Magazine - Year 1964 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
त्याग करें, पर किसका
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
त्याग जीवन का एक आवश्यक धर्म है। जीवन शोधन का राजमार्ग है। प्राप्ति और प्रगति का नवचरण है त्याग। यह अशुभ के स्थान पर शुभ की प्रतिष्ठा का नियम है। एक को छोड़ने पर ही दूसरे की प्राप्ति संभव होती है। रखा हुआ कदम उठाकर, वर्तमान आधार छोड़कर ही पथ पर आगे नवचरण धरा जा सकता है। पेट में अवशेष तत्व का (मल का) त्याग करने पर ही भोजन की रुचि पैदा होती है। शुद्ध वायु ग्रहण करने के लिए फेफड़ों में स्थित अशुद्ध वायु को छोड़ना पड़ता है। नव शरीर धारण करने के लिए एक दिन जर्जर शरीर का भी त्याग कर देना पड़ता है। संग्रह करने से, पदार्थों को चिपकाये रहने से जीवन गति में विषमता पैदा हो जाती है। रुका हुआ पानी सड़ने लगता है। पेट यदि खाये हुए पदार्थों को अपने अन्दर ही संग्रह करता रहे तो अनेकों बीमारियाँ पैदा होकर शरीर नाश की स्थिति पैदा हो जायेगी। हृदय रक्त की वितरण व्यवस्था में संग्रह बुद्धि से काम ले तो शरीर की चैतन्यता ही नष्ट हो जायेगी।
इस तरह त्याग जीवन का एक आवश्यक ही नहीं अनिवार्य नियम है। त्याग के बिना विकास प्रगति, उन्नति का पथ प्रशस्त नहीं होता। जब हम किन्हीं पदार्थों, परिस्थितियों यहाँ तक विचारों भावनाओं में बंधे पड़े रहते हैं तब तक अन्य विषयों की ओर हमारी गति ही नहीं होगी। इसलिए किसी वस्तु का विषय विशेष से बंधना उसमें ही लिप्त रहना तो सर्वथा त्याज्य है। जो कुछ आपके पास है आप जो कुछ भी जानते हैं उसे अपनी उन्नति का आधार बना सकते हैं। जिस सीढ़ी पर आप खड़े हैं उसका सहारा लेकर ऊपर उठ सकते हैं लेकिन अन्ततः सीढ़ी आपको छोड़नी ही पड़ेगी। यह असंभव है कि आप उस पर खड़े भी रहें और ऊपर भी पहुँच जायं।
जीवन की पगडण्डी बड़ी लम्बी है। संसार का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। आगे बढ़ने के लिए, प्राप्त करने के लिए आपको नित्य त्याग करना पड़ेगा ही। यहाँ कोई भी तो ऐसा धाम नहीं है जहाँ कर कह सकें ‘बस हमारी यात्रा पूरी हो गई’ ‘अब यहाँ से हटना नहीं पड़ेगा।’ जब तक जीवन है संसार है, तब तक हमें छोड़ना पड़ेगा, त्याग करते रहना होगा।
इसलिए त्याग कीजिए ‘मैं’, और ‘मेरेपन’ का ताकि आप ‘पर-सत्ता’ की अनुभूति कर सकें। जब तक ‘मैं’ है आप परमात्मा की विराट सत्ता की अनुभूति प्राप्त न कर सकेंगे। ‘मेरेपन’ के कारण वस्तुओं की सीमा से बाहर न निकल सकेंगे। ऐसी स्थिति में आप विश्व-चक्र की गति से पिछड़ जायेंगे। चूँकि सारा संसार ही त्याग धर्म पर चल रहा है अस्तु संग्रह और रोके रखने की वृत्ति आपके जीवन में संघर्ष पैदा कर देगी। यहाँ का धर्म है कि विश्व जीवन को गति देने के लिए कुछ न कुछ त्याग करते रहो? और जब आप चाहेंगे ‘मैं नहीं दूँगा’ ‘मैं नहीं छोड़ूंगा’ ऐसी स्थिति में विश्व प्रकृति के विरोध का सामना करना पड़ेगा और तब तक आपको विवश होकर छोड़ना पड़ेगा, एक पराजित योद्धा की तरह। फिर क्यों स्वेच्छा से त्याग करके विश्व क्रम में सहयोग न दिया जाय। इससे दो लाभ होंगे एक स्वधर्म पालन करने का संतोष दूसरे हमारा जीवन एकाकी, संकीर्ण न रह कर विश्वजीवन से संयुक्त हो जायेगा। हम जीवन की उच्च भूमिकाओं में प्रवेश पा सकेंगे।
चूँकि त्याग एक को हटाकर दूसरे की प्रतिष्ठा का अवसर देता है इसलिए मन, कर्म, वचन से उन सभी बातों का त्याग किया जाय जो अशुभ हैं। अशुभ का त्याग करने पर ही शुभ की प्रतिष्ठा संभव होगी। जब तक हमारे विचार, भावना तथा कर्मों में अशुभ का बोलबाला है तब तक शुभ को स्थान कैसे मिलेगा? जिस तरह द्वार के किवाड़ों को खोलते ही सूर्य प्रकाश सहज ही भवन को प्रकाशित कर देता है उसी तरह जीवन से अशुद्ध तत्वों को निकाल देने पर शुभ का उदय अपने आप हो जाता है। बुराइयों के छूटते ही अच्छाइयाँ स्वतः पैदा हो जाती हैं। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, ममता, लोभ आदि बुराइयों के छूटने पर दया, प्रेम, करुणा, श्रद्धा, तितिक्षा, शम, दम आदि सद्तत्वों का उदय होने लगता है।
हमें उन सभी कार्य व्यवहार प्रवृत्तियों का त्याग, करना चाहिये जो अशुभ से, असत्य से प्रेरित हैं, जिनका परिणाम सदैव दुःखदाई और पतन की ओर ले जाने वाला होता है। जो असुन्दर है। विषय-वासना और उनसे प्रेरित भोगों का त्याग करना आवश्यक है क्योंकि इनके रहते हुए जीवन में उच्च आदर्शों की प्रतिष्ठा संभव नहीं होती। मनुष्य की शक्तियाँ अस्त−व्यस्त एवं क्षीण हो जाती हैं इनमें लिप्त रहने से, आध्यात्मिक एवं भौतिक किसी भी क्षेत्र में ऐसी सफलता नहीं मिलती जिससे संतोष मिल सके। व्यक्ति की दिनों दिन विषय-वासनाओं में आसक्ति बढ़ती ही जाती है और वह इनके जंजाल से छूट नहीं पाता। इनसे कई मानसिक जटिलताएं भी दिनों-दिन बढ़ती जाती हैं। विषय भोगों का चिन्तन तक तो जीवन में कई तरह की विषमतायें पैदा कर देता है। शास्त्रकार ने लिखा है-
ध्यायते विषयान्पुसः संगस्तेषुप जायते।
संगात्संजायते कामः कामात् क्रोधोभिजायते॥
‘विषयों का चिंतन करने से उनमें आसक्ति पैदा हो जाती है। विषयों की आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना यदि पूर्ण न हो तो क्रोध की उत्पत्ति होती है।’ इस तरह विषयों के चिन्तन मात्र से ही अनेकानेक मानसिक जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं और मनुष्य अपने श्रेय पथ से विचलित हो जाता है।
लिप्सा चाहे विषय भोगों की हो या धन दौलत की या पद प्रतिष्ठा की उसे मानसिक और व्यावहारिक क्षेत्र से सर्वथा दूर करने का प्रयत्न किया जाय। मन में रहने वाली उस इच्छा एवं रुचि का भी त्याग कीजिए जिससे विषय-भोगों की तृष्णा बढ़े, जिनसे लोभ, मोह, अभिमान आदि को पोषण मिलता हो।
ऐसे भोजन का त्याग करना चाहिए जिससे स्वाद में आसक्ति बढ़ती हो, जिससे आलस्य, प्रमाद बढ़ता हो, जो तामसी बासी, गन्दा और किसी का झूठा हो, जो बेईमानी की कमाई से प्राप्त हुआ हो। शुद्ध, सात्विक, ताजा हल्का पौष्टिक और पसीने की कमाई से प्राप्त हुआ भोजन ही शरीर को स्वस्थ और ताजा रखता है।
वाणी से असत्य वचन, चापलूसी, परनिन्दा, कटुभाषण व्यर्थ वार्तालाप का त्याग करना चाहिए क्योंकि ये अशुभ और अनैतिक हैं। इनसे जीवन में कलह, पश्चाताप, लड़ाई, झगड़े, अशाँति पैदा हो सकते हैं। परस्पर के संबंध खराब हो जाते हैं। उन सभी दृश्यों तथा प्रसंगों से दूर रहें जिनसे दूषित मनोभावों, वासनाओं को पोषण मिले। मनुष्य जो कुछ भी देखता है उसकी प्रतिक्रिया मन पर होती है। उस दृश्य से संबंधित जो वासना मन में होती है, वह प्रबल हो उठती है और मनुष्य को वैसा ही करने की प्रेरणा देती है।
किसी भी स्थिति में बुरे काम करना, बुरा सोचना और बुरा कहना त्याज्य है। इतना ही नहीं बुरा देखने और सुनने से भी दूर रहना अच्छा है। इस तरह जीवन के सभी क्षेत्रों से अशुभ, असुन्दर का त्याग करना चाहिये जिससे शुभ का उदय हो।
कई बार हम लोग किन्हीं गलत प्रेरणा, उत्तेजनाओं से उत्तेजित मनोभावों में बहकर त्याग का विकृत रूप अपना लेते हैं। साधन-वस्तु अथवा अपनी जिम्मेदारी और कर्त्तव्यों का त्याग करते हैं। कोई घरबार छोड़ देते हैं तो कोई वस्त्र या वस्तु विशेष का त्याग करते हैं। लेकिन इनसे तो त्याग की आवश्यकता पूर्ण नहीं होती, न उसकी परिभाषा बनती है। त्याग का मूलाधार मनुष्य की मनोस्थिति है। इच्छा और कामनाओं का त्याग, अहंकार स्पृहीमोह आदि मनोभावों का त्याग ही सच्चा त्याग है। जब तक मनुष्य इन दूषित मनोभावों का त्याग नहीं करता तब तक उसे शाँति और संतोष की प्राप्ति नहीं होती, चाहे वह बाहरी त्याग के कितने ही प्रयत्न क्यों न करता रहे। गीताकार ने इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए लिखा है-
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमान्श्चरति निस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शाँति मधिगच्छति॥
‘सभी कामनाओं को छोड़कर सब ओर से निस्पृह, ममता रहित, अहंकार का त्याग करने वाला ही शाँति को प्राप्त करता है।’
हम सम्पत्ति का त्याग करते हैं किन्तु मन में स्थित लोभवृत्ति को नहीं छोड़ते, पर परिवार का त्याग करते हैं किन्तु ममता, मोह, का त्याग नहीं करते। स्थान, पद, अधिकार छोड़ देते हैं किन्तु अहंकार नहीं छोड़ते। इसी कारण हम सदैव शान्त और असन्तुष्ट बने रहते हैं। त्याग यदि अकल मन से किया होता है तो उससे शाँति, आत्म सुख की प्राप्ति होती है। किन्तु हम आवेश में आकर या दिखावे के लिए बाहरी त्याग करते हैं, आन्तरिक प्रेरक हेतुओं का त्याग नहीं करते और इनके छोड़े बिना कहीं भी एकान्त, वनों, गिरि-गुफाओं में ही क्यों न रहा जाय शाँति नहीं मिलती।
वस्तुतः धन परिवार, पद, साँसारिक पदार्थ आदि अपने-अपने स्थान पर कोई भी बुरे नहीं हैं। लेकिन इनके प्रति राग, आसक्ति मोह-ममता, लोभ, अभिमान आदि का संसर्ग ही दोष का कारण बनता है। इन्हीं का त्याग करना आवश्यक है। महर्षि व्यास ने लिखा है-’जिसने इच्छा का त्याग कर दिया उसे घर छोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं और जो इच्छा के वशीभूत है उसके वन में चले जाने पर कोई लाभ नहीं। अपनी इच्छा और कामनाओं का त्याग ही सच्चा त्याग है। वह जहाँ भी रहे वहीं भवन कन्दराएं हैं।’
इस तरह अपनी कामनाओं, इच्छाओं, वासनाओं तथा दूषित मनोभावों का त्याग ही सर्वोपरि त्याग है। इन प्रेरक हेतुओं का त्याग न करके जो प्रवृत्तियों का बलात् त्याग करता है, गीताकार ने उसे दम्भी बतलाया है। ऐसे व्यक्ति अपने आदर्श से जल्दी ही विचलित हो जाते हैं, जिन्होंने शरीर क्रिया का त्याग किया और मन से विषयों का चिन्तन करते हैं ऐसे लोग पथभ्रष्ट हो जाते हैं। योगभ्रष्ट होने वाले साधक इसी श्रेणी के होते हैं।