Magazine - Year 1964 - Version 2
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Language: HINDI
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मधु संचय
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वह मानव क्या जो नहीं कर्म में लय हो। है व्यर्थ गिरा जो वाचा में न अभय हो, वह शक्ति व्यर्थ होती स्वीकार नहीं जो, वह व्यर्थ भक्ति करती उपकार नहीं जो, जीवन-तरु की गति है जीवन फल पाना। फल की गति शत-शत बीजों को बिखराना॥ -विद्यावती “कोकिल” श्रम की महत्ता स्वयमेव बढ़ जाती बहु, नेक-नीयती से श्रम-दान कर देने में। जीवन के पथ में अनूप श्रम सेवक है, श्रम करने से स्वाद आता है चबैने में॥ -अनूप शर्मा आपदा के अग्नि-पथ पर जो कभी रुकना न जाने, दैन्य के अभिशाप में भी जो कभी झुकना न जाने, प्रलय-झंझावात में भी भँवर में फँसना न जाने, गीतमय जीवन बनाले गीत को ही धर्म माने, गा सके संघर्ष में हँसकर सदा जो स्वर वही हैं। जो हिमालय सा, उठे जीवन धरा पर, नर वही हैं। -नर्मदा प्रसाद ‘खरे’ बरसे घर-घर में प्यार जिन्दगी मुसकाये धरती के तन पर ही श्यामल परिधान नया, हो नया-नया जग में मानवता का मन्दिर हो नई आरती पूजा का सामान नया, बीते कुहेलिका और समय के माथे से इस नए समय में बारूदी व्यवधान उठे, ले नयी भावना नये देवता के आगे- पूजा करने को नया-नया इन्सान उठे। -अमरेश तुम में साहस है, बल है, शक्ति प्राण का सम्बल है, क्यों होगी फिर हार? माझियों। रुके नहीं पतवार॥ -ब्रजेन्द्र ‘सेंगर’ है न किंचित् चाह, मेरे संकटों को दूर कर दो, जिन्दगी के शीश सुख-समृद्धि का सिंदूर भर दो। संकटों को झेलने की शक्ति का वरदान पाये, ताकि हम हँसते हुए भव-सिन्धु से उस पार गायें। -जगदीश प्रसाद खरे “अनुराणी” हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव, वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी देव। वही है रक्त वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान, वही है शाँति, वही हैं शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-समान। -जयशंकर प्रसाद असत्य भोग-वासना, असत्य सिद्धि कामना। मनुष्य सत्य त्याग है, मनुष्य सत्य भावना। रुको, झुको करो मनुष्य प्रेम की उपासना। मिली तुम्हें न यदि दया, मिली तुम्हें न भावना। विनाश है मनुष्य तब समस्त ज्ञान साधना। -भगवती चरण वर्मा धर्म का दीपक, दया का दीप, कब जलेगा, कब जलेगा विश्व में भगवान्? कब सुकोमल ज्योति से अभिषिक्त हो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण? भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम, वह रही असहाय नर की भावना निष्काम। श्रेय होगा सुष्टु विकसित मनुज का वह काल, जब नहीं होगी धरा। नर के रुधिर से लाल। श्रेय होगा धर्म का आलोक वह निर्बन्ध मनुज जोड़ेगा मनुज से जब उचित सम्बन्ध॥ - रामधारी सिंह दिनकर गायत्री की उच्चस्तरीय साधना