Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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भारतीय संस्कृति मानवता का वरदान
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विदेशों में भारत की शान अपनी गौरवपूर्ण साँस्कृतिक विशेषता के कारण है। जो आदर्श, उद्देश्य और कर्म यहाँ जन-जीवन में प्रयुक्त होते आये हैं वे अन्य देशों के रहन-सहन से सर्वथा भिन्न है। यों देखने में बाह्य दृष्टि से अंतर भले ही दिखाई न पड़ता हो किंतु आन्तरिक जीवन में जो महानतायें छिपी पड़ी हैं उनके कारण विश्व की कोई भी सभ्यता का संस्कृति उसका मुकाबला नहीं कर सकती। यहाँ कला और सत्य के सम्मिश्रण से बाह्य और आन्तरिक जीवनों का निर्माण होता है जबकि आधुनिक सभ्यता, जिसका मूल स्रोत पाश्चात्य संस्कृति है, उसकी कला में सौंदर्य तो है पर सत्य नहीं है। रूप तो है पर आत्मा नहीं है। कला जो फलाशा से संयुक्त हो उसकी सौंदर्य स्थिर नहीं होता है। सत्य ही उसका आत्मा है जिसके लिए बीच में किसी वासनात्मक प्रक्रिया के लिये कोई स्थान नहीं है।
एक बहुचर्चित विवाद चल पड़ा है कि आज के युग में रहन-सहन में, वेश-भूषा में जो अनेकों सौंदर्य प्रसाधन मिल गये हैं इसी से संस्कृति विकसित हुई है और वह आर्ष संस्कृति से कहीं अधिक निखरी हुई हैं। यह बात वे कह सकते हैं जिन्होंने भारतीयता की आत्मा का दिग्दर्शन न किया हो। कुछ गलत परम्पराओं, रूढ़िवादिताओं या काल प्रभाव से भारतीय जीवन में जो विकृति आ गई है उसके आधार पर एक तरह का निर्णय कर लेना उचित नहीं है। भारतीय संस्कृति में जो यवनों की, अंग्रेजों और पारसियों की संस्कृति का समावेश हो गया है और उससे एक अजीब ‘हिन्दुआना’ रूप बन गया है उसे प्रमाण मानकर पाश्चात्य संस्कृति को श्रेष्ठतर बताना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता।
संस्कृति कुछ सीमित रीति-रिवाजों, रहन-सहन तक ही सीमित नहीं होती वरन् धर्म, दर्शन, साहित्य, कला, समाज और व्यक्तिगत जीवन के सम्पूर्ण वृत्त का नाम संस्कृति है। सच्चे जीवन का विकास इन सब बातों से मिलकर होता है। भौतिक दृष्टि से विकसित होना, साधन या सफलताओं की बाहुल्यता प्राप्त कर लेने मात्र से यह उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। भारतीय संस्कृति का इतिहास देश और काल से भी अत्यधिक विस्तृत है। लोक-जीवन की इसमें जो व्याख्या हुई है वह अधिक अंतरंग, शक्तिवंत और पूर्णतया वैज्ञानिक है। प्रत्येक आचरण, प्रत्येक आदर्श, रीति-रिवाज, व्रत, पर्व, त्यौहार, वस्त्र, भवन, गाँव और समाज अपने आप में एक ऐसा आध्यात्मिक विश्लेषण छिपाये हुये है जिसे जानने वाला ही वस्तुतः इस संसार में मनुष्य जीवन धारण का सौभाग्य प्राप्त कर पाता है।
अब जो रहन-सहन वाली संस्कृति का नाम लिया जाता है वह न केवल एकाँगी है उसमें अनेकों बुराइयाँ है। अभाव, आसक्ति और अत्यधिक आवश्यकतायें उसकी तीन विशेषतायें हैं। इनके कारण व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में स्वार्थपरता, निर्दयता, कामुकता, छल, कपट, दम्भ, पाखण्ड और अनाचार बढ़ता हुआ जा रहा है। इस अभागी आधुनिक संस्कृति ने हमारे भारतीय जीवन में जब से प्रवेश किया है तब से यहाँ का जीवन भी बुरी तरह अस्त-व्यस्त होता चला जा रहा है। स्वेच्छाचारिता, दाम्पत्य-जीवन में छल, कपट, ढोंग, तलाक और सामाजिक जीवन में ऐसे अनेक दुर्गुणों का तेजी से विकास हो रहा है कि इन्हें देखकर आज कोई यह मानने को तैयार न होगा कि भारतवर्ष अपनी संस्कृति के कारण कभी श्रेष्ठ और शिरोमणि रहा होगा !
भारतीय संस्कृति महान् आध्यात्मिक है। यजुर्वेद के एक ही सूक्त में उसकी विशद् व्याख्या करते हुये ऋषि ने लिखा है-
“सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा”
यजु. 7। 14
अर्थात् - यह जो विश्व है वह बड़ा विशाल है और एक नियामक; अधिपति और चैतन्य देवतत्व से वह संचालित है। उस परम-तत्व को जानने के लिए जिस “संस्कार सम्पन्न जीवन-प्रणाली” की आवश्यकता पड़ती है उसे ही संस्कृति कहा जा सकता है।
प्रकृति की क्रिया शक्ति की तरह मनुष्य की एक स्वतन्त्र सत्ता भी है जो अपने प्रयत्नों से संस्कारों का निर्माण कर सकती है। यह एक सूक्त ही विस्तृत हो कर धर्म, दर्शन, सदाचार, वेश-भूषा और रीति-रिवाजों में फैल जाता है। जैसे आम के बीज ही यह विशेषता होती है कि उसका फल भी आम ही होता है, इमली के बीज से जामुन का फल प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार जो संस्कृति ईश्वरीय अंश से प्रादुर्भूत होती है वह सम्पूर्ण जीवन को एक विस्तृत दायरे में बाँधकर अन्त में फिर उसी तत्व में विलीन हो जाती है। यों कहना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का अर्थ है- महान से महानता का अभ्युदय और अन्त में उसी महानता में ही विलीन हो जाना। धर्म और जीवन इसके पर्याय हैं।
धर्म से आध्यात्मिक जीवन विकसित होता है और जीवन में समृद्धि का उदय होता है। मन, वचन और कर्म की गतिविधियों को इसी उद्देश्य से बाँध दिया जाता है। इसी से उसमें वह विशेषतायें परिलक्षित होती हैं जो किसी अन्य धर्म या संस्कृति में देखने को नहीं मिलतीं।
धर्म की आवश्यकता मनुष्य जीवन की शुद्धता के लिये है। अशुद्ध आचरण मनुष्य तब करता है जब वह अपने आप को मनुष्य की दृष्टि से देखता है। पर वस्तुतः मनुष्य का यथार्थ रूप उसकी सूक्ष्मतम आत्म-सत्ता है। अतः उसके जीवन के विविध अंगों का निर्माण भी इसी दृष्टि से होना चाहिये। धर्म यह बताता है कि हम अपने वास्तविक स्वरूप को न भूलें उसे प्राप्त करें और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हमारा जन्म हुआ है उसे सदैव अपने सामने बनाये रहें। यह दार्शनिक विशेषता किसी अन्य संस्कृति में नहीं है। लोग यह भूल जाते हैं कि वे मनुष्य से भी कुछ अधिक हैं इसी से वे लक्ष्य से भटकते हैं। शुद्ध रूप में भारतीय संस्कृति में यह भूल कहीं भी नहीं है।
इस तरह के आध्यात्मिक ज्ञान से जब प्राण और मन परिपक्व हो जाता है तो बाह्य दृष्टि से सामान्य जीवन जीते हुए भी हमारे और पाश्चात्य-संस्कृति परायण लोगों के जीवन में भारी अंतर होता है। आन्तरिक जीवन में सत्य, प्रेम, न्याय, तप, त्याग, सहिष्णुता, आत्मीयता, क्रियाशीलता, शक्ति, सामर्थ्य, विवेक और विज्ञान ओत-प्रोत रहता है जिसके कारण अज्ञान, अशक्ति और अभाव से उत्पन्न होने वाले दुःखों का अन्त हो जाता है और यहाँ के जीवन में सुख, संतोष, शाँति, उल्लास, सरसता और आनन्द छाया रहता है। संस्कृति का तीसरा क्षेत्र मानव की स्थूल या भौतिक रचनायें ही है। इनका मुख्य रूप जीवन के समस्त स्थूल साधन हैं, जिन्हें कला भी कहा जा सकता है। व्यापक दृष्टि से विचार करके देखो तो धर्म, दर्शन, साहित्य साधना, निर्माण परक प्रयत्न, समाज और राष्ट्र की व्यवस्था, वैयक्तिक जीवन के नियम और अनुशासन, कला शिल्प, स्थापत्य, संगीत, नृत्य, वाद्य, सौंदर्य रचना के अनेक विधान तथा उपकरण- यह सब उसी संस्कृति के अर्थ में आ जाते है। यह उससे अलग नहीं हैं पर पाश्चात्य संस्कृति की तरह यह मनुष्य जीवन का पूरक अंश है। धर्म और दर्शन, जीवन और उसका तात्विक स्वरूप यह उसकी प्रमुख स्थिति है। यह न रहे तो दूसरी आवश्यकताओं का महत्व गिर जायगा। जो वस्तुयें सुख-प्राप्ति के लिए निश्चित की गई थीं उन्हीं से उलटे परिणाम उत्पन्न होने की आशंका बढ़ जाती है, जैसा कि इन दिनों दिखाई दे रहा है।
संस्कृति का निर्माण या व्याख्या करते समय यह आवश्यक है कि गुणों का ही आग्रह किया जाय। गुणों को ही आदर्श कहते हैं। आदर्श ही धर्म है यदि वह सत्य से प्रतिष्ठित है। सत्य सम्मिश्रित धर्म ही विश्व का सर्वोपरि नियम है। इस दृष्टि से संस्कृति को जीवन की सम्पूर्ण व्यवस्था का पर्याय कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में यही विशेषता पाई जाती है। संसार का जो सत्य है, सौंदर्य है और लक्ष्य है उसे मन, वचन और कर्म द्वारा एकीकरण करना ही संस्कृति का उद्देश्य है। जो इसमें जितना अधिक सफल होगी वही संस्कृति सर्वमान्य और प्रामाणिक कही जाएगी। इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वोपरि है। इसी के कारण उसकी अपनी एक अनोखी शान है।