Magazine - Year 1959 - October 1959
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Language: HINDI
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साधना का वास्तविक स्वरूप
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(श्री सन्त कृष्णनन्दजी महाराज)
आत्म साक्षात्कार का एक मात्र उपाय साधना है। इसमें संदेह नहीं कि साधनाएँ अनेकों प्रकार की होती हैं और उनमें से कई साधनाएं दूसरी साधनाओं से विपरीत जान पड़ती हैं। हमारे हिन्दू धर्म में ही एक समुदाय ईश्वर के निराकार रूप का ध्यान करता है तो दूसरा उसको साकार मानकर मंदिरों में उसकी पूजा और सामूहिक आरती करता है। इसी प्रकार किसी ने अहिंसा और प्रत्येक प्राणी पर दया करने को मुक्ति का साधन माना है तो दूसरा भैंसे, बकरे आदि का बलिदान करने को स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बतलाता है। इन बातों को देखकर एक साधारण मनुष्य के मन में स्वभावतः यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि वास्तव साधना का आशय क्या है और विभिन्न प्रकार की साधनाओं में से किसको सत्य समझा जाय?
यद्यपि अलग-अलग सम्प्रदायों ने साधना की विभिन्न प्रणालियाँ बतलाई हैं पर ‘साध्य’ उद्देश्य के विषय में किसी को विशेष मतभेद नहीं है। प्राचीनकाल के सभी सम्प्रदाय ईश्वर-मुक्ति सान्निध्य निर्वाण, बैकुंठ, स्वर्ग, “वहिदत”, “हविन” आदि को साधना को उद्देश्य बतला चुके हैं। इन सबका स्वरूप यही बतलाया गया है कि मनुष्य को संसार में जो तरह-तरह के अभाव और कष्ट सहन करने पड़ते हैं, वहाँ उनका कोई भय नहीं रहता। वहाँ मनुष्य हर तरह के सुख, आनन्द उपभोग करता है, रोग, शोक, शारीरिक कष्ट, बुढ़ापा, निर्बलता आदि की वहाँ कभी संभावना नहीं होती। अधिकाँश सम्प्रदाय परलोक ही नहीं इस लोक में भी साधना द्वारा अभावों की निवृत्ति और सुखों की वृद्धि का विश्वास दिलाते हैं।
इसलिए हम कह सकते हैं कि साधना का मुख्य उद्देश्य ‘सुख’ की प्राप्ति है फिर वह चाहे छोटे दर्ज का हो या बड़े दर्जे का।
पर ‘सुख’ के संबंध में जब हम गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं तो प्रतीत होता है कि अधिकाँश लोग उसका अर्थ गलत लगाते हैं और इसीलिए साधना का स्वरूप समझने में भी उनको भ्रम हो जाता है। वे इन्द्रियों की तृप्ति को ही सुख समझ बैठते हैं। इसलिए सदैव उसी के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। पर जैसा हम जानते हैं इन्द्रियों के अभावों की पूर्ति कभी संभव नहीं होती। पहले तो किसी अभाव की एक बार पूर्ति हो जाने पर थोड़ी बहुत समय पश्चात फिर उसी अभाव का अनुभव होने लगता है, और दूसरे एक अभाव की पूर्ति हो जाने पर दूसरा अभाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिए इन्द्रियजन्य साँसारिक भोगों द्वारा कभी स्थायी ‘सुख’ की प्राप्ति संभव नहीं होती। वरन् जब कभी बीच में थोड़े समय के लिए भी किसी कारणवश उन सुखों की प्राप्ति में बाधा पड़ जाती है तो घोर दुख का अनुभव होने लगता है। उस समय उन ‘सुखों’ की आदत पड़ जाना और भी अधिक दुख अनुभव होने का कारण बन जाता है।
इसलिए हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सुख का आधार इन्द्रियों को तृप्त करने वाले पदार्थ अथवा भोग नहीं हो सकते, वरन् उस सुख का, जिसे किसी सीमा तक स्थायी माना जा सकता है, आधार कुछ और ही है, इस संबंध में एक ज्ञानी और संसार त्यागी महात्मा का विचार नीचे दिया जाता है।
“विचार करने पर पता लगता है कि हम इन्द्रिय ग्राह्य विषयों द्वारा अतीन्द्रिय आत्मा के अभाव की पूर्ति की चेष्टा कर रहे हैं, इसी से हमारे अंतर की आकाँक्षा पूर्ण नहीं होती, उल्टी विषय-वासना बढ़ती रहती है। भोग ऐश्वर्य ही यदि आत्मा के अभाव को पूर्ण कर सकता तो विषय की पूर्ति होने पर उसे लेकर आत्मा चुप हो जाती। हम बहुत बार मन चाही चीज पा जाते हैं, परंतु उसे पाकर हम चुप क्यों नहीं रह सकते? उस वस्तु से मन क्यों हट जाता है, और फिर दूसरे विषय की कामना क्यों करते हैं? उदर और उपस्थ के सुख को ही तो संसारी जन चरम सुख मानते हैं, परंतु उनके पा जाने पर भी वे संतुष्ट और स्थिर नहीं रह सकते। कामना के समय विषय में जितने सुख की कल्पना की जाती है, भोग के समय अथवा प्राप्ति के दूसरे ही क्षण वह फिर उतने सुख की वस्तु नहीं मालूम होती, फिर किसी दूसरे अभाव का बोध होने लगता है। दिखलाई यही पड़ता है कि जीवन का अभाव अथवा उसकी कामनाएँ तो नित्य (स्थायी) हैं, परंतु उसके सुख के विषय और जिसके द्वारा वह सुख भोग करता है वह शरीर-ये दोनों ही अनित्य (अस्थायी) हैं इसीलिए ‘अनित्य’ पदार्थों के द्वारा नित्य अभाव की पूर्ति नहीं होती। वास्तव में अनुभव नहीं होता, ये विषय तो भौतिक देह को अतिक्रम कर अति सूक्ष्म आत्मा के निकट पहुँच ही नहीं सकते। इसीलिए आत्मा का अभाव नहीं मिटता। आत्मा को आत्म स्वरूप का ही अभाव है और उसे अपने स्वरूप की प्राप्ति से ही उसके अभाव की पूर्ति होकर उसे सुख हो सकता है और यही सुख जीव मात्र का सच्चा साध्य या ध्येय हो सकता है।
इससे विदित होता है कि मनुष्य का लक्ष्य आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना और उसी के अनुसार आचरण करना है। आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग क्या है, इसकी चर्चा हमारे देश में सर्वत्र सुनी जाती है। एक साधारण भीख माँगने वाले साधु नामधारी से लेकर ऋषिकेश के गुफाओं में रहने वाले तपस्वियों तक के मुख से आत्म ज्ञान का उपदेश सुनने को मिल सकता है। पर इनमें थोड़े से व्यक्तियों को छोड़कर आत्मज्ञान के नाम पर व्यवहारिक मार्ग दिखलाने वाले कोई नहीं होते। वे या तो कुछ सुनी सुनाई चमत्कारों की बातें या असम्भव साधन विधियाँ बतलाकर श्रोता को चक्कर में डाल देने के सिवाय कुछ नहीं जानते। इसलिए साधुओं और संन्यासियों के फेर में पढ़ने के बजाय आत्मज्ञान के सच्चे जिज्ञासु को सद्ग्रन्थों का सहारा लेना कहीं अधिक कल्याणजनक है। इनमें प्राचीन वीतराग ऋषि-मुनियों ने प्राणिमात्र के हित को दृष्टि में रखकर विभिन्न योग्यता वाले पात्रों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की साधन विधियाँ बतलाई हैं। उन सब का उल्लेख कर सकने का तो यहाँ पर स्थान नहीं है, पर भारतीय आत्मज्ञान के स्रोत उपनिषदों में सर्वसाधारण के लिए सुलभ साधना प्रणव का जप ही बतलाया है। इसके संबंध में लिखा है।
स्वदेहमरिणं कृत्वा प्रणवं चोत्तएरणिम।
ध्याननिर्मथ नाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत्।
प्रणवो धनुः शरो आत्मा ब्रहतल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमतेन वेद्धव्य शरवत् तन्मयो भवेत्॥
प्राण्वात्प्रभावो ब्रह्म प्रणवत्प्रभावो हरिः।
प्रणवात्प्रभावो रुद्रः प्रणवो हि परो भवेत्॥
अर्थात्- अपनी देह को नीचे की अरुणि और प्रणव को ऊपर की अरुणि करके ध्यान रूप मंथन में छिपी हुई वस्तु (अग्नि) के समान देव को देखे। प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है, उस बाण का लक्ष्य ब्रह्म है, जितेन्द्रिय पुरुष को उसे सावधानी के साथ बेधना चाहिए। प्रणव से ब्रह्मा है, प्रणव से हरि (विष्णु) है और प्रणव से ही रुद्र है और प्रणव ही परातत्त्व है।”
एक अन्य विद्वान ने भी साधना का साराँश यही बतलाया है। उनका मत संक्षेप में इस प्रकार है-
“अधिकारी भेद से शास्त्रों में कल्याण साधनार्थ, तीर्थ, व्रत, नियम, योग, निष्काम कर्म आदि अनेक साधन बतलाये हैं। पर जन्म-जन्म के कुसंस्कारों से जब मनुष्य का मन मलीन रहता है, तो उसके कुप्रभाव से इन साधनों में मन नहीं लगता। इसलिए इसका उपाय महात्माओं ने नाम-जप बतलाया है। भगवान के किसी नाम या प्रणव का जप निरंतर करता रहे और निष्काम भाव से अर्थात् फलेच्छा रहित होकर तीर्थ, व्रत, यज्ञ आदि शुभ कार्य करे तो इससे मनु शुद्ध होता है, और फिर मोक्ष के चार साधन विवेक, वैराग्य, षट् सम्पत्ति और मुमुक्षु भाव की क्रमशः प्राप्ति होती है।”
मानव जन्म को सफल बनाने का सब से बड़ा साधन तो परमार्थ और निष्काम कर्म का आचरण ही बतलाया गया है, पर यह कार्य बिना दीर्घकालीन अभ्यास और निरन्तर आत्मोत्थान के नियमों का ध्यान रखे संभव नहीं। लाखों-करोड़ों में कोई एक भगवान का कृपापात्र ऐसा हो सकता है जो स्वभाव से ही इस मार्ग का पथिक बन सके, अन्यथा धार्मिक आदेशों का क्रमशः पालन करते हुए भी इस लक्ष्य की प्राप्ति करनी होती है।