Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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चरित्र बल बढ़े तो राष्ट्र ऊँचा उठे
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सदियों की गुलामी की जंजीरें तोड़कर हम स्वतन्त्र हुए हैं। स्वतन्त्रता का लाभ तभी है, जब हम प्रत्येक दिशा में विकास की समुचित व्यवस्था जुटावें। प्रसन्नता की बात है कि उस दिशा में कुछ प्रयत्न भी हो रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि औद्योगिक विकास से खूब अच्छी-अच्छी वस्तुओं के उत्पादन की व्यवस्था होने लगे, कृषि में विकास हो, उपज बढ़े, स्वास्थ्य और आरोग्य के साधन बढ़ें, वैज्ञानिक शोधों में हिस्सा लें। साथ ही एक बात इनसे भी आवश्यक है और वह है राष्ट्र के चरित्र का विकास। भौतिक समृद्धि के साथ नैतिकता का अवगाहन न किया गया, तो वह स्थिति हमारे लिये विनाश का कारण बन सकती है।
चरित्र-बल मानवीय शक्ति का मूलाधार है। पारस्परिक सहयोग द्वारा उद्वेगों को आगे बढ़ाना और अर्थ-व्यवस्था को सुधारना समाज सुधार के एक अधिक आवश्यक अंग की पूर्ति करना है। समाज का वास्तविक उत्थान तभी हो सकता है, जब जन-जन में कर्त्तव्य परायणता, धार्मिक सहिष्णुता, सच्चाई और सच्चरित्रता की भावनाओं का भरपूर समावेश हो जाय। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि लोग स्वयं का संयम करना सीखें। बढ़ी हुई शक्तियों को सीधे-से पचा ले जाना यह संयम से ही संभव हैं। केवल साधनों की तृष्णा बढ़ती रहे और गुण विकास न हो तो उन्नति का मूल उद्देश्य नष्ट होकर दुर्भावनाओं का विकास होने लगेगा। साधन होंगे पर लोग सुखी न होंगे।
गीताकार ने अपना यह कठोर निर्णय दिया है कि सुखाकाँक्षी का जीवन शुद्ध और उसका प्रत्येक कर्म यज्ञीय भावना के साथ होना चाहिए। स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी पर्याप्त होना आवश्यक है। मनुष्य सदा समाज का ऋणी रहता है। जन्म से ही अगणित ऋणों का देनदार है। परमार्थ ऋण चुकाने की भावना को कहते हैं। मनुष्य के हित की दृष्टि से उसके सामाजिक जीवन में परमार्थ का आयोजन बना रहे, तो उसमें सबका कल्याण रहता है। यह अपेक्षाकृत अधिक सरल मार्ग है, जिसमें मनुष्य स्वल्प साधनों में भी विपुल सुख प्राप्त कर लेता है। सामाजिक जिम्मेदारी पूरी न करने का नाम है- कामचोरी। कर्त्तव्य से परामुख होना निठल्लापन और बेईमानी हैं। राष्ट्र की समृद्धि में भरपूर श्रम और पुरुषार्थ में परमार्थ की भावना प्रमुख रूप से बनी रहनी चाहिए।
लोग कहते हैं-बड़ा दुर्भाग्य है, रोटी नहीं मिलती, कपड़ा नहीं मिलता, जरूरतें पूरी नहीं होतीं, बड़ी असमानता है, यह नहीं होता, वह नहीं होता। कुछ हद तक संभव है ऐसा भी हो किन्तु अधिकाँश कमी यह है कि लोग अपना दोष स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। संघर्ष यह है कि जरूरतें आवश्यकता से अधिक बढ़ गई हैं। अनैतिकता पर कोई नियन्त्रण नहीं है। मन स्वतन्त्र है, इन्द्रियाँ स्वतन्त्र है। कामनाओं के दल-बल स्वच्छ विवरण कर रहे हैं, संयम मूलक प्रवृत्तियों के नष्ट हो जाने के कारण ही यह अभाव घिरे हैं अन्यथा न तो उत्पादन कम हुआ है न जरूरत की चीजें कम पड़ी हैं। सब कुछ पहले से अधिक है पर क्या करें लोगों की भूख इतनी बढ़े हुए साधनों से भी काम्य प्रयोजन पूरे नहीं हो पा रहे। इस देश में आत्मदर्शी ऋषियों की परम्परायें चलती आई हैं। आरम्भ, परिग्रह और भोग से दूर रहकर उन्होंने जो सत्य पाया, समाधान पाया, सुख और शान्ति का अनुभव पाया, उसी को यहाँ के जन-जीवन में उतारा है। उसका सम्पूर्ण सार है-चरित्र बल। चरित्र में ही सुखी जीवन के सारे रहस्य छिपे हुये हैं। चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदंड है।
एक ओर मनुष्य के साथ स्वार्थ भावना है, तो दूसरी ओर उसका जिन-जिन के साथ सम्बन्ध आता है, उनके प्रति कर्त्तव्य भी है। कर्त्तव्य बुद्धि द्वारा स्वार्थ का नियन्त्रण होना चाहिये। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि दूसरा कोई उसके साथ छल-कपट का व्यवहार न करे, झूठ न बोले, धोखा न दे, सताये नहीं, दबाने की चेष्टा न करे! ऐसी अवस्था में उसका भी यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह भी मन, वचन और क्रिया द्वारा सच्चाई का ही प्रदर्शन करे। हमारे अन्तःकरण की वृत्तियाँ सत्यमय हो जाती हैं, व्यवहार शुद्ध हो जाता है, तो उसमें औरों का भला तो होता ही हैं खुद अपना बहुत भला होता है। ईमानदारी और सच्चाई में सबका फायदा है, व्यावहारिक जीवन में यह बात कभी नहीं भूलना चाहिये।
जो नीतियाँ उन्नत समाज के लिये कही जाती हैं, वे चरित्र के अंतर्गत ही आ जाती हैं। नेकी, ईमानदारी, व्यवहार शुद्धि, सत्य, सहयोग और सहानुभूति, यह सब उसके अंग हैं। भारतीय जीवन में जब तक यह श्रेष्ठता विद्यमान रही, तब तक यह देश प्रत्येक क्षेत्र में संसार-भर का मुखिया बना रहा, किन्तु पिछले दिनों यहाँ कई संस्कृतियों ने प्रभाव डाला, कई तरह के शासक वर्ग आये और उन्होंने यहाँ की जीवन गति को ही अशुद्ध बना डाला। जो सिद्धान्त मानवता के विपरीत पड़ते हैं, पश्चिमी-सभ्यता के प्रभाव से वह अधिक तेजी से विकसित हुये। धन-दौलत को अधिक महत्व दिया गया, जिससे अर्थ यहाँ के आकर्षण का मूल बिन्दु बन गया। इस गलत दृष्टिकोण के कारण अनेक समाज-विरोधी कुप्रवृत्तियाँ पनप उठीं। भ्रष्टाचार की इन दिनों व्यापक चर्चा हो रही हैं। सरकारी मशीनरी उसे रोकने के लिए लगी भी हुई है, किन्तु उसके सुधार की कोई सम्भावना नजर नहीं आती। प्रश्न यह बन गया है कि जो रक्षक है या जिसके हाथ में उत्तरदायित्व है वही भ्रष्ट हो गये हैं। ऐसी दशा में नैतिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रह गया है, इसीलिए विकास के अनेक साधन जुटाने पर भी मूल समस्या ज्यों कि त्यों उलझी हुई है। समाज के संतुलन और उसकी सुव्यवस्था का आधार व्यक्ति-निर्माण है। व्यक्ति-व्यक्ति से ही समाज बनता हैं। जिस समाज के लोग परिश्रमी, ईमानदार, सत्यनिष्ठ एवं आदर्श प्रिय होंगे, वह अपने आप उत्तरोत्तर उन्नत होता चला जायगा और राष्ट्र के विकास का वातावरण निखरता हुआ चला आयेगा।
पीछे जो हमें सिखाया गया है, वह हितकर नहीं है। पारस्परिक मत-भेद, ईर्ष्या-द्वेष, फूट कलह का तन्तु जाल हमारा अपना बनाया नहीं है। परिस्थितियों के विक्षेप और विदेशी सत्ता के कारण ऐसा करने को हम मजबूर हुये हैं। आज बात बात पर भाषावाद, जाति-भेज, पदलोलुपता, प्रान्तवाद के नाम लोग लड़ने-झगड़ने लगते हैं, क्या इससे संगठन शक्ति अक्षुण्ण रह सकती है? क्या इससे कोई विकास की समस्या हल हो सकती है? राष्ट्र का जीवन व्यक्तियों के जीवन से विनिर्मित होता है। राष्ट्र की गरिमा में व्यक्तियों का आत्म-बल, मनोबल और शरीर बल गिना जाता है, पर यह तभी संभव है जब राष्ट्र के नागरिक चरित्रवान और आत्मजयी हों। राष्ट्र को धन या रुपया, पैसा ऊँचा नहीं उठाता, वहाँ के नागरिकों की चरित्रनिष्ठा में वह शक्ति होती है, जो उसके गौरव को ऊँचा उठाती है, शिरोमणि बनाती हैं।