Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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सुसंस्कृत व्यक्तित्वों की आवश्यकता
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युग-निर्माण के उपयुक्त परिस्थितियाँ वे लोग उत्पन्न करेंगे जिनमें मूलतः उत्कृष्ट स्तर की शक्ति क्षमता, प्रतिभा और आस्था विद्यमान हो यह क्षमता भाषण सुनने या लिखने पढ़ने से ही उत्पन्न नहीं होती वरन् उसके लिए जन्मजात संस्कारों की भी आवश्यकता रहती है। आज धर्म और अध्यात्म पर भी राजनैतिक विषयों की भाँति ही धुँआधार भाषण होते है। कीर्तन, कथा, रामायण, यज्ञ आदि के उत्सव समारोह आगे होते रहते हैं जिसमें धर्म विषयों पर विद्वतापूर्ण भाषण होते हैं। रामलीला जगह-जगह होती है उसमें भी भगवान राम के आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा देना ही उद्देश्य रहता है। गंगा-स्नान में मेले, कुम्भ आदि पूर्व चारों धामों, तीर्थ आदि में भी ऐसा ही वातावरण बनता है जिससे यदि मनुष्य चाहे तो बहुत कुछ प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। नाटक, सिनेमाओं में भी कई बार धर्म-शिक्षा के दृश्य रहते हैं।
पत्र-पत्रिकाओं में कर्तव्य बोधक लेख बहुत छपते रहते हैं। गीता, रामायण जैसी प्रधान धर्म पुस्तकों की प्रतियाँ लाखों की संख्या में हर साल छपती हैं और लोगों द्वारा खरीदी एवं पढ़ी जाती हैं। ऐसा साहित्य और भी जगह-लेखन द्वारा निरन्तर यह प्रयत्न किया जा रहा है कि लोग अच्छे बनें। इन बातों को लोग पढ़ते-सुनते न हों सो बात भी नहीं है। पर देखा यह जाता है कि चिकने घड़े की तरह लोग उससे मनोरंजन मात्र कर लेते हैं, उसे जीवन में उतारने के लिए एक कदम भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं होते। और तो और, धर्म एवं आध्यात्मिकता के प्रवचनकर्ता और लेखन स्वयं भी अपनी ‘कथनी की अपेक्षा’ करनी से बहुत पिछड़े रहते हैं। कई बार तो उनका आचरण बिलकुल उलटा देखा जाता है।
इन तथ्यों पर विचार करते हुए कारण जानने की गहराई में जब उतरा जाता है तब एक बात स्पष्ट होती है कि व्यक्ति में मूलतः वे तत्व भी होने चाहिए जिन में सद्ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति और आदर्श को जीवन में उतारने की साहसपूर्ण सामर्थ्य भी विद्यमान हो। इसके बिना अच्छी शिक्षा का भी कुछ विशेष लाभ नहीं मिल सकता। धर्म की शिक्षा देने वालों की वक्तृता भले ही नीरस हो, उनका चरित्र सामान्य लोगों की अपेक्षा अधिक पवित्र, अधिक प्यारा और अधिक प्रकाशवान होना चाहिए। आज वर्ग शिक्षा देने वाले लेखक वक्ता, तो बहुत हैं पर उनके पास कबीर, नानक, गुरु गोविंदसिंह, रामदास, बुद्ध, महावीर, गाँधी जैसा व्यक्तित्व नहीं हैं। वाणी की शक्ति तो स्वल्प है। प्रभाव वस्तुतः चरित्र का पड़ता है। संस्कारवान सुनने वाले और चरित्रवान कहने वाले जब कभी मिल जाते हैं तब थोड़ा-सा प्रशिक्षण भी जादू का असर उत्पन्न करता है। इसके बिना अन्य मनोरंजन की तरह धर्म भी दिल बहलाव का एक विषय बनकर रह जाता है। धर्म जीवन में उतारने की वस्तु है, आचरण में लाने पर ही उसका कोई लाभ और प्रभाव अनुभव किया जा सकता है।
यदि धर्म को व्यावहारिक रूप धारण करते हुए देखना हो तो ऐसे संस्कारवान व्यक्तियों का निर्माण करना होगा जो हमारी तरह धर्म को सुन समझकर ही सन्तुष्ट न हो जायं वरन् उसे कार्यान्वित करने के लिए साहसपूर्ण कदम उठा सकने की क्षमता भी रखते हों। तेजस्वी व्यक्तित्वों के निर्माण के लिए माता-पिता को तप करना होता है। प्राचीनकाल के इतिहास पुराणों को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि महापुरुषों का जन्म देने वाले माता-पिताओं ने दीर्घ काल तक अनेक जन्मों तक तप किये थे। उस तप से शरीर और मनों को, रज वीर्य को ऐसा सुसंस्कारी बनाया था कि उससे तेजस्वी आत्माओं का प्रजनन संभव हो सके। उन बालकों का पालन-पोषण भी उपयुक्त वातावरण में हो सके ऐसी व्यवस्था करनी होती हैं तथा शिक्षा-दीक्षा के लिए भी ऐसा प्रबन्ध करना होता है कि जहाँ केवल साक्षरता ही नहीं वरन् चरित्र तथा व्यक्तित्व का भी विकास हो सके। सुसंस्कृत तथा श्रेष्ठ व्यक्तियों के निर्माण का यही मार्ग हैं। अपवाद रूप से कभी-कभी कीचड़ में कमल भी उत्पन्न होते हैं पर क्रम यही है कि संस्कारवान श्रेष्ठ व्यक्तित्व सदा श्रेष्ठ माता-पिता और श्रेष्ठ पारिवारिक वातावरण में से ही विनिर्मित होते रहते हैं।
अब युग की रचना के लिये ऐसे व्यक्तियों की ही आवश्यकता है जो वाचालता और प्रोपेगैण्डा से दूर रह कर अपने जीवनों को प्रखर एवं तेजस्वी बना कर अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें और जिस तरह चन्दन का वृक्ष आस-पास के पेड़ों को सुगन्धित कर देता है, उसी प्रकार अपनी उत्कृष्टता से अपना समीपवर्ती वातावरण भी सुरभित कर सकें। अपने प्रकाश से अनेकों को प्रकाशवान कर सकें।
धर्म को आचरण में लाने के लिये निस्सन्देह बड़े साहस और बड़े विवेक की आवश्यकता होती है। कठिनाइयों का मुकाबला करते हुये सदुद्देश्य की ओर धैर्य और निष्ठापूर्वक बढ़ते चलना मनस्वी लोगों का काम है। ओछे और कायर मनुष्य दस-पाँच कदम चल कर ही लड़खड़ा जाते हैं। किसी के द्वारा आवेश या उत्साह उत्पन्न किये जाने पर थोड़े समय श्रेष्ठता के मार्ग पर चलते हैं पर जैसे ही आलस्य प्रलोभन या कठिनाई का छोटा-मोटा अवसर आया कि बालू की भीत की तरह औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। आदर्शवाद पर चलने का मनोभाव देखते-दीखते अस्त-व्यस्त हो जाता है। ऐसे ओछे लोग अपने को न तो विकसित कर सकते हैं और न शान्तिपूर्ण सज्जनता की जिन्दगी ही जी सकते हैं। फिर इनसे युग-निर्माण के उपयुक्त उत्कृष्ट चरित्र उत्पन्न करने की आशा कैसे की जाय? आदर्श व्यक्तियों के बिना दिव्य समाज की भव्य रचना का स्वप्न साकार कैसे होगा? गाल बजाने पर उपदेश लोगों द्वारा यह कर्म यदि सम्भव होता सो वह अब से बहुत पहले ही सम्पन्न हो चुका होता। जरूरत उन लोगों की है जो आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति को जीवन की सब से बड़ी सफलता अनुभव करें और अपनी आस्था की सच्चाई प्रमाणित करने के लिये बड़ी से बड़ी परीक्षा का उत्साहपूर्ण स्वागत करें।
आदर्श व्यक्तित्व ही किसी देश या समाज की सच्ची समृद्ध माने जाते हैं। जमीन में गढ़े धन की चौकसी करने वाले, साँपों की तरह तिजोरी में जमा नोटों की रखवाली करने वाले कंजूस तो गली कूँचों में भरे पड़े हैं। ऐसे लोगों से कोई राष्ट्र न तो महान बनता और न शक्तिशाली। राष्ट्रीय प्रगति के एकमात्र उपकरण प्रतिभाशाली चरित्रवान व्यक्तित्व ही होते हैं। हमें युग-निर्माण के लिए ऐसी ही आत्माएँ चाहिये। इनके अभाव में अन्य सब सुविधा साधन होते हुए भी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में तनिक भी प्रगति न हो सकेगी।
अखण्ड-ज्योति परिवार का प्रत्येक घर आदर्श व्यक्तित्व ढालने की टकसाल बने यही प्रयत्न हमें करना होगा। इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि इनमें ऐसा सौम्य वातावरण रहा करे जिसके सान्निध्य में रहने वाले बालक संस्कारवान बनते चले जायँ और प्राचीन भारत की तरह हर घर में नर रत्नों का उद्यान खिला हुआ दृष्टिगोचर हो सके जन्मजात संस्कारों के अभाव में स्कूली शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण में बहुत ही कम सहायक हो सकती है। आज कितने ही आदर्श विद्यालय, छात्रालय, एवं गुरुकुल अच्छी शिक्षा की व्यवस्था रख रहे हैं पर जन्म-जात संस्कारों के अभाव में उनमें पढ़ने वाले बालक भी वैसे नहीं बन रहें हैं जैसे कि आशा की जाती थी। इसलिए पत्तों की सफाई का ध्यान रखने से पूर्व हमें जड़ को सींचना भी नहीं भूलना चाहिये। नई पीढ़ी जन्मजात इन संस्कारों लेकर जन्म यह युग-निर्माण का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू है। इसकी पूर्ति के लिये हमें सुव्यवस्थित योजना बना कर काम करना होगा।
वर्तमान पीढ़ी जिस रज वीर्य में जन्मी है, जिस वातावरण में पली है, वह संस्कारवान न होने से हीन मानसिक दशा में बुरी तरह हैं। मानवीय स्वाभिमान कर्तव्य और दायित्व से वह अपरिचित जैसी ही देखती है, विपन्नताओं का रोना तो रोती है पर उसे बदलने के लिए जिस साहस त्याग और बलिदान की आवश्यकता है उससे दूर-दूर ही बनी रहती। तृष्णा और वासना में इतना जकड़ रही है कि मानवोचित पुरुषार्थ के लिए अवकाश, उत्साह बच नहीं पाता। जिन आदर्शों के लिये हमारे पूर्व पुरुष प्राण तक देने में आनन्द मानते थे उन्हें आज उपहासास्पद बेवकूफी समझा जाता है। मनुष्य इतना स्वार्थी, धूर्त और संकीर्ण बना हुआ है कि धर्म और सदाचार केवल गाल बजाने तक सीमित रह गये हैं व्यवहार में पशुता एवं पैशाचिकता का ही बोलबाला रहता है।
यह परिस्थितियाँ बदलने के लिये मानव अन्तःकरण को बदलने के लिये लोक शिक्षण तो आवश्यक है ही पर साथ ही यह और भी आवश्यक है कि लोक शिक्षण का आधार व्यक्तिगत जीवन एवं परिवार को आदर्शवादी साँचे में ढाला जाय। अध्यात्म, पूजा-पाठ की कहने सुनने की वस्तु न रहे वरन् उसे दैनिक जीवन में, नियमित व्यवहार में उतारने को एक अनिवार्य आवश्यकता माना जाय। ऐसे व्यक्तित्व और परिवार न केवल वर्तमान समाज को परिवर्तित करेंगे वरन् नई पीढ़ी में आदर्शवादी नर-रत्नों को जन्म दे सकने में भी समर्थ होंगे। मनस्वी और तपस्वी मनुष्यों का समाज जितना बढ़ता जायगा उतना ही इस धरती पर स्वर्ग का अवतरण होगा। उज्ज्वल व्यक्तियों से ही भव्य समाज की नव्य रचना सम्भव होगी।