Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सामूहिक धर्मानुष्ठानों का बल
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
एकाकीपन की अपेक्षा सामूहिकता में अधिक बल है। लोहे की लम्बी शहतीर को एक व्यक्ति उठाना चाहे तो नहीं उठा सकता। अनेक आदमी मिलकर बड़े-बड़े पहाड़ उठा देते हैं, नदियों में बाँध बना देते हैं। बड़ी-बड़ी शक्तियों को भी कुचल देने की क्षमता केवल सामूहिकता में है। एक से चार का बल बड़ा होना ही चाहिये।
प्रार्थना के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। आत्म कल्याण के लिये की गई करुण पुकार पर परमात्मा द्रवित होता है, किन्तु जब इस पुकार में सैकड़ों मनुष्यों का करुण स्वर समा जाता है तो अनन्त गुनी शक्ति प्रादुर्भूत होती है। सामूहिकता की प्रतीक दुर्गा-शक्ति का भी यही रहस्य है कि परमात्मा एक की अपेक्षा अनेकों की पुकार पर अधिक ध्यान देते हैं। सामूहिकता का प्रभाव तात्कालिक होता है।
सुख में, दुःख में, मंगल में, संकट में मिलजुल कर देवताओं का आवाहन करना, उनके पूजन आराधन का विधान, स्तवन और कीर्तन के विविध धर्मानुष्ठानों का वर्णन शास्त्रों में आया है। वैदिक काल के ऋषि-महर्षि और सर्व साधारण जन मिलकर सामूहिक प्रार्थना किया करते थे। यज्ञों पर सामूहिक तौर पर विशेष स्वर-तालों द्वारा अनेकों प्रयोजनों की सद्यः सिद्धि के उदाहरण धर्म ग्रन्थों में पाये जाते हैं। ईश्वराँशों के अवतार सामूहिक प्रार्थनाओं के प्रभाव से हुये हैं। अभावों की पूर्ति, मनोरथों की सिद्धि के लिये, अपने विघ्नों को निवारण करने के लिये, बाधा-विपत्तियों को दूर भगाने के लिये जो प्रभाव मिल-जुलकर की गई प्रार्थना से होता है, वह अकेले से नहीं बन पाता।
श्रुति का आदेश है ‘सहस्रं साकमर्चत’ ‘है पुरुषों सहस्रों मिलकर देवार्चन करो।’ ऋग्वेद संसार की सबसे प्राचीनतम रचना है उसमें जो सूत्र व्यक्त हुये हैं। सामगान की ऋचायें भी सामूहिक रूप से ही गाई गई हैं।
सन्त मैकेरियस ने लिखा है कि “तुम अकेले गाओगे तो तुम्हारी आवाज थोड़ी दूर तक जाकर नष्ट हो जायगी-मिलकर प्रार्थना करोगे तो उसका नाद प्रत्येक दिशा में व्याप्त होगा।” प्रार्थना करने का वैज्ञानिक रहस्य यह है कि हमारे पास उतनी सामर्थ्य नहीं है जितने से बाधाओं का विमोचन कर सकें, इसलिये अनन्त शक्तिशाली परमात्मा से शक्ति-तत्व खींचकर हम सफलता की कामना करते है। आवाज जितने अधिक लोगों की होगी उतनी ही बुलन्द होगी, प्रार्थना में जितने अधिक व्यक्तियों का भावपूर्ण स्वर सम्मिलित होगा उतनी ही अधिक बड़ी शक्ति प्रादुर्भूत होगी। महात्मा गाँधीजी कहा करते थे जब तक एकता स्थापित न कर लें, तब तक प्रार्थना, उपवास, जप-तप आदि निर्जीव से हैं। शास्त्रकार का भी कथन है-
बहूनामल्य साराणाँ समवायो हि दुर्जयः।
तृणैरावेष्ट्यते रज्जुः बध्यन्ते तेन दन्तिनः॥
“क्षुद्र और कमजोर आदमियों की सामूहिकता भी अजेय बन जाती है। कमजोर तिनकों से बनायी गई रस्सी परस्पर मिल जाने के कारण इतनी मजबूत हो जाती है कि उससे हाथी भी बँधा रहता है।”
वेद भगवान ने भी मनुष्यों को एक होकर प्रार्थना करने का आदेश दिया है। सम्पूर्ण मानव समाज एक दूसरे से इस तरह सम्बद्ध है कि अपने स्वार्थ को सर्वोपरि समझ कर सबके हित की भावना का तिरस्कार नहीं किया जा सकता। जब-जब मनुष्य का यह ओछापन ऊपर आया है तब-तब मानवता की बड़ी हानि हुई। स्वार्थ से समाज में जड़ता, निकृष्टता और असंतोष फैलता है इसलिये वेद ने ऐसी प्रार्थना सिखाई है-धियो योनः प्रचोदयात्” अर्थात्- “हे भगवान् हमारी बुद्धियों को आप सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।’ सामूहिकता का यह गायत्री स्वर इतना शक्तिशाली है कि यदि इसे लोग अपने अन्तःकरण की आवाज बना लें तो इस धरती पर स्वर्ग का अवतरण होने में जरा भी देर न लगे। हमारे पूर्वज पुरुष समुदाय में बैठकर, समूह के समूह सम्मिलित होकर बड़ी भारी संख्या में, बड़े समारोह से ईश्वर की आराधना किया करते थे।
इस समुदाय भावना का- वैज्ञानिक प्रभाव तो होता ही था व्यवहारिक जीवन में भी स्वच्छता आती थी। लोग हिल-मिलकर काम करने में सुख अनुभव करते थे। पारस्परिक स्नेह, प्रेम, सौजन्य, सौहार्द और आत्मीयता का परिष्कार होता था। लोगों के हृदय कमल की तरह खिले होते थे। स्वार्थ की संकीर्णता फैलने न पाती थी। यदि कोई इन सामाजिक नियमों की अवहेलना करता था तो उसे बहुमत का विरोध सहन करना पड़ता था। इस भय से लोग अनुचित कदम उठाने का कभी साहस तक नहीं करते थे।
आपस में एक साथ बैठ कर प्रार्थना करने से आत्माओं का सम्मिलन होता है, इससे अन्याय के कारणों का निवारण होता है और मंगल भावनायें जागती हैं। काम करने की भावना पैदा होती है। उमंग आती है, उत्साह बढ़ता है, स्फूर्ति जागृत होती है। इससे सुख और संतोष के सत्परिणाम सभी ओर दिखाई देने लगते हैं।
ब्राह्मण-ग्रन्थों में ऐसे आख्यान हैं जिनसे उस समय के लोगों की निश्चयात्मक बुद्धि का पता चलता है। वे लोग अपने परिणामों की पूर्व घोषणा बड़ी दृढ़ता के साथ करते थे, इसके बाद अपने आराध्य देवता का यजन स्थान में आवाहन, विहित कर्मों का संचालन करते थे। वे ऐसा निश्चय कर लेते थे कि अमुक कार्य पूरा होना ही है तो ऐसा ही होता था। इस बात का गहन अनुसन्धान करते हैं- तो यह पता चलता है कि ब्राह्मणों का सामूहिक तौर पर इन शक्तियों के साथ बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन ग्रन्थों का यह मत है कि देवता सामूहिक रूप से, सबके कल्याण की इच्छा करते हैं, एक व्यक्ति के हित के लिये अनेकों के हितों का मर्दन उनके लिये प्रिय नहीं होता- यह बात हमारे ग्रन्थों में दी गई है। सम्भवतः इसीलिये हमारी संस्कृति में ही सर्वप्रथम सामूहिक उपासना का प्रचलन हुआ है।
सामूहिक यज्ञ और धर्मानुष्ठान लोगों की उदार-वृत्ति को लगाये रखने के लिये उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी हैं। क्योंकि इनमें व्यक्ति का साँसारिकता की ओर लगा हुआ धन एक झटके के साथ खिंचता है और उसे अपने तात्विक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिये विवश होना ही पड़ता है। साधारण तौर पर सबमें ऐसी बुद्धि नहीं होती कि वे आत्म-ज्ञान की ओर स्वेच्छा से उन्मुख हो सकें। उनमें भी शुभ-संस्कार और ज्ञान के बीज बोने के लिये सामूहिक आयोजनों का प्रचलन पूर्ण मनोवैज्ञानिक है। इससे मनुष्यों की धर्म-चेतना प्रवाहमान बनी रहती है।
प्रार्थना-काल की सूक्ष्म प्राण प्रक्रिया से वे लोग भी प्रभावित होते हैं जो केवल दर्शन मात्र की आकाँक्षा से एकत्रित हुये होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सामूहिक प्रार्थनाओं की प्रतिक्रिया उतने ही क्षेत्र में क्रियाशील नहीं रहती वरन् वह एक ऐसा वातावरण विनिर्मित करती है जो दूर-दूर तक के मनुष्यों, पशुओं, जीवधारियों तथा वृक्ष-वनस्पति और अन्न को भी शुद्ध, सात्त्विक और ओजस्वी बनाती है। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मिक दृष्टि से लोगों को बलवान बनाने का यह सबसे कारगर तरीका है। सामूहिक आयोजनों से निश्चय ही शक्ति संवर्द्धन होता है।
देव-शक्तियों के साथ ऋषियों के गहन सम्बन्ध को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जो वस्तु चैतन्य है, शक्ति रूप, सामर्थ्य सहित है, स्वतंत्र और निर्बाध है, यह हो नहीं सकता कि सच्ची उपासना से किसी न किसी प्रकार से उसका पावन प्रकाश अवतरित न हो। अनेकों उदाहरण ऐसे सामने आ चुके हैं, जब इस युग में भी सामूहिक प्रार्थनाओं के सत्परिणाम देखने को मिले हैं। आज के समूहवादी युग में एकता और साम्य-भावना का विस्तार करने के लिये ऐसे आयोजनों का निःसन्देह बहुत अधिक लाभ हो सकता है।
प्रार्थना मनुष्य जीवन का प्रकाश है, इसमें जब अधिक जन शक्ति लग जाती है तो वह प्रकाश और भी प्रकीर्ण हो उठता है। धरती पर स्वर्ग का विस्तार करने और परमात्मा के साथ स्वात्मा का सच्चा सम्बन्ध जोड़ने का सबसे सरल, सुलभ और सुगम साधन है- सामूहिक प्रार्थना। हमें इन आयोजनों और धर्मानुष्ठानों को भुलाना नहीं है। इनसे आत्मा विस्तीर्ण होती है और लोगों को सन्मार्ग की प्रेरणा मिलती है।