Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
महाजनों येन गतः स पन्था
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इतिहास, भूगोल, नागरिक-शास्त्र, अर्थ-शास्त्र, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, स्वास्थ्य विज्ञान, साहित्य, कला आदि अनेकों विषय मनुष्य के बौद्धिक-विकास और व्यापार-जगत की क्रियाओं में प्रतिष्ठा की दृष्टि से उपयोगी माने जा सकते हैं। इनसे भी एक अंश तक आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति में सहायता मिलती है। किन्तु जीवन-कला की जानकारी के अभाव में मनुष्य को भौतिक सम्पन्नता किसी प्रकार भी सुख नहीं दे पाती है। तरह-तरह के आहार सामने रखे हों और पेट खराब हो तो पाक-शास्त्र का क्या महत्व? घर में विपुल सम्पत्ति भरी हो और लोगों में पारस्परिक सौहार्द प्रेम और विश्वास न हो, तो बेचारा अर्थ-शास्त्र कितना सुख देगा? समाज घृणित और गन्दे विचारों से भर रहा हो तो हम नागरिक-शास्त्र के सिद्धान्तों का ढोल पीटते रहने पर व्यवस्था को स्थिर बनाये न रख सकेंगे। जीवन जीने की कला ही वह समग्र विद्या है, जिसके द्वारा लोग निर्धनता और अभाव में भी सुखपूर्वक जीवन जीते हुए अपना लक्ष्य पूरा कर लेते हैं। अतः सर्वोपरि विद्या ‘जीवन कला’ ही है।
यह विद्या महापुरुषों की जीवनियों से उपलब्ध होती है। भारतीय धर्म के आचार्यों ने इस बात पर सदैव जोर दिया है कि मनुष्य का निज का अंश बहुत स्वल्प होता है, विवेक बुद्धि की कमी के कारण भी जीवन-पथ निर्धारित करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए किसी आदर्श पुरुष को अपने सिद्धान्तों का प्रतीक मानकर जीवन जीने में सुविधा सरलता और गतिशीलता बनी रहती है। पग-पग पर आने वाली विघ्न-बाधाओं का हल महापुरुषों के जीवन से मिलता है। इस सम्बन्ध में महाभारतकार का मत हैं-
वेदाभिभिन्ना, स्मृतयाभिभिन्ना,
नासौमुनिर्यस्य यस्य मतम न भिन्नम्।
धर्मस्य तत्त्वम निहितं गुहायाम,
महाजनों येन गतः स पन्था ॥
अर्थात्-मनुष्य उस रास्ते पर चले जो वेद सम्मत हो, स्मृति जिसका आदेश देती, जो ऋषियों, मुनियों द्वारा प्रदर्शित किया गया हो। जिस पथ पर महापुरुष चले हैं मनुष्यों को उसी धर्म-पथ पर चलना चाहिए।”
प्राचीनकाल में गुरुकुल की शिक्षा समाप्त कर लेने के बाद जो दीक्षान्त समारोह हुआ करते थे उसमें आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे-
“अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात। ये तत्र ब्राह्मणः सम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तत्र वर्त्तेरन। तथा तत्र वर्तेथाः। अथाभ्याख्यातेषु। ये तत्र ब्राह्मणाःसम्मर्शिनः। युक्ता आयुक्ताः। अलक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा तेषु वर्तेंथाः। एष आदेशः। एव उपदेशः। एषा वेदोपनिषत्। एवमुपासितव्यम्। एवमुचैतदुपास्यम्।
अर्थात्-कर्त्तव्य-निश्चय अथवा सदाचार के सम्बन्ध में तुम्हें जब कभी शंका उत्पन्न हो तो समाज में जो विद्वान परामर्शशील, सत्कर्मशील, धर्माभिलाषी, पवित्रात्मा श्रेष्ठ पुरुष हों, वे कर्मों में जैसा आचरण करते हों, तुम भी वैसा ही करना। यदि किसी दोष से दूषित मनुष्य के साथ व्यवहार करने में सन्देह हो तो समाज में जो विद्वान, परामर्श देने में कुशल सत्कर्मशील, पवित्रात्मा, धर्माभिलाषी श्रेष्ठ पुरुष हों, वे जैसा व्यवहार करते हों तुम्हें भी वैसा ही करना चाहिए। यही शास्त्राज्ञा है, यही वेदों का रहस्य है, यही उपदेश और परम्परागत शिक्षा है, तुम्हारा अनुष्ठान भी इसी प्रकार का हो।”
कर्त्तव्य पालन करते हुए जीवन जीने की ही आर्ष परम्परा रही है। अपनी बुराइयों, कमजोरियों और पापों का संशोधन करते हुए गृहस्थ जीवन में भी उच्च आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। श्रेष्ठ संस्कारों का उदय सामाजिक जीवन में रहकर ही किया जा सकता है। यही मार्ग सुविधाजनक और सरलतापूर्वक पार कर सकने के योग्य है।
किन्तु सामाजिक जीवन में भी आज अनेकों बुराइयाँ आ गई हैं। लोग धन, पद और वाक्पटुता को ही प्रतिष्ठा का आधार मानते हैं। इनके लिए आज चारों ओर दौड़-धूप और प्रतिद्वन्द्विता चल रही है। अनीतिपूर्वक धन कमाने मैं लोग बड़े चतुर बनते हैं, पद प्राप्ति के लिए अनुचित मार्ग अपनाने से भी चूकते नहीं। इनसे अहंकार, ईर्ष्या द्वेष, कलह, कटुता, संघर्ष, प्रतिशोध जैसी कितनी बुराइयां आज जन-मानस में प्रवेश कर गई हैं। लोग सभी तरफ दुःख, कष्ट और परेशानियाँ अनुभव करते दिखाई देते हैं।
प्रतिष्ठा का आधार मनुष्य की आन्तरिक श्रेष्ठता है। जो निर्धन रहकर भी दूसरों की सेवा करने में अपना गौरव अनुभव करते हैं, प्रतिष्ठा उन्हें ही मिलती है। सन्त तुकाराम के पास कोई बड़ा खजाना नहीं था, महात्मा गान्धी जी कोई वायसराय नहीं थे, फिर भी समाज ने उनकी कितनी प्रतिष्ठा की है यह सर्वविदित है। गुण, कर्म और स्वभाव की श्रेष्ठता के अनुरूप ही मनुष्यों को सम्मान मिलता है, यह शिक्षा हमें महापुरुषों के जीवन से मिलती है।
ऋषियों का आदेश है ‘घृणा पापी से नहीं, पाप से करो”। यथार्थ में पापी कोई मनुष्य नहीं होता वरन् पाप मनुष्य की एक अवस्था है। इसलिए यदि संशोधन करना हो तो पाप का ही करना चाहिए। अपराधी को यदि दंड देना हो तो उसे सुधारने के लिए ही दिया जाना चाहिए। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज की प्रत्येक अवस्था का उस पर प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए किसी को घृणापूर्वक बहिष्कृत कर देने से समस्या का समाधान नहीं होता, वरन् बुराई का शोधन करके, अच्छे व्यक्तियों का निर्माण करने से ही उस अवस्था का नाश किया जा सकता है, जो घृणित हैं, हेय हैं और जिससे सामाजिक जीवन में विष पैदा होता है।
अपराध मानवीय अज्ञान के कारण होते हैं, इसीलिए आत्मज्ञान की आवश्यकता अत्यधिक है। अपने अन्तःकरण की पवित्रता जागृत कर लेने से मानव मात्र के प्रति समता का भाव उत्पन्न होता है इसलिए बाह्य बनावट और कृत्रिमता की अपेक्षा आन्तरिक संशोधन के द्वारा जब हम अपने विकारों को दूर कर लेते हैं, तो दोष-दर्शन का भाव समाप्त हो जाता है। नानक का वचन है- “अन्तर तीरथ नानका, सोधत नाहीं मूढ।” अर्थात् साँसारिक अज्ञान को अपने आत्म-विकास द्वारा दूर करें, जो ऐसा नहीं करते वे मूढ़ हैं।
स्वात्माभिमान की रक्षा का पाठ भी हम महापुरुषों के जीवन में पढ़ते हैं। आत्म-हीनता पतन की पहली सीढ़ी है। सच पूछा जाय तो मनुष्य की प्रतिष्ठा पर आक्षेप तब आता है, जब वह भय या स्वार्थ वश अपने को तुच्छ बना लेता हैं। मनुष्य अनैतिक कर्मों के द्वारा अपना सम्मान खो देते है इसलिए अपने कर्मों में सदैव कड़ाई का रुख और विचारों में स्वात्माभिमान बनाये रखने से आत्मा के हितों की रक्षा होती है। विचारों से पतित हुये मनुष्यों को दुष्कर्मों के जाल में फँसते देर न लगेगी। चारों ओर से निराशायें ही उन्हें घेरे रहती हैं, जिनके विचार घृणित, तुच्छ एवं संकीर्ण होते हैं।
सत्पुरुष कष्ट सहकर भी अपने आत्माभिमान की रक्षा करते हैं। इसके लिए वे कोई संबल-आधार ढूंढ़ते हैं। यह आधार अपने निर्मल चरित्र की गरिमा ही हो सकती है। बाह्य साधन बहुत थोड़ी सहायता दे सकते है, अधिकाँश सफलता तो स्वावलम्बन से ही मिलती है। इसलिये दूसरों के भरोसे रहने की अपेक्षा यह श्रेष्ठतर है कि अपनी शक्तियों को जागृत करें और स्वावलम्बन का आश्रय लें।
गुण ग्राहकता, सही क्रिया पद्धति, आत्म- शक्तियों का उपयोग, यह सभी महा मानवों की जीवनियों में देखने को मिलता है। जो भी मनुष्य इन नैतिक सद्गुणों का विकास अपने जीवन में करने का प्रयास करते हैं, उनकी महानता दिन-दिन प्रस्फुटित होती रहती है। उनके जीवन में अनेकों प्रकार के अभाव होते हुये सुख, सौंदर्य शान्ति और सफलता के दृश्य दिखाई देते रहते हैं। इससे पता चलता है कि जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये गुण, कर्म और स्वभाव के परिष्कार की आवश्यकता सर्वप्रथम है। यह शिक्षा, यह आदर्श महापुरुषों के जीवन से मिलता है इसलिए राह वह चलें जिस पर महापुरुष चलें हैं। इसी में मानव जाति का उत्थान और कल्याण सन्निहित है।