Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारी हानिकारक रूढ़ियां
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वर्तमान समय में हमारे समाज का जो दशा है उसे दुःखपूर्ण ही कह सकते हैं। स्त्री-पुरुष, बालक-बूढ़े, विवाहित और अविवाहित किसी से बात कीजिये, सौ में से नब्बे या पिच्यानवे अपने दुःखों का रोना ही सुनाने लगेंगे। जो इस पाँच सुख की बात भी करेंगे तो उनकी बातों की विवेचना करने से प्रतीत हो जायगा कि उनकी सुख की भावना अज्ञान और उत्तरदायित्वहीनता के कारण है। यह बात नहीं कि सब लोग गरीबी या धनाभाव की वजह से ही दुःखी हैं, नहीं, अधिकाँश धनवान और अमीर व्यक्ति भी उतने ही दुःखी दिखलाई पड़ते हैं जितने कि गरीब। कोई लड़के-लड़कियों का विवाह ठीक न हो सकने के कारण दुखी है, किसी को अच्छा दहेज न मिलने की शिकायत है तो दूसरा लड़की की विवाह में सामर्थ्य से अधिक खर्च करने के कारण कर्जदारों के तकादे से मरा जा रहा है। साराँश समाज में इस प्रकार की तरह-तरह की अनेकों कुप्रथाएं और रूढ़ियां व्याप्त हैं कि जिनके कारण मनुष्य को किसी न किसी तरह की चिन्ता, परेशानी लगी ही रहती है।
विवाह, जन्म और मृत्यु जैसी बड़ी-बड़ी बातों को छोड़ भी दें तो भी हिन्दू-समाज की सभी जातियों में ऐसी छोटी-बड़ी सैकड़ों प्रथायें, रूढ़ियां, रस्म-रिवाज पाये जाते हैं जिनके कारण गृहस्थ व्यक्तियों पर सदा किसी न किसी प्रकार का भार बढ़ता ही रहता है और व्यस्तता बनी ही रहती है। जात-बिरादरियों में प्रत्येक अवसर पर परस्पर लेन-देन की ऐसी रीतियाँ प्रचलित हैं कि मनुष्य की कमाई का एक बड़ा अंश उन्हीं में खर्च हो जाता है। छोटी-छोटी बातों में इन रीति-रिवाजों का उल्लंघन नहीं कर पाते। लड़की और बहुओं का आना-जाना, बहन-बेटी का विदा होना, किसी बच्चे का जन्म होना, जन्म के बाद नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कान छेदना, विद्यारम्भ आदि जो भी संस्कार हो, हर अवसर पर सगे सम्बन्धियों, इष्ट-मित्रों, पड़ौसियों को कुछ देना आवश्यक हैं। और इस देने में सदा बदले का ध्यान रखना पड़ता हैं। जिसके यहाँ से जितना आता है उसे उसी हिसाब से देना पड़ता है। अगर आप उनको देना भूल जायें या कम भेजें तो वे बुरा मान जायेंगे और सदा उलाहना देते रहेंगे। अगर किसी बहन-बेटी को किसी ऐसे अवसर पर नियम से कम दिया जाय या देने में भूल हो जाय तो वह सदा इसी बात का ताना मारती रहेगी।
इस प्रकार की प्रथाओं का परिणाम शुभ नहीं होता। इस प्रकार जो कुछ दिया जाता है उसमें बदला चुकाने का अपनी ‘नाक’ ऊँची रखने की बात होती है। हम बहन-बेटियों और संगे-सम्बन्धियों को हर त्यौहार पर और विवाह शादी, संस्कार आदि के अवसरों पर जो कुछ रुपया पैसा, जेवर, कपड़े आदि दिया करते हैं उसमें किसी प्रकार की प्रेम या स्नेह की भावना नहीं होती वरन् वह अपनी ‘आबरू’ या ‘नाक’ की रक्षा के ख्याल से दिया जाता है। हमारे मन में यह भाव रहता है कि यदि अपनी हैसियत और नाम के अनुसार उचित ‘नेग‘ भेंट नहीं दी जायगी तो हमारी बदनामी होगी। जब इस प्रकार की भेंट सामर्थ्य न होते हुए भी विवश होकर देनी पड़ती है तो हम मन ही मन उन सम्बन्धियों को कोसते रहते हैं। इस प्रकार के कार्यों में जो हार्दिकता और प्रसन्नता होनी चाहिये उसका चिन्ह भी नहीं रहता और हम उनको एक भार समझ कर लाचारी से करते हैं। इस कारण सम्बन्धियों में प्रायः सच्चा प्रेम भी नहीं हो पाता अनेक बार भीतर ही भीतर वैमनस्य की भावना पैदा हो जाती है, पर ऊपर से दिखाने के लिये शिष्टाचार बरता जाता है।
हमारे इन रस्म-रिवाजों में किसी की मृत्यु के उपरान्त शोक-प्रदर्शन की प्रथा भी बड़ी अस्वाभाविक हैं। यों तो संसार के सभी देशों और समाजों में किसी व्यक्ति की मृत्यु पर किसी न किसी रूप में शोक का भाव प्रकट किया जाता है और खास कर अगर ऐसी मृत्यु असामयिक हो तो लोगों को दुख भी होता है। पर हिन्दुओं में किसी मरने वाले के लिये एक दिन ही नहीं, कई दिन तक जिस प्रकार रोना-धोना किया जाता है अथवा ‘स्यापा’ आदि करते हैं वह एक निराली ही चीज है। किसी के मरने पर सारे मुहल्ले की ओर नाते-रिश्ते की स्त्रियाँ इकट्ठी होकर इस प्रकार ढाडें मार-मार कर रोती हैं जिससे मालूम पड़ता है कि वे मृतक के वियोग से अधीर हो रही हैं। पर वास्तव में घर में दो-चार लोगों के सिवा, किसी के मन में दुःख का लेश भी नहीं होता और वे यह सब रोना-धोना रस्म के रूप में ही करती है।
पंजाबी स्त्रियों का ‘स्यापा’ इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय है। वे एक गोल आकार में खड़ी होकर जोर-जोर से विलाप करती हुई दोनों हाथों से इस प्रकार छाती कूटती हैं कि देखने वाले को रोमाँच हो आता है। साथ ही उनमें एकाध वृद्धा स्त्री कुछ शोकपूर्ण उद्गार भी प्रकट करती जाती है। जिसको ‘वैन’ कहते है। यह कार्य-क्रम दो-दो घण्टे तक भी चलता है और उन छाती कूटने वाली स्त्रियों की क्या दशा होती होगी ये वे ही जानती होंगी। ऐसा भी नहीं कि कोई स्त्री कम रोवे वा मामूली तौर से छाती कूटे। इन स्त्रियों का यह कार्य बड़े कायदे के साथ कवायद की तरह होता है। सबके हाथ एक साथ उठते हैं, और साथ ही छाती पर पड़ते हैं। अगर कोई स्त्री हाथ हलके से मारती है तो अन्य स्त्रियाँ उसकी बहुत निन्दा करती हैं और बुरा भला कहती हैं। पर यह सब रोना-धोना और छाती कूटना नाटक की तरह ही होता है। ज्यों ही इस कार्य को खत्म करके वे अपने घरों को लौटती हैं कि फिर सदा की तरह हँसने बोलने लगती हैं। कितनी तो वहाँ से निकल कर रास्ते में किसी ऐसे घर भी चली जाती हैं जहाँ कोई खुशी का उत्सव होता हो। वहाँ वे खूब बधाई देती हैं और खुशी से खाती-पीती भी हैं।
इस प्रकार के मृत्यु-शोक प्रदर्शन का क्या मूल्य हो सकता है, इसको करने वाले ही जानें। मरने वाले के लिए इस प्रकार बहुत अधिक रोने-धोने का नाटक रचना अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है। ऐसे अवसर पर मनुष्य को जिस गम्भीरता का परिचय देना चाहिये वह इस प्रकार के दिखावा करने से प्रायः जाता रहता है। जन्म-मरण संसार के स्वाभाविक कर्म हैं। एक आस्तिक की दृष्टि से इनको ईश्वर की इच्छा समझकर संतोष रखना ही मनुष्य का उचित कर्तव्य होता है। पर हमारे यहाँ दिखावे के लिए ही सही, जो इतना शोक मनाया जाता है और उसके उपलक्ष्य में भगवान तक को तरह-तरह उलाहना दिया जाता है, यह कोई समझदारी या बुद्धिमानी की बात नहीं समझी जा सकती।
एक बात और है कि इस प्रकार के शोक प्रदर्शन से स्त्रियों के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है। यद्यपि परम्परा से यह कार्य करते रहने से उनको अभ्यास हो जाता है, तो भी सदैव इस कार्य को करते रहने से खराब असर होता ही है। जो स्त्रियाँ छाती को काफी देर तक कूटकर अपने बच्चों को दूध पिलाती हैं, क्या उससे उनकी हानि नहीं होती? ऐसा दूध निस्सन्देह बालक के लिए बहुत हानिकारक होता है। जिन स्त्रियों को ‘स्यापा’ में अधिक भाग लेना पड़ता है, वे शीघ्र बूढ़ी हो जाती हैं। इस प्रकार की रस्म को समाज को दृष्टि से किसी प्रकार हितकारी नहीं कहा जा सकता, विशेषकर जब कि उसका कोई सच्चा आधार भी न हो। ऐसी रूढ़ियों में सुधार का प्रयत्न करना प्रत्येक समझदार व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिए।
एक बात और है कि इस प्रकार के शोक प्रदर्शन से स्त्रियों के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है। यद्यपि परम्परा से यह कार्य करते रहने से उनको अभ्यास हो जाता है, तो भी सदैव इस कार्य को करते रहने से खराब असर होता ही है। जो स्त्रियाँ छाती को काफी देर तक कूटकर अपने बच्चों को दूध पिलाती हैं, क्या उससे उनकी हानि नहीं होती? ऐसा दूध निस्सन्देह बालक के लिए बहुत हानिकारक होता है। जिन स्त्रियों को ‘स्यापा’ में अधिक भाग लेना पड़ता है, वे शीघ्र बूढ़ी हो जाती हैं। इस प्रकार की रस्म को समाज को दृष्टि से किसी प्रकार हितकारी नहीं कहा जा सकता, विशेषकर जब कि उसका कोई सच्चा आधार भी न हो। ऐसी रूढ़ियों में सुधार का प्रयत्न करना प्रत्येक समझदार व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिए।
फार्म 4
1.प्रकाशन का स्थान - मथुरा
2.प्रकाशन का अवधि - क्रम- मासिक
3.मुद्रक का नाम - श्री राम शर्मा आचार्य
राष्ट्रीयता - भारतीय
पता - बम्बई भूषण प्रेस, मथुरा।
4.प्रकाशक का नाम - श्रीराम शर्मा आचार्य
राष्ट्रीयता - भारतीय
पता - ‘अखण्ड-ज्योति’ संस्थान मथुरा।
5.सम्पादक का नाम - श्रीराम शर्मा आचार्य
राष्ट्रीयता - भारतीय
पता - ‘अखण्ड-ज्योति’ संस्थान मथुरा।
6.स्वत्वाधिकारी - श्रीराम शर्मा आचार्य अखण्ड-ज्योति संस्थान, मथुरा।
मैं, श्रीराम शर्मा आचार्य यह घोषित करता हूँ कि ऊपर दिए गए सब विवरण मेरी अधिकतम जानकारी और विश्वास के अनुसार सत्य है।
(हस्ता.) श्री राम शर्मा आचार्य
(हस्ता.) श्री राम शर्मा आचार्य