Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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विश्वव्यापी विचार−क्रांति के देवदूत
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सत्यनिष्ठ सुकरात
सुकरात अत्यंत कुरूप थे। गंजा सिर, चपटी नाक, गोल चेहरा, घुटने तक लटकता हुआ विलक्षण कुरता। इन चिह्नों के आधार पर उन्हें एथेंस की सड़कों पर घूमते हुए आसानी से पहचाना जा सकता था। वे प्रकांड विद्वान और दार्शनिक थे। मानव जीवन की विविध समस्याओं का समाधान पूछने के लिए अनेक शिष्य उसके पीछे−पीछे फिरा करते थे, उनके शिष्यों में से कई बहुत प्रतिभावान भी थे। उन्हीं में से एक प्लेटो भी थे ,जो आगे चलकर विश्वविख्यात हुए।सुकरात बड़े विनम्र स्वभाव के थे। उन्हें अहंकार छू भी नहीं गया था। उनका जितना आदर उनके ज्ञान के कारण था, उससे अधिक उनकी पत्नी बड़ी कर्कशा थी। उसके कठोर वाक्यबाण सदा ही उन्हें सहने पड़ते थे। फिर भी सुकरात के विनम्र व्यवहार के कारण उनका दाम्पत्य प्रेम शिथिल न होने पाया।
सुकरात ने आत्मज्ञान पर बहुत जोर दिया है। वे कहते थे— अपने को जानो। यदि मनुष्य अपना और धर्म का वास्तविक स्वरूप जान ले, तो अवश्य ही धर्मनिष्ठ बनने की चेष्टा करेगा। सत्य का ज्ञान ही पुण्य और उसका ज्ञान न होना ही पाप है।
उनके स्वतंत्र विचारों ने उस युग की जनता को बहुत प्रभावित किया। समाज के विभिन्न भागों में व्याप्त कलुष-कल्मषों पर उनने प्रहार किया और ऐसी चेतना पैदा की, जिससे निहित स्वार्थों के लोगों में हलचल मच गई। वे उन्हें सताने के षड़यंत्र करने लगे।
उन्हें गिरफ्तार किया गया। मुकदमा चला। उसमें दो अभियोग उन पर लगाए गए। एक यह कि वे देवताओं की अलौकिक शक्ति में विश्वास नहीं करते, दूसरा यह कि उनने तर्क−वितर्क करना सिखाकर युवकों को पथभ्रष्ट किया है। न्यायसभा ने बहुमत से उन्हें अपराधी पाया और मृत्युदंड दिया।
उनने न्यायसभा के सम्मुख स्पष्ट कहा— "मैं मृत्यु के डर से सत्यान्वेषण छोड़ नहीं सकता। मैं अपनी अंतरात्मा और ईश्वर के आदेश का पालन करूँगा। यदि आप इस शर्त पर मुझे छोड़ना चाहते हो कि मैं भविष्य में सत्य का प्रचार न करूँ, तो मुझे यही कहना है कि सत्य को त्यागने की अपेक्षा और उसे प्रकट करने से रुकने की अपेक्षा मुझे शरीर को त्यागना अधिक पसंद है।"
क्रीटो ने उन्हें जेल से भगाने का सारा प्रबंध कर रखा था। उसने अपने गुरु को भाग चलने के लिए अनुरोध किया, तो उनने इनकार कर दिया कि "मुझे राज्य-कानून की अवज्ञा करके एक प्रजाजन के उचित कर्त्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। इस कीमत पर जीवित रहने की मुझे कोई इच्छा नहीं है।"
मृत्यु का समय निकट आ पहुँचा तो उन्होंने पैरों में पड़ी बेड़ियों के दुखते हुए स्थान को थोड़ा−सा सहलाया और आत्मा के अनश्वर होने की चर्चा आरंभ कर दी। नियत समय पर विष का प्याला सामने आया तो उनने बड़े प्रेम से उसे पिया और रोती हुई शिष्यमंडली को धैर्य का उपदेश करते हुए कहा—‛मैंने जीवन भर आप लोगों को धैर्य रखने और विवेक न खोने के लिए समझाया था। आप उस शिक्षा को क्या मेरे सामने ही भुला देंगे? मनुष्य को धैर्यवान होना चाहिए और शांति के साथ ही मृत्यु का भी आलिंगन करना चाहिए।”
दार्शनिक— कनफ्यूशियस
चीन के महान दार्शनिक कनफ्यूशियस का जन्म ईसा से 550 वर्ष पूर्व हुआ। उनके पिता ने 70 वर्ष की आयु में पुनर्विवाह किया था। उसी की पहली संतान कनफ्यूशियस थे।
शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत 22 वर्ष की आयु में उनने शिक्षक कार्य आरंभ किया। लिखना-पढ़ना सिखाने के लिए तो और भी कितने ही स्कूल थे, पर कनफ्यूशियस तो मनुष्य को मानव जीवन के रहस्य और मर्म समझाने वाला ज्ञान देने के इच्छुक थे। इसी उद्देश्य के लिए उनने अपनी शिक्षण संस्था चलाई। वे अपने शिष्यों को साथ लेकर ज्ञानार्जन के लिए भ्रमण पर भी जाया करते थे और मार्ग में उपस्थित दृश्यों और घटनाओं की व्याख्या करते हुए जीवन के मर्म को समझाया करते थे।
वे मध्यम−मार्ग पर चलने की शिक्षा लोगों को देते थे। वे ‛अति सर्वत्र वर्जयेत्’ सिद्धांत के समर्थक थे। उनका कहना था कि अति की सीमा पर पहुँचकर उत्तम वस्तुएँ भी विकृत हो जाती हैं। सीमा से बाहर हुई श्रद्धा आडंबर के रूप में, सतर्कता भीरुता के रूप में, शक्ति उद्दंडता के रूप में और सरलता मूर्खता के रूप में परिणत हो जाती है। किसी भी विषय में जब मनुष्य संतुलित मात्रा से आगे बढ़ जाता है, तब वह सामंजस्य खो बैठता है और उसके कार्य बेढंगे, हानिकारक तथा दुःखदायक बन जाते हैं, इसलिए मध्यमवृत्ति का जीवनयापन ही सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त है।’
वे कहा करते थे— ‟मनुष्य को सत्यनिष्ठ होना चाहिए। सत्य केवल बुद्धि का विषय नहीं, उसे जानने से ही काम न चलेगा, वरन उसकी उपयोगिता तभी है, जब उसे जीवन में व्यवहार किया जाए। निश्चलता और आत्मविश्वास मानव जीवन की सफलता के दो प्रधान सोपान हैं। इनमें कमी आने से ही मनुष्य का अधःपतन होता है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि आत्मनिरीक्षण करता रहे और जब भी अपने अंदर त्रुटियाँ दिखाई पड़ें, उनमें बिना संकोच के सुधार करे।” अपने दोषों को ढूँढना और उन्हें निकाल देना, सच्ची वीरता का चिह्न है।
परिपूर्ण जीवन की व्याख्या करते हुए उनने लिखा है कि, "इंद्रियों की तृप्ति और व्यक्तिगत महत्त्वकांक्षा की पूर्ति से नहीं, वरन मानव जीवन की सफलता इस बात में है कि वह अपनी मानसिक और नैतिक दुर्बलताओं पर विचार करे। जिसने अपने जीवन को अनुशासित और संयमित बनाया, उसी का जीवन धन्य है। दुःख और सुख में, सफलता−असफलता में, विपन्नता और संपन्नता में धैर्य, साहस और विवेक से काम लेकर मन की साम्यावस्था को बनाए रहना ही बुद्धिमानी का चिह्न है।"
कनफ्यूशियस धर्मनिष्ठ तो थे, पर अपने आपको धर्मगुरुओं की श्रेणी में कभी सम्मिलित नहीं होने दिया। उनने अपने संबंध में विचार प्रकट करते हुए लिखा है— श्रेष्ठ मनुष्य वह है, जो जैसा कहे, वैसा ही आचरण करे। मैंने जीवन भर यही प्रयत्न किया है कि, "मैं सद्गुण संपन्न एक पूर्ण मनुष्य बनूँ और इसी को मैंने धर्माचरण माना है और इसी के लिए दूसरों को भी शिक्षा दी है।"
उन दिनों साधु संस्थाओं में भ्रष्टाचार फैला हुआ था। वे ब्रह्मचर्य का ढोंग करते थे, पर इंद्रिय संयम रख नहीं पाते थे। इनने इसको व्यर्थ बताया और विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए धर्मकार्य करने पर जोर दिया।
वे चाहते थे कि कोई बुद्धिमान शासक उनकी सलाह से राज−काज चलाए, पर जीवन के अंत तक ऐसा कोई शासक उन्हें मिला नहीं। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने ग्रंथ लिखने और शिष्यों को पढ़ाने में लगाए। उनका ‘चन चिउ किंग’ ग्रंथ प्रसिद्ध है।
कई राजाओं ने आश्रयवृत्ति देने का प्रस्ताव रखा, पर उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और गरीबी में दिन काटते रहे। उनके शिष्य जब इस गरीबी से दुखी होते और सहायता का प्रस्ताव करते तो वे कहते—‟उत्कृष्ट पुरुषों को कष्टसाध्य जीवनयापन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। निकृष्ट पुरुष इन अवस्थाओं में टिक नहीं पाते और वे शीघ्र ही महापुरुषों के उपयुक्त गरीबी को छोड़कर चले जाते हैं। मुझे अल्पाहार, भूमिशयन और जीर्ण वस्त्रों पर संतोष है। यह पाप की कमाई से प्राप्त हुई विलासिता और धूम−धाम की वाहवाही की अपेक्षा मेरे लिए कहीं उत्तम है।”
चीन के एक अत्याचारी शासक ने कनफ्यूशियस की मृत्यु के दो सौ वर्ष बाद ही उनकी लिखी सब पुस्तकों को जलवा दिया और उनके अनुयायी विद्वानों को फाँसी पर लटकवा दिया, फिर भी उनके सिद्धांत आज भी चीन ही नहीं, सारे संसार में आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं।
महान शिक्षक— अरस्तू
मेसीडोन के राजा फिलिप अपने पुत्र को कुछ बनाना चाहते थे। इसके लिए सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की थी कि योग्य गुरु मिले। बहुत तलाश के बाद दार्शनिक अरस्तू इस योग्य दिखाई दिए कि वे किसी बच्चे का निर्माण कर सकते हैं। फिलिप विद्वान और व्यक्तिनिर्माता गुरु का मूल्य समझते थे। उनने अरस्तू के पास अपना संदेशवाहक पत्र लेकर भेजा और लिखा—‟भगवान ने मुझे एक पुत्र दिया है, उसकी मुझे खुशी है, पर उससे अधिक खुशी इस बात की है कि वह इस जमाने में पैदा हुआ, जबकि आप जैसे व्यक्तिनिर्माता दार्शनिक मौजूद हैं। इसे मैं आपके द्वारा ऐसा शिक्षित और सुसंस्कृत बना हुआ देखना चाहता हूँ, जो हमारे कुल को प्रकाशित करे।” अरस्तू ने इसे स्वीकार कर लिया और एक साधारण से राजकुमार को महान सिकंदर बना दिया, जिसका नाम पराक्रमी योद्धाओं के इतिहास में सदा अमर रहेगा।
सघन वृक्षों की छाया में पत्थर की शिला पर बैठाकर अरस्तू शिक्षा दिया करता था, शिष्य चारों ओर उसे घेरकर बैठ जाते थे और जीवन के गूढ़ विषयों पर अनुसंधान चलता रहता था। गुरु अपने शिष्यों को लेकर कभी−कभी घने वृक्ष-कुंजो में, वन-पर्वतों में चले जाते थे और वहाँ नदी-सरोवरों के तट पर बैठकर शिक्षणक्रम चला करता था।
सिकंदर जब शिक्षा प्राप्त करके लौटा तो उसका पिता फिलिप अपने पुत्र के गुणों को देखकर मुग्ध हो गया। उसने अरस्तू के प्रति सच्चे हृदय से कृतज्ञता प्रकट करते हुए सिकंदर से कहा—‟तुम्हारे गुरु का हम अभी तक समुचित सम्मान नहीं कर सके। वे वस्तुतः उच्चतम सम्मान के पात्र हैं। तुम्हारे निर्माण का सारा श्रेय उन्हीं को है।" सिकंदर ने भी एक प्रसंग में अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा—‟पिता से तो मैंने शरीरमात्र प्राप्त किया है। वस्तुतः मेरे पिता तो अरस्तू हैं, जिनने मुझे अनुपम ज्ञान देकर कुछ से कुछ बना दिया।”
सिकंदर ने जो गुण, स्वभाव और चरित्र गुरु के समीप रहकर प्राप्त किया था, उसी के बल पर उसने अनेकों देशों को जीता, विशाल साम्राज्य बनाया और बड़ी−बड़ी सफलताएँ प्राप्त कीं।
शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत सिकंदर ने आजकल के विद्यार्थियों की तरह गुरु की ओर से अपना मुँह नहीं मोड़ लिया, वरन उनके कार्य को प्रगति देने के लिए भरपूर सहायता की। अरस्तू ने एथेंस नगर में लीसियम नामक एक विशाल सांस्कृतिक विद्यालय की स्थापना की, जिसमें हजारों की संख्या में छात्र विद्याध्ययन करते थे। न केवल यूनान में, वरन सारे संसार में वह ज्ञानपीठ एक-से-एक योग्य शिष्य निकाल सकने के कारण प्रख्यात हो गई।
इस लीसियम विद्यापीठ को सिकंदर की सहायता प्राप्त थी। अरस्तू अपने शोधकार्य में लगे थे। वे विभिन्न जीव-जंतुओं की जीवन-प्रणाली के संबंध में खोज कर रहे थे। इस कार्य के लिए अपेक्षित सामग्री तथा कार्यकर्त्ता जुटाने का व्ययभार भी सिकंदर ने अपने ही ऊपर लिया था। अरस्तू का जन्म स्टेगिर नामक गाँव में हुआ था। किसी अत्याचारी शासन ने उसे क्रुद्ध होकर उजाड़ दिया था। वहाँ के निवासी अन्यत्र भाग गए थे। गुरु के सम्मान में सिकंदर ने उस नगर को फिर से बसाया और जो लोग बाहर भाग गए थे, उन्हें सब प्रकार की सहायता देकर वापिस उस नगरी में बसाया। शिष्य अपने गुरु की नगरी को उजड़ी हुई नहीं देख सकता था।
इटली के प्रसिद्ध कवि दांते ने अरस्तू को विद्वानों का अग्रतम नेता कहा। वह अपने समय का विचार सम्राट था। उसके शब्दों के साथ उसका चरित्र भी बोलता था। लगभग सवा दो हजार वर्ष उसके समय को बीते हो गए। फिर भी वह आज तक मानव जीवन के विभिन्न विचार-क्षेत्रों को प्रभावित करता है।
अरस्तु अपने शिष्यों के चरित्रगठन के लिए बहुत जोर देकर आदेश दिया करते थे। एक बार सिकंदर का किसी स्त्री से अनुचित संबंध हो गया। अरस्तू उसे झिड़कते थे, पर वह मानता न था। उस स्त्री को पता चला कि अरस्तू उसके मार्ग में काँटा है, इसलिए उसे बदनाम करके सिकंदर से शत्रुता करा देनी चाहिए। वह स्त्री एक दिन अरस्तू के पास पहुँची और एकांत में मिलने के लिए प्रस्ताव किया। अरस्तू ने स्वीकार कर लिया और जिस उद्यान में उन्हें बुलाया गया था, वहाँ नियत समय पर जा पहुँचा।
अरस्तू ने अपने शिष्यों के द्वारा सिकंदर तक भी यह सूचना पहुँचा दी थी, पर सूचना अरस्तू ने कहलवाई है, यह न बताने का आदेश कर दिया था। सिकंदर छिपा हुआ टोह में बैठा ही था। वह तरुणा आई। उसने अरस्तू के गले में हस्तपाश डाले और कहा— क्या हो, अच्छा हो कुछ देर खेलें। अरस्तू ने स्वीकृति दे दी। युवती ने उन्हें घोड़ा बनाया और खुद उनकी पीठ पर बैठकर चलाने लगी। बूढ़ा घोड़ा लड़की को पीठ पर बिठाकर घुटनों के बल चल रहा था कि सिकंदर सामने आ पहुँचा। उसने क्रोध में आकर कहा— गुरुजी यह क्या?
अरस्तू ने अविचल भाव से धैर्यपूर्वक कहा— बेटा पहले ही मैं कहा करता था। देखते नहीं, मुझ जैसे विद्वान और बूढ़े को जो माया इस तरह घुटनों के बल चलने को विवश कर सकती है, वह तुम जैसे अपरिपक्व बुद्धि के नौजवानों को तो पेट के बल रेंगाकर और नाक रगड़ाकर ही दम लेगी। यदि तुम इस मार्ग से मुँह न मोड़ोगे तो इतिहास में नाम अंकित न करा सकोगे। अरस्तू के इस शिक्षण ने सिकंदर पर भारी प्रभाव डाला और तब से उसने उस ओर से मुँह ही मोड़ लिया।
कुछ विद्वानों का कथन है कि अरस्तू ने चार सौ ग्रंथ लिखे। कोई−कोई उनकी संख्या एक हजार बताते हैं। उसके सभी ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं, पर जो उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि उसे तर्कशास्त्र, खगोल विद्या, भौतिकी, विकास, कामशास्त्र, वायु विज्ञान, प्रकृति विद्या, जंतुशास्त्र, काव्य, अलंकार, मनोविज्ञान, राजनीति, आचारशास्त्र, दर्शन, अध्यात्म आदि अनेक विषयों का अगाध ज्ञान था।
अरस्तू आत्मोन्नति के लिए सामाजिक और सामूहिक जीवन को आवश्यक मानता था और एकाकी जीवन या एकांतवास के विरुद्ध था। उसने लिखा है— एकाकी जीवन व्यतीत करने के लिए या तो मनुष्य को पशु बनना पड़ेगा या देवता।
बौद्धिक क्रांति का अग्रदूत— रूसो
जीन मैक्यूस रूसो बंदूक चलाना नहीं जानता था, पर उसने लेखनी पकड़कर वह काम कर दिखाया, जो बंदूकों और तोपों से भी हो सकना कठिन है। रूसो का बाप मामूली-सा घड़ीसाज था। जून 1712 में वह जेनेवा में जन्मा। जन्म के साथ ही उसकी माँ मर गई। बाप शोकसंतप्त होकर घर-गाँव ही छोड़ गया। उसके चाचा ने किसी तरह पाला। प्रकृति से लड़ता हुआ बालक किसी प्रकार बड़ा हुआ। अनेक कठिनाइयों से लड़ता हुआ, अनेकों चारित्रिक दुर्बलताओं के चंगुल में उलझता−सुलझता यह बालक लेखक बना। उसने गणराज्य के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। आज संसार में अधिकांश देश प्रजातंत्र के सिद्धांत को अपनाकर राज−काज चला रहे हैं। इस आदर्श का आविष्कर्त्ता होने का श्रेय रूसो को ही मिला है।
सर्वप्रथम उसी ने ‘जनता के प्रभुत्व’ सिद्धांत की घोषणा की। “राजा तो प्रजा का सेवक है, स्वामी नहीं, जनता की इच्छा के विरुद्ध किसी को उस पर शासन करने का अधिकार नहीं है। जैसे कोई मालिक अपने अयोग्य और दुष्ट नौकर को बदल देता है, उसी प्रकार प्रजा को अधिकार है कि अयोग्य या अत्याचारी शासक को बदल दे। प्रजा ही राष्ट्र का देवता है, उसकी आवाज ईश्वर की आवाज है। उसे दबाने वाले शासक को कठोर दंड मिलना चाहिए।” इन सिद्धांतों के पक्ष में अनेक ग्रंथ लिखे और जनता के मस्तिष्क को, इन विचारों को हृदयंगम करने के लिए तैयार किया।
इस विचार-क्रांति का ही परिणाम था कि अनेक देशों की प्रजाओं ने अपने अत्याचारी राजाओं के विरुद्ध बगावत कर दी। फ्रांस के राजा लुई को उसके सारे परिवार के साथ फाँसी पर लटका दिया गया और प्रजातंत्र की स्थापना हुई। फ्रांस की राजक्रांति का असर इंग्लैंड पर पड़ा। वहाँ के राजा के सारे अधिकार छीन लिए गए। आज इंग्लैंड का राजा नाममात्र का ही राजा होता है। फ्रांस की क्रांति से कुछ समय पूर्व अमेरिका की क्रांति हो चुकी थी, पर उसका नया संविधान बना तो उस पर रूसो के सिद्धांतों की ही छाप थी। वहाँ भी प्रजातंत्र ही स्थापित हुआ। आयरलैंड का स्वाधीनता संग्राम इन्हीं विचारों की देन था। संसार के अनेकों देशों ने उसके सिद्धांतों से प्रेरणा ली और कहीं हिंसात्मक, कहीं अहिंसात्मक क्रांतियाँ करके उन शासकों को हटाया, जो प्रजा को अपनी संपत्ति मानकर उस पर मनमाने अत्याचार करते थे। भारत में हम जिस प्रजातंत्र का सुख भोग रहे हैं, वह यद्यपि प्राचीनकाल में भी किसी रूप में मौजूद था, पर इस युग में उसका स्पष्ट रूप बड़े आकर्षक और प्रभावशाली ढंग से उपस्थित करने का श्रेय रूसो को ही है। उसने अपनी कलम के जादू से ही लाखों-करोड़ों मनुष्यों के मस्तिष्क बदल दिए और जो स्वप्न उसने देखे थे, उन्हें साकार बना दिया। उसकी लेखनी बड़े−बड़े दिग्विजयी चक्रवर्ती सम्राटों की तलवार से भी अधिक बलवान सिद्ध हुई।
बेचारा रूसो व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए जीवन भर संघर्ष करता रहा, पर वह उसमें सफल न हो सका। मृत्यु के समय उसकी पत्नी भी उसे छोड़कर चली गई थी। निराशा और अंधकार की घड़ियों में उसने प्राण त्यागे। संसार में उसका कोई अपना सिद्ध न हुआ। वह दुखी मरा। वह अपने व्यक्तिगत जीवन को असफल बताया करता था, फिर भी उसकी लेखनी ने करोड़ों प्राणियों को मानवोचित शासन प्राप्त करने के लिए जो प्रेरणा दी, उसके लिए मानव जाति उसकी सदा कृतज्ञ रहेगी और उसका जीवन सफल ही माना जाता रहेगा।