर्तव्य सच्चे जनसेवक एवं त्यागी तपस्वी व्यक्तियों का निर्माण करना है। यदि ब्राह्मण अपने वेदज्ञान, ब्रह्मचर्य, तपस्या आदि की शक्ति से लोगों की भौतिक कमियों को पूरा करें तो कोई महत्व की बात नहीं है। वैसे इनकी भी आवश्यकता है किन्तु सर्वप्रथम सच्चे जनसेवकों, उत्तम शिष्यों, लोकसेवियों का निर्माण करना आवश्यक है इसलिए उक्त वेद मंत्र में इस पर प्रथम जोर दिया है।
समाज में, समाजसेवी, धर्मसेवी, परोपकारी व्यक्ति बहुत कम ही निकलते हैं। अधिकतर लोग सम्पन्नता, ऐश्वर्य एवं साँसारिक जीवन ही अच्छा समझते हैं। अतः इस दूसरे वर्ग का हित साधन करने के लिए भी वेद भगवान् ब्राह्मण को आदेश दे रहे हैं। “आयुः प्राणं, प्रजाँ पशून्कीर्ति यजमानं चवर्धय” आयु को, प्राणशक्ति को, सत्संतान को, पशुओं को कीर्ति को और यजमान को बढ़ा। ब्राह्मण सत्शिक्षण, सदुपदेश, सद्ज्ञान प्रसार से लोगों की आयु, प्राणशक्ति, सत्संतान, पशु कीर्ति आदि को बढ़ावें। क्योंकि इनकी वृद्धि भी तभी संभव है जब इनके सम्बन्ध में सम्यक् ज्ञान एवं आवश्यक जानकारी हो। अतः यह भी एक महान आवश्यक कर्तव्य है जिसकी जिम्मेदारी ब्राह्मण को दी गई है।
समाज की उक्त भौतिक सम्पदायें बढ़ने पर योग्य यजमान का निर्माण करना भी अत्यावश्यक है। उक्त भौतिक सम्पदायें प्राप्त व्यक्ति में आस्तिक, श्रद्धालु, विश्वासी, नम्र, परोपकारी एवं राष्ट्र हित की भावनायें भरना भी कोई साधारण कार्य नहीं है।
इस प्रकार उक्त वेद मंत्र में बताया गया है कि स्वयं वेदज्ञान से परिपूर्ण हो, सावधान हो, दूसरों को सावधान करें और समाज का सभी तरह कल्याण करें।
ब्राह्मणत्व की महान मर्यादाओं कर्तव्यों, आदि पर मनन करके उसके महत्व को समझ के उसके अनुकूल जीवन बनाकर स्वयं को, राष्ट्र को, समाज को धन्य बनाना प्रत्येक ब्राह्मण का आवश्यक कर्तव्य है। आज ऐसे ही सच्चे ब्राह्मणत्व का गौरव प्रिय है अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान देना और उनके पालन करने के लिए तत्पर होना आवश्यक है। ब्राह्मणत्व की जिम्मेदारी महान है। उसकी ओर जागरुक रहने के लिए ही वेद भगवान ने इस मंत्र में आदेश किया है।