Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवन की सर्वश्रेष्ठ विभूति— ज्ञान
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ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए सारा संसार अंधकारमय है। इसी प्रकार ज्ञानविहीन व्यक्ति के लिए इस संसार में जो कुछ उत्कृष्ट है, उसे देख सकना असंभव है। ज्ञान के आधार पर ही धर्म का, कर्त्तव्य का, शुभ-अशुभ का, उचित-अनुचित का विवेक होता है और पाप-प्रलोभनों, के आकर्षणों के पार यह देख सकना संभव होता है कि अंततः दूरवर्त्ती हित किसमें है। अज्ञानी व्यक्ति यह सब जान नहीं पाते। इंद्रियों की वासना और प्रलोभनों की तृष्णा जीव को मनमाना नाच नचाती रहती हैं और अंत में उसे पतन के गहरे गर्त्त में धकेल देती है। इस दुर्दशा से बचाव तभी हो सकता है, जब ज्ञानदीपक का प्रकाश हो रहा हो और विवेक के नेत्र खुले हुए हों।
भौतिक जीवन की सफलता और आत्मिक जीवन की पूर्णता के लिए सबसे प्रथम सोपान ज्ञान की प्राप्ति है। स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन के आधार पर जीवन की गुत्थियों को समझना और उन्हें सुलझाने का मार्ग खोजना संभव होता है; इसलिए मनीषियों ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि मनुष्य को ज्ञानवान बनना चाहिए। अत्यंत आवश्यक कार्यक्रमों में एक कार्यक्रम ज्ञान-संपादन का भी रहना चाहिए।
स्कूली शिक्षा ‘ज्ञान’ की श्रेणी में नहीं आती। वह ज्ञानप्राप्ति के लिए एक साधनमात्र है, क्योंकि भाषाज्ञान के बिना शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं हो सकता। कठिन अभिव्यक्तियों को समझा नहीं जा सकता; इसलिए शिक्षा की भी आवश्यकता एवं उपयोगिता माननी ही पड़ेगी। ज्ञान का स्तर इससे ऊपर है। स्वाध्याय, सत्संग यह दो ज्ञानप्राप्ति के बाह्य उपाय हैं और चिंतन-मनन यह आंतरिक उपाय हैं। इन चारों चरणों से मिलकर सर्वांगपूर्ण ज्ञान साधना बनती है और उसी के आधार पर जीव अपने लक्ष्य-मार्ग की ओर गतिशील होता है।
भगवान राम ने जब गुरु वाशिष्ठ जी से सांसारिक क्लेशों के भवबंधन से छुटकारे का उपाय पूछा, तो उन्होंने यही कहा कि ,"यह सब बिना ‘ज्ञानप्राप्ति' के संभव नहीं। यदि भवसागर से पार होने की इच्छा है, तो सबसे प्रथम ज्ञानसंचय का प्रयत्न करो। योगवाशिष्ठ में इस संबंध में बहुत बल दिया गया है।
ज्ञानान्निर्दुःखतामेति ज्ञानादज्ञान संक्षयः।
ज्ञानादेवपरासिद्धिर्नान्यस्माद्राम वस्तुतः॥
योगवाशिष्ठ 5।88। 12
हे राम, ज्ञान से ही दुःख दूर होते हैं, ज्ञान से अज्ञान का निवारण होता है, ज्ञान से ही परम सिद्धि प्राप्त होती है और किसी उपाय से नहीं।
ज्ञानावानेव सुखवान् ज्ञानवानेव जीवति।
ज्ञानवानेव बलवास्तस्माज्ज्ञान भयोभव॥ योगवाशिष्ठ 5।92।49 ज्ञानी ही सुखी है, ज्ञानी ही जीवित है, ज्ञानी ही बलवान है, इसलिए ज्ञानी बनना चाहिए। यथा दीपः प्रकाशात्मा स्वल्पोवा यदि वा महान्। ज्ञानात्मानं तथा विद्यादात्मानं सर्व जन्तुषु॥ जैसे छोटा या बड़ा दीपक प्रकाशवान ही होता है, वैसे ही सब छोटे-बड़े प्राणियों की आत्मा भी ज्ञान रूप ही है। ज्ञानमेव परं ब्रह्मज्ञानं वन्घाय चेष्यते।
ज्ञानात्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम्। ज्ञान से ही ब्रह्म प्राप्ति होती है, विपरीत ज्ञान से ही बंधन बँधाते हैं, इस संसार में जो कुछ है, ज्ञानात्मक ही है। ज्ञान से परे कुछ भी नहीं है। अस्य देवाधि देवस्य परमात्मनः। ज्ञानादेव परा सिद्धिर्नत्वनुष्ठान दुःखतः॥ योगवाशिष्ठ 3। 6।1 उस परमदेव परमात्मा को ज्ञान द्वारा ही प्राप्त किया जाता है और किसी अनुष्ठान से उसकी प्राप्ति संभव नहीं। एकेनैवाऽमृतेनैव बोधेन स्वेन पूज्यते। एतदेव परंध्यानं पूजैषैव परा स्मृता॥ योगवाशिष्ठ 6।38।25 उस आत्मा की एक ही प्रकार से ज्ञान द्वारा पूजा की जाती है। ध्यान ही उस आत्म देवता का सबसे बड़ा पूजन है। अत्रज्ञानमनुष्ठानं न त्वन्यदुप युज्यतो। योगवाशिष्ठ 3।6। 2 मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान ही एकमात्र उपाय है। दूसरा और कोई नहीं।ज्ञानादेव परासिद्धिर्नत्वनुष्ठान दुःखतः। योगवाशिष्ठ 3।6।1 परम सिद्धि ज्ञान से ही प्राप्त होती है और किसी अनुष्ठान से नहीं। ज्ञानावादुनिता नन्दो न क्वचित्परिमज्जति। योगवाशिष्ठ 5। 93।24 ज्ञानी ही परम आनंद प्राप्त करता है, वही पार होता है। ततो वच्मि महावाहो यथाज्ञानेतरा गतिः।
नास्ति संसार तरणे पाशबन्धनस्य चेतसः॥ योगवाशिष्ठ 5। 67।2 बंधन में पड़े हुए तन को मुक्त करने और संसार सागर से तरने के लिए ज्ञान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। ज्ञानयुक्ति प्लवेनैव संसाराब्धिं सुदुस्तरम्।
महाधियः समुत्तीर्णा निमेषण रघूद्वह॥ योगवाशिष्ठ 2।11। 36 संसाररूपी समुद्र को बुद्धिमान लोग ज्ञानरूपी नौका पर सवार होकर आसानी से पार कर जाते हैं। संसारोत्तरणे जन्तो रुपायो ज्ञानमेवहि।
तपो दानं तथा तीर्थमनुपायाः प्रकीर्तिताः॥ —योगवाशिष्ठ संसार से पार होने का एकमात्र उपाय ज्ञान ही है। तप, दान,तीर्थ आदि उपाय नहीं। दुरुत्तरा याविपदो दुःख कल्लोह संकुलाः।
तीर्यते प्रज्ञया ताभ्योनानाऽपद्भयो महामते॥ योगवाशिष्ठ 5।12।20 विभिन्न प्रकार की कठिन विपत्तियों के समुद्र को ज्ञान द्वारा ही तरा जाता है। कलना सर्व जन्तूनां विज्ञाने न शमेन च। प्रबुद्धा ब्रह्म तामेति भ्रमतीतरथा जगत्॥ योगवाशिष्ठ 5।13।59 ज्ञान और शम के द्वारा ही प्राणी ब्रह्मरूप हो जाता है। इनके अभाव से वह संसार में भटकता ही रहता है।
ज्ञानवानेव बलवास्तस्माज्ज्ञान भयोभव॥ योगवाशिष्ठ 5।92।49 ज्ञानी ही सुखी है, ज्ञानी ही जीवित है, ज्ञानी ही बलवान है, इसलिए ज्ञानी बनना चाहिए। यथा दीपः प्रकाशात्मा स्वल्पोवा यदि वा महान्। ज्ञानात्मानं तथा विद्यादात्मानं सर्व जन्तुषु॥ जैसे छोटा या बड़ा दीपक प्रकाशवान ही होता है, वैसे ही सब छोटे-बड़े प्राणियों की आत्मा भी ज्ञान रूप ही है। ज्ञानमेव परं ब्रह्मज्ञानं वन्घाय चेष्यते।
ज्ञानात्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम्। ज्ञान से ही ब्रह्म प्राप्ति होती है, विपरीत ज्ञान से ही बंधन बँधाते हैं, इस संसार में जो कुछ है, ज्ञानात्मक ही है। ज्ञान से परे कुछ भी नहीं है। अस्य देवाधि देवस्य परमात्मनः। ज्ञानादेव परा सिद्धिर्नत्वनुष्ठान दुःखतः॥ योगवाशिष्ठ 3। 6।1 उस परमदेव परमात्मा को ज्ञान द्वारा ही प्राप्त किया जाता है और किसी अनुष्ठान से उसकी प्राप्ति संभव नहीं। एकेनैवाऽमृतेनैव बोधेन स्वेन पूज्यते। एतदेव परंध्यानं पूजैषैव परा स्मृता॥ योगवाशिष्ठ 6।38।25 उस आत्मा की एक ही प्रकार से ज्ञान द्वारा पूजा की जाती है। ध्यान ही उस आत्म देवता का सबसे बड़ा पूजन है। अत्रज्ञानमनुष्ठानं न त्वन्यदुप युज्यतो। योगवाशिष्ठ 3।6। 2 मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान ही एकमात्र उपाय है। दूसरा और कोई नहीं।ज्ञानादेव परासिद्धिर्नत्वनुष्ठान दुःखतः। योगवाशिष्ठ 3।6।1 परम सिद्धि ज्ञान से ही प्राप्त होती है और किसी अनुष्ठान से नहीं। ज्ञानावादुनिता नन्दो न क्वचित्परिमज्जति। योगवाशिष्ठ 5। 93।24 ज्ञानी ही परम आनंद प्राप्त करता है, वही पार होता है। ततो वच्मि महावाहो यथाज्ञानेतरा गतिः।
नास्ति संसार तरणे पाशबन्धनस्य चेतसः॥ योगवाशिष्ठ 5। 67।2 बंधन में पड़े हुए तन को मुक्त करने और संसार सागर से तरने के लिए ज्ञान के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। ज्ञानयुक्ति प्लवेनैव संसाराब्धिं सुदुस्तरम्।
महाधियः समुत्तीर्णा निमेषण रघूद्वह॥ योगवाशिष्ठ 2।11। 36 संसाररूपी समुद्र को बुद्धिमान लोग ज्ञानरूपी नौका पर सवार होकर आसानी से पार कर जाते हैं। संसारोत्तरणे जन्तो रुपायो ज्ञानमेवहि।
तपो दानं तथा तीर्थमनुपायाः प्रकीर्तिताः॥ —योगवाशिष्ठ संसार से पार होने का एकमात्र उपाय ज्ञान ही है। तप, दान,तीर्थ आदि उपाय नहीं। दुरुत्तरा याविपदो दुःख कल्लोह संकुलाः।
तीर्यते प्रज्ञया ताभ्योनानाऽपद्भयो महामते॥ योगवाशिष्ठ 5।12।20 विभिन्न प्रकार की कठिन विपत्तियों के समुद्र को ज्ञान द्वारा ही तरा जाता है। कलना सर्व जन्तूनां विज्ञाने न शमेन च। प्रबुद्धा ब्रह्म तामेति भ्रमतीतरथा जगत्॥ योगवाशिष्ठ 5।13।59 ज्ञान और शम के द्वारा ही प्राणी ब्रह्मरूप हो जाता है। इनके अभाव से वह संसार में भटकता ही रहता है।