Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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भामाशाह का अपूर्व त्याग
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मेवाड़ की रक्षा के लिये महाराणा प्रताप अन्तिम प्रयत्न करते हुये निराश हो गये थे। अकबर की विशाल सेना और अपरिमित साधनों का मुकाबला करते-करते छोटे से मेवाड़ प्रवेश के साधन समाप्त हो चुके थे। प्रत्येक लड़ाई में राजपूतों ने चिरस्मरणीय शौर्य और वीरता का परिचय दिया, महाराणा प्रताप ने दो-चार हजार सैनिकों को लेकर बड़ी-बड़ी बादशाही सेनाओं का मुंह मोड़ दिया, पर मुगल सल्तनत के साथ बहुत अधिक थे। एक सेना नष्ट हो जाती तो दूसरी भेज दी जाती। एक स्थान का रसद-पानी खत्म हो जाता हो दूसरे स्थान से अन्नादि सामग्रियां भेज दी जातीं। पर महाराणा प्रताप अकेले अपने ही बल पर जूझ रहे थे।
अन्त में ऐसा समय आ गया जब उनके पास न तो रुपया पैसा बचा, न सिपाही और हथियार रहें। बादशाही सेना को निरन्तर आगे बढ़ते देखकर और पहाड़ों के भीतर रहकर अपने तथा अपने साथियों के लिये सूखी रोटी मिल सकना भी असम्भव समझकर उन्होंने मेवाड़ को त्याग कर सिन्ध की तरफ जाने का विचार किया।
जिस समय महाराणा प्रताप देश त्याग का निश्चय करके और अपने बचे खुचे साथियों को लेकर अरावली पर्वत को पार करके सिन्ध में जाने को कदम बढ़ाने लगे कि किसी ने उनको पीछे से पुकारा-”ओ मेवाड़ पति। राजपूती वीरता की शान दिखाने वाले। हिन्दू धर्म के रक्षक। जरा ठहर जाओ।” राणा ने चौंककर पीछे मुड़कर देखा तो उनके राज्य के पुराने जमाने के मंत्री भामाशाह उनकी तरफ दौड़े चले आ रहे थे। भामाशाह किसी प्रकार राणा के देश त्याग का समाचार सुनकर तुरन्त ही उठकर दौड़े चले आये थे।
वे समीप पहुँचते ही आँखों में आँसू भरे हुये भर्राये स्वर से बोले-’स्वामी। आज कहाँ जा रहे हैं और क्यों इतने व्यथित तथा उदास जान पड़ते हैं?” महाराणा का निराशापूर्ण उत्तर सुनकर भामाशाह कहने लगा-”नहीं, एक बार आप फिर अपने घोड़े की बाग मेवाड़ को तरफ मोड़िये और नये सिरे से तैयारी करके मातृ-भूमि के उद्धार का प्रयत्न कीजिये। इसमें जो खर्च होगा वह मुझसे लीजिये। आपके पूर्वजों की दी हुई पर्याप्त सम्पत्ति मेरे पास है, वह सब मैं आपके चरणों में भेंट करता हूँ। वह मातृ-भूमि के उद्धार में लग सके इससे बढ़कर उसका सदुपयोग क्या हो सकता है? इसलिये आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करके उस सम्पत्ति द्वारा लड़ाई की फिर तैयारी करें। यदि सफल हो जायें तो ठीक ही है, अन्यथा फिर जहाँ स्वामी, वहीं पर यह सेवक भी चलेगा।” भामाशाह के अपूर्व त्याग और देश-भक्ति को देखकर महाराणा प्रताप का हृदय भर आया और उसके अनुरोध को मानकर वापस लौट आये। कहा जाता है कि भामाशाह के भण्डार में इतना धन था कि जिससे पच्चीस हजार सेना का बारह वर्ष तक खर्च चल सकता था।