Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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विचारणीय और मननीय
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कर्म करो तभी मिलेगा।
कौरवों की राजसभा लगी हुई है। एक ओर कोने में पांडव भी बैठे हैं। दुर्योधन की आज्ञा पाकर दुःशासन उठता है और द्रौपदी को घसीटता हुआ राजसभा में ला रहा है। आज दुष्टों के हाथ उस अबला की लाज लूटी जाने वाली है। उसे सभा में नग्न किया जाएगा। वचनबद्ध पांडव सिर नीचा किए बैठे हैं।
द्रौपदी अपने साथ होने वाले अपमान से दुखी हो उठी। उधर सामने दुष्ट दुःशासन आ खड़ा हुआ। द्रौपदी ने सभा में उपस्थित सभी राजों-महाराजों, पितामहों को रक्षा के लिए पुकारा, किंतु दुर्योधन के भय से और उसका नमक खाकर जीने वाले कैसे उठ सकते थे। द्रौपदी ने भगवान को पुकारा अन्तर्यामी घट−घटवासी कृष्ण दौड़े आए कि आज भक्त पर भीर पड़ी है। द्रौपदी को दर्शन दिया और पूछा किसी को वस्त्र दिया हो तो याद करो? द्रौपदी को एक बात याद आई और बोली—‟भगवान् एक बार पानी भरने गई थी तो तपस्या करते हुए ऋषि की लंगोटी नदी में बह गई, तब उसे धोती में से आधी फाड़कर दी थी। कृष्ण भगवान ने कहा— 'द्रौपदी अब चिंता मत करो। तुम्हारी रक्षा हो जाएगी और जितनी साड़ी दुःशासन खींचता गया, उतनी ही बढ़ती गई। दुःशासन हारकर बैठ गया, किंतु साड़ी का ओर-छोर ही नहीं आया।
यदि मनुष्य का स्वयं का कुछ किया हुआ न हो तो स्वयं विधाता भी उसकी सहायता नहीं कर सकता; क्योंकि सृष्टि का विधान अटल है। जिस प्रकार विधान बनाने वाले विधायकों को स्वयं उसका पालन करना पड़ता है, वैसे ही ईश्वरीय अवतार महापुरुष स्वयं भगवान भी अपने बनाए विधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते। इससे तो उनका सृष्टि संचालन ही अस्त−व्यस्त हो जाएगा।
इस संबंध में उन लोगों को सचेत होकर अपना कर्म करना चाहिए, जो सोचते हैं कि भगवान सब कर देंगे और स्वयं हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। जीवन में जो कुछ मिलता है, अपने पूर्व या वर्त्तमान कर्मों के फल के अनुसार। बैंक बैलेंस में यदि रकम नहीं हो तो खातेदार को खाली हाथ लौटना पड़ता है। मनुष्य के कर्मों के खाते में यदि जमा में कुछ नहीं हो तो कुछ नहीं मिलने का। कर्म की पूँजी जब इकट्ठी करेंगे, तभी कुछ मिलना संभव है। भगवान और देवता क्या करेंगे?
पाप का भागी कौन— पाप किसने किया
एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। उसे बड़े मनोयोगपूर्वक सम्हालता, पेड़ लगाता, पानी देता। एक दिन गाय चरती हुई बाग में आ गई और लगाए हुए कुछ पेड़ चरने लगी। ब्राह्मण का ध्यान उस ओर गया तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने एक लठ्ठ लेकर उसे जोर से मारा। कोई चोट उस गाय पर इतने जोर से पड़ी कि वह वहीं मर गई। गाय को मरा जानकर ब्राह्मण बड़ा पछताया। कोई देख न ले, इससे गाय को घसीटके पास ही बाग के बाहर डाल दिया, किंतु पाप तो मनुष्य की आत्मा को कोंचता रहता है न। उसे संतोष नहीं हुआ और गौहत्या के पाप की चिंता ब्राह्मण पर सवार हो गई।
बचपन में कुछ संस्कृत ब्राह्मण ने पढ़ी थी। उसी समय एक श्लोक उसमें पढ़ा, जिसका आशय था कि हाथ इंद्र की शक्ति-प्रेरणा से काम करते हैं, अमुक अंग अमुक देवता से। अब तो उसने सोचा कि हाथ सारे काम इन्द्रशक्ति से करता है तो इन हाथों ने गाय को मारा है, इसलिए इंद्र ही गौहत्या का पापी है, मैं नहीं?
मनुष्य की बुद्धि की कैसी विचित्रता है, जब मन जैसा चाहता है, वैसे ही हाँककर बुद्धि से अपने अनुकूल विचार का निर्णय करा लेता है। अपने पापकर्मों पर भी मिथ्या विचार करके अनुकूल निर्णय की चासनी चढ़ाकर कुछ समय के लिए कुनैन जैसे कडुए पाप से संतोष पा लेता है।
कुछ दिनों बाद गौहत्या का पाप आकर ब्राह्मण से बोला— 'मैं गौहत्या का पाप हूँ, तुम्हारा विनाश करने आया हूँ।'
ब्राह्मण ने कहा— 'गौहत्या मैंने नहीं की, इंद्र ने की है।' पाप बेचारा इंद्र के पास गया और वैसा ही कहा। इंद्र अचंभे में पड़ गए। सोच-विचारकर कहा—‛अभी मैं आता हूँ।’ और वे उस ब्राह्मण के बाग के पास में बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर गए और तरह−तरह की बातें कहते करते हुए जोर−जोर से बाग और उसके लगाने वाले की प्रशंसा करने लगे। प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण भी वहाँ आ गया और अपने बाग लगाने के काम और गुणों का बखान करने लगा। “देखो मैंने ही यह बाग लगाया है। अपने हाथों पेड़ लगाए हैं, अपने हाथों से सींचता हूँ। सब काम बाग का अपने हाथों से करता हूँ। इस प्रकार बातें करते−करते इंद्र ब्राह्मण को उस तरफ ले गए, जहाँ गाय मरी पड़ी थी। अचानक उसे देखते हुए इंद्र ने कहा— 'यह गाय कैसे मर गई।' ब्राह्मण बोला— 'इंद्र ने इसे मारा है।'
इंद्र अपने निज स्वरूप में प्रकट हुआ और बोला— ‟जिसके हाथों ने यह बाग लगाया है, ये पेड़ लगाए हैं, जो अपने हाथों से इसे सींचता है, उसके हाथों ने यह गाय मारी है, इंद्र ने नहीं। यह तुम्हारा पाप लो।” यह कहकर इंद्र चले गए। गौ हत्या का पाप विकराल रूप में ब्राह्मण के सामने आ खड़ा हुआ।
भले ही मनुष्य अपने पापों को किसी भी तरह अनेक तर्क, युक्तियाँ लगाकर टालता रहे, किंतु अंत में समय आने पर उसे ही पाप का फल भोगना पड़ता है। पाप जिसने किया है, उसी को भोगना पड़ता, दूसरे को नहीं। यह मनुष्य की भूल है कि वह तरह−तरह की युक्तियों से, पाप से बचना चाहता है। अतः जो किया उसका आरोप दूसरे पर न करते हुए स्वयं को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।
परदोष दर्शन भी एक बड़ा पाप है
गाँव के बीच शिव मंदिर में एक संन्यासी रहा करते थे। मंदिर के ठीक सामने ही एक वेश्या का मकान था। वेश्या के यहाँ रात−दिन लोग आते−जाते रहते थे। यह देखकर संन्यासी मन-ही-मन कुड़−कुड़ाया करता। एक दिन वह अपने को नहीं रोक सका और उस वेश्या को बुला भेजा। उसके आते ही फटकारते हुए कहा—‟तुझे शरम नहीं आती पापिन, दिन-रात पाप करती रहती है। मरने पर तेरी क्या गति होगी?”
संन्यासी की बात सुनकर वेश्या को बड़ा दुःख हुआ। वह मन-ही-मन पश्चाताप करती भगवान से प्रार्थना करती, अपने पापकर्मों के लिए क्षमायाचना करती।
बेचारी कुछ जानती नहीं थी। बेबस उसे पेट के लिए वेश्यावृत्ति करनी पड़ती, किंतु दिन-रात पश्चाताप और ईश्वर से क्षमायाचना करती रहती।
उस संन्यासी ने यह हिसाब लगाने के लिए कि उसके यहाँ कितने लोग आते हैं, एक−एक पत्थर गिनकर रखने शुरू कर दिए। जब कोई आता एक पत्थर उठाकर रख देता। इस प्रकार पत्थरों का बड़ा भारी ढेर लग गया तो संन्यासी ने एक दिन फिर उस वेश्या को बुलाया और कहा— “पापिन! देख तेरे पापों का ढेर, यमराज के यहाँ तेरी क्या गति होगी? अब तो पाप छोड़।”
पत्थरों का ढेर देखकर अब तो वेश्या काँप गई और भगवान से क्षमा माँगते हुए रोने लगी। अपनी मुक्ति के लिए उसने वह पापकर्म छोड़ दिया। कुछ जानती नहीं थी, न किसी तरह से कमा सकती थी। कुछ दिनों में भूखी रहते हुए कष्ट झेलते हुए वह मर गई।
उधर वह संन्यासी भी उसी समय मरा। यमदूत उस संन्यासी को लेने आए और वेश्या को विष्णुदूत। तब संन्यासी ने बिगड़कर कहा— “तुम कैसे भूलते हो। जानते नहीं हो, मुझे विष्णुदूत लेने आए हैं और इस पापिन को यमदूत। मैंने कितनी तपस्या की है, भजन किया है, जानते नहीं हो।”
यमदूत बोले “हम भूलते नहीं, सही है। वह वेश्या पापिन नहीं है, पापी तुम हो। उसने तो अपने पाप का बोध होते ही पश्चाताप करके सच्चे हृदय से भगवान से क्षमायाचना करके अपने पाप धो डाले। अब वह मुक्ति की अधिकारिणी है और तुमने सारा जीवन दूसरे के पापों का हिसाब लगाने की पापवृत्ति में, पापभावना में जप-तप छोड़-छाड़ दिए और पापों का अर्जन किया। भगवान के यहाँ मनुष्य की भावना के अनुसार न्याय होता है। बाहरी बाने या दूसरों को उपदेश देने से नहीं। परनिंदा, छिद्रान्वेषण, दूसरे के पापों को देखना, उनका हिसाब करना, दोषदृष्टि रखना अपने मन को मलीन बनाना ही तो है। संसार में पाप बहुत है, पर पुण्य भी क्या कम हैं। हम अपनी भावनाएँ पाप, घृणा और निंदा में डुबाए रखने की अपेक्षा सद्विचारों में ही क्यों न लगावें?
संसार और स्वप्न
एक किसान था। उसके एक लड़का था। और कोई संतान न थी। वह लड़के को बड़ा प्यार करता था और खूब लाड़ से पालन-पोषण करता। एक दिन वह खेत पर काम कर रहा था तो उसे लोगों ने खबर दी कि तुम्हारा लड़का बड़ा बीमार है। उसकी हालत बहुत खराब है। किसान घर पर पहुँचा तो देखा लड़का मर चुका है। घर में स्त्रियाँ रोने लगी, पड़ोसिनें भी उस होनहार लड़के के लिए रोती हुई आईं, किंतु किसान न रोया, न दुःखी हुआ। वह शांतचित्त से उसके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करने लगा। स्त्री कहने लगी “कैसा पत्थर का कलेजा है आपका, एकमात्र बच्चा था, वह मर जाने से भी आपका दिल नहीं दुखा? थोड़ी देर बाद में किसान ने स्त्री को बुलाकर कहा— "देखो रात को मैंने एक स्वप्न देखा था। उसमें मैं राजा बन गया। मेरे सात राजकुमार थे, जो बड़े ही सुंदर और वीर थे। प्रचुर धन-संपत्ति थी। सुबह आँखें खुलते ही देखा तो सब नष्ट। अब तुम ही बताओ कि उन सात पुत्रों के लिए रोऊं या इसके लिए।" यह कहते हुए अपनी स्त्री को भी समझाया।
ज्ञानियों के लिए जैसा स्वप्न है, वैसा ही यह दृश्य जगत। यह भी स्वप्नवत है, यह जानकर ज्ञानी लोग इसके हानि-लाभ से प्रभावित नहीं होते और अपनी सदा एकरस, सत्य-नित्य रहने वाली आत्मस्थिति में स्थिर रहते हैं।
सिद्धांतों और व्यवहारकुशलता में सामंजस्य हो
एक जंगल में एक महात्मा रहा करते थे। वे नित्य अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि सर्वप्राणियों में परमात्मा का निवास है। अतः सभी का सम्मान करो और नमन करो। एक दिन उनका एक शिष्य वन में लकड़ियाँ लेने गया। उस दिन वहाँ यह शोर मचा हुआ था कि जंगल में एक पागल हाथी घूम रहा है। उससे बचने के लिए भागो। शिष्य ने सोचा कि हाथी में भी तो परमात्मा का निवास है, मुझे क्यों भागना चाहिए। वह वहाँ ही खड़ा रहा। हाथी उसी की ओर चला आ रहा था। लोगों ने उसे भागने को कहा, किंतु वह टस से मस नहीं हुआ। इतने में हाथी पास में आया और उसे सूँड़ से पकड़कर दूर फेंक दिया। शिष्य चोट खाकर बेहोश हो गया। यह खबर गुरु को लगी तो वे उसे तलाश करते हुए जंगल में पहुँचे। कई शिष्यों ने उसे उठाया और आश्रम में ले आए और आवश्यक चिकित्सा की, तब कहीं शिष्य होश में आया। एक शिष्य ने कुछ समय बाद उससे पूछा— “क्यों भाई जब पागल हाथी तुम्हारी ओर आ रहा था तो तुम वहाँ से भागे क्यों नहीं?” उसने कहा— “गुरुजी ने कहा था कि सब भूतों में नारायण का वास है, यही सोचकर मैं भागा नहीं, वरन खड़ा रहा।” गुरुजी ने कहा— “बेटा हाथी नारायण आ रहे थे, यह ठीक है, किंतु अन्य लोगों ने जो भी नारायण ही थे, तुम्हें भागने को कहा तो क्यों नहीं भागे?”
सब भूतों में परमात्मा का वास है, यह तो ठीक है, किंतु मेल−मिलाप भले और अच्छे आदमियों से ही करना चाहिए। व्यावहारिक जगत में साधु−असाधु, भक्त −अभक्त , सज्जन-दुर्जनों का ध्यान रखकर व्यवहार व संबंध रखना चाहिए। जैसे किसी जल से भगवान की पूजा होती है, किसी से नहा सकते हैं, किसी से कपड़ा धोने एवं बर्तन माँजने का ही काम चलाते हैं। किसी जल को व्यवहार में ही नहीं लाते। वैसे जल देवता एक ही है। इसी प्रकार संसार में भी व्यवहार करना चाहिए।
अपनी स्थिति पर विचार करें?
एक सेठ बड़ा धनवान था। उसे अपने ऐश्वर्य, धन-संपत्ति का बड़ा अभिमान था। अपने को बड़ा दानी धर्मात्मा सिद्ध करने के लिए घर पर नित्य एक साधु को भोजन कराता था। एक दिन एक ज्ञानी महात्मा आए, उसके यहाँ भोजन करने को। सेठजी ने उनकी सेवा-पूजा करने का तो ध्यान नहीं रखा और उनसे अपने अभिमान की बातें करने लगा “देखो महाराज वहाँ से लेकर इधर तक यह अपनी बड़ी कोठी है, पीछे भी इतना ही बड़ा बगीचा है। पास ही दो बड़ी मिलें हैं। अमुक−अमुक शहर में भी मिलें हैं। इतनी धर्मशालाएँ, कुँए बनाए हुए हैं। दो लड़के विलायत पढ़ने जा रहे हैं, आप जैसे साधु-संन्यासियों के पेटपालन के लिए यह रोजाना का सदावर्त्त लगा रखा है।” सेठ अपनी बातें कहता ही जा रहा था। महात्मा जी ने सोचा इसको अभिमान हो गया है, इसलिए इसका अभिमान दूर करना चाहिए। बीच में रोककर सेठ जी से कहा आपके यहाँ दुनियाँ का नक्शा है। सेठ ने कहा— 'महाराज बहुत बड़ा नक्शा है।' महात्मा जी ने नक्शा मंगाया। उसमें सेठ से पूछा 'इस दुनियाँ के नक्शे में भारत कहाँ है।' सेठ ने बताया। 'अच्छा इसमें बंबई कहाँ है' सेठ ने हाथ रखकर बताया। महात्मा जी ने फिर पूछा “अच्छा इसमें तुम्हारी कोठी, बगीचे, मिलें बताओ कहाँ हैं।” सेठ बोला महाराज दुनियाँ के नक्शे में इतनी छोटी चीजें कहाँ से आई। महात्मा ने कहा “सेठ जी अब इस दुनियाँ के नक्शे में तुम्हारी कोठी, बगीचे, महल का कोई पता नहीं, तो विश्वब्रह्मांड जो भगवान के लीलाऐश्वर्य का एक खेलमात्र है, उनके यहाँ तुम्हारे ऐश्वर्य का क्या स्थान होगा?” सेठ समझ गया और उसका अभिमान नष्ट हुआ। वह साधु के चरणों में गिरकर क्षमायाचना करने लगा।
थोड़ी−सी समृद्धि ऐश्वर्य पाकर मनुष्य इतना अभिमानी और अहंकारी बन जाता है। यदि वह अपनी स्थिति की तुलना अन्य लोगों से, फिर भगवान के अनंत ऐश्वर्य से करे तो उसे अपनी स्थिति का पता चले। धन-संपत्ति-ऐश्वर्य का अभिमान वृथा है। मूर्खता ही है। प्रथम तो यहाँ की संपदा पर मनुष्य का अपना अधिकार जताना अज्ञान है, क्योंकि यह सदा यहीं की धरोहर है और यहीं रहती है। यह भगवान की संपदाएँ हैं, कोई भी व्यक्ति इन्हें नहीं ले जा सकता। तिस पर भी अपनापन मानकर थोड़े-से धन-ऐश्वर्य पर बौरा जाना पागलपन, अज्ञान ही है।
सुनिए ही नहीं, समझिए भी
एक पंडित किसी को भागवत की कथा सुनाने जाया करते थे। वे बड़े प्रकांड विद्वान थे। शास्त्रज्ञ थे। राजा भी बड़ा भक्त और निष्ठावान था। पंडित कथा सुनाते हुए बीच−बीच में राजा से पूछ लिया करते, यह जानने के लिए कि राजा का ध्यान कथा में है या नहीं। 'राजा कुछ समझ रहे हो?' तब राजा ने कहा 'महाराज! पहले आप समझिये।' पंडित जी राजा का यह उत्तर सुनकर आश्चर्यचकित हो गए। वे राजा के मन की बात नहीं जान पाए।
एक दिन फिर पंडित जी ने राजा से पूछा— 'राजा कुछ समझ रहे हो?' 'महाराज पहले आप समझें' राजा ने उतर दिया। पंडित जी असमंजस में थे कि आखिर इस भागवत में क्या है, जो मेरी समझ से बाहर है। जब−जब पंडित जी पूछते, राजा उसी प्रकार कहता।
एक दिन पंडित जी घर पर भागवत की पुस्तक लेकर एकाग्रचित्त हो पढ़ने लगे। आज पंडित जी को बड़ा आनंद आ रहा था कथा में। पंडित जी ने समझा कि राजा ठीक कहता है। वे मनोयोगपूर्वक कथा पढ़ने लगे। खाना, पीना, सोना, नहाना सब भूल गए। कथा में ही मस्त हो गए। पंडित जी की आँखों से अश्रु बहने लगे। कई दिन बीत गए, पंडित जी राजा को कथा सुनाने नहीं पहुँचे। वे वहीं पर कथा पढ़ते रहते। बहुत दिन हुए। राजा ने सोचा पंडित जी नहीं आ रहे। उसे संदेह हुआ। वेश बदलकर राजा पंडित जी के घर पहुँचे और जहाँ कथा पढ़ रहे थे, वहाँ बैठकर कथा सुनने लगे। राजा के मन में पंडित जी का भाव देखकर भक्तिभावना प्रबल हो गई। पंडित जी पाठ पूरा करके उठे तो राजा को पहचान लिया। राजा ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। पंडित ने कहा— “राजन! आपने तो मुझे मार्गदर्शन देकर कृतार्थ किया।”
ईश्वर विषयक चर्चा, कथाएँ केवल तोतारटंत की तरह पढ़ लेने या सुन लेने से कुछ नहीं होता। समझने, मनन करने और जीवन में उतारने से ही कोई ज्ञान अथवा सत्परिणाम उत्पन्न कर सकता है।
बुराई नहीं, अच्छाई देखो
एक महात्मा नदी में स्नान करने को गए थे। वहाँ जाकर देखा एकांत में दो स्त्री−पुरुष बैठे हैं। उनके पास एक बोतल भी पड़ी है, जिसमें कुछ रस भरा है। उन्हें देखकर महात्मा को संदेह हो गया कि ये दोनों पापकर्म के लिए यहाँ एकांत में बैठे हैं। उस आदमी ने महात्मा के भावों को ताड़ लिया। इतने में ही एक नाव नदी में डूब गई, जिसके साथ सात आदमी भी डूबने लगे। वह आदमी नदी में कूदा और एक−एक करके छः आदमियों को तट पर ले आया। सातवें के लिए उसने महात्मा जी से कहा—‟महात्मा जी यदि कुछ परोपकार करते हो तो इस व्यक्ति को बाहर निकाल लाओ।” महात्मा जी की हिम्मत नहीं हुई। वह व्यक्ति उसे भी निकाल लाया और बाहर आकर महात्मा जी से कहा—‟महाराज अपने दृष्टिकोण को सदैव पवित्र रखना चाहिए। दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है। देखो वह स्त्री मेरी बहन है। दूर जाना है, इसलिए सुस्ताने के लिए यहाँ छाया में बैठ गए हैं और इस बोतल में पानी भरा है, जो मार्ग में पीने के लिए भर लिया गया है।”
महात्मा जी यह जानकर हक्के−बक्के रह गए और अपने विचारों पर पश्चाताप करने लगे। परदोष दर्शन से मनुष्य का स्वयं का ही अहित होता है। दूसरे में भले ही दोष हो या न हो, किंतु इन दोनों अवस्थाओं में ही देखने वाले को, परदोष विचार करने वाले को, पहले दोष का, पाप का भागी बनना पड़ेगा।
पराए धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है
एक नाई जंगल में होकर जा रहा था। अचानक उसे आवाज सुनाई दी 'सात घड़ा धन लोगे?' उसने चारों तरफ देखा, किंतु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा 'लूँगा'। तुरंत आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जाएगा, जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे, किंतु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन-जेवर उसमें डाल दिया, किंतु वह भरा नहीं। वह दिन-रात मेहनत-मजदूरी करने लगा, घर का खरचा कम करके धन बचाता और उसमें भरता, किंतु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा— 'महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ, खरच नहीं चलता।' तनख्वाह दूनी कर दी गई, फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था, अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है, फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था, किंतु मैंने इंकार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा 'अपना सात घड़ा धन ले जाओ।' तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था, वह भी चला गया।
पराए धन के प्रति लोभ-तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है, किंतु उसके साथ जो लोभ-तृष्णारूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है, तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनंद, शांति, प्रसन्नता सबको काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अंत में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाए- कजाए धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है, चला जाता है। भूलकर भी पराए धन में तृष्णा, लोभ पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले, उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।
आत्मज्ञान और भेदभाव
एक बार जगद्गुरु शंकराचार्य काशी में गंगास्नान करके सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे कि अचानक एक चांडाल से वे छू गए। तब उन्होंने आवेश में आकर कहा—“अरे? क्या तूने मुझे छू लिया, जानता नहीं मैं गंगास्नान करके आ रहा हूँ।” चांडाल ने कहा— “महाराज! न मैंने आपको छुआ, न आपने मुझे। सभी में वह अंतर्यामी निर्लिप्त आत्मा निवास करता है। गंगाजल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिंब, क्या शराब में पड़े प्रतिबिंब से अलग होता है?”
शंकराचार्य जी को आत्मज्ञान हुआ और उन्होंने तभी से सब में आत्मतत्त्व के दर्शन किए, बाह्य भेद-विभेद भूलकर परमात्म तत्त्व को जाना।
आत्मज्ञान होने पर भेद−विभेद नहीं रहते। सूक्ष्मदृष्टि हो जाने पर स्थूल जगत के भेद−भाव नहीं रह जाते। वे एक ही समुद्र की लहरों से निर्मित बबूले नजर आते हैं।