Magazine - Year 1966 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आप वृद्धावस्था से सदा बचे रह सकते हैं।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जिसे हम सब सामान्यतः वृद्धावस्था कहते हैं, वह वस्तुतः जीवन-विकास की चरम-विधि होती है। आयु की बढ़ोतरी को ही बुढ़ापा नहीं कहा जा सकता। यदि बुढ़ापा आयु-वृद्धि पर ही निर्भर होता तो निश्चय ही संसार का कोई भी व्यक्ति एक निश्चित आयु के बाद बेकार हो जाता और एक निश्चित आयु तक पूर्ण रूप से कार्यक्षम बना रहता। किन्तु सामान्यतः ऐसा देखने में नहीं आता।
संसार में सैकड़ों-हजारों ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जो तीस चालीस वर्ष की तरुण आयु में ही थक जाते हैं और आगे की आयु को टूटे पहिये वाली गाड़ी की तरह ढकेलते नजर जाते हैं, जबकि सैकड़ों-हजारों व्यक्ति ऐसे देखे जा सकते हैं, जो साठ और सत्तर वर्ष की पक्की आयु में भी क्षिप्रता से भरे रहते हैं और उनका काम देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह लोग आगे भी इसी प्रकार जीवन पूर्ण जिन्दगी चलाते रह सकते हैं। इस प्रकार के उदाहरणों को देखकर इस विश्वास में शंका की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि बुढ़ापे का आयु की बढ़ोतरी से कोई सम्बन्ध नहीं है। आयु-वृद्धि मनुष्य जीवन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, कोई परिणाम नहीं। आयु तो जन्म के दिन से लेकर मृत्यु तक निरन्तर क्षण-प्रति-क्षण बढ़ती ही रहती है। आयु की अग्रता तथा वृद्धता दोनों एक बात नहीं है, आयु का बढ़ना एक बात है और बुढ़ापा दूसरी बात है। इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि आयु का बढ़ना एक गति है और वृद्धता एक स्थिति है। वैज्ञानिकों का मत है कि यदि मनुष्य मानव-जीवन की साधारण शर्तों को पूरा करता हुआ उस प्रकार जीवन-यापन करता चले, जिस प्रकार उसे करना चाहिए तो न केवल तरुणता ही बनी रहे, बल्कि जीवन की अवधि भी लम्बी हो जाये। प्रकृति के जीवन-विधान के अनुसार शरीर को यथाविधि उपयोग में लाने वाला व्यक्ति बुढ़ापे का शिकार नहीं बन सकता, फिर चाहे वह सौ साल से अधिक क्यों न जिये। आज भी संसार में न जाने शतायु और अधिकायु वाले कितने व्यक्ति मौजूद हैं, जिनमें बुढ़ापे का कोई चिन्ह नहीं पाया जाता। पूर्व काल में तो यह एक सामान्य बात रही है। आयु-वृद्धि ही वास्तविक बुढ़ापे का कारण नहीं होती, बुढ़ापे का कारण जीवन की वे भूलें ही होती हैं, जिन्हें मनुष्य असावधानी, उपेक्षा, स्वभाव, अज्ञान अथवा संस्कारों वश जाने-अनजाने किया करता है। बुढ़ापा आयु की नहीं, जीवन के लिये असंगत भूलों की परिणति होती है। जीवन को ठीक-ठीक जीवन की तरह जीने वाले बुढ़ापे की सम्भावना से बहुत कुछ मुक्त रहते हैं।
बुढ़ापे के सम्बन्ध में मनुष्य की एक नहीं, दो आयु होती हैं। एक दैहिक तथा एक मनोवैज्ञानिक। यद्यपि यह दोनों आयु सापेक्ष हैं, तब भी इनका एक स्वतन्त्र अस्तित्व भी है। दैहिक आयु तो एक अवधि के बाद ही समाप्त होती है, किन्तु मानसिक आयु में परिवर्तन आता रहता है। अनेक लोग जीवन में अनेक बार मानसिक रूप से मरते-जीते रहते हैं। यही नहीं, मनःस्थिति के अनुसार, देह से अलग भी बूढ़े, जवान होते रहते हैं। संसार में ऐसे न जाने कितने लोग पाये जा सकते हैं, जिनके शरीर में बुढ़ापे का कोई लक्षण न होने पर भी मन से बूढ़े हो चुके होते हैं। वृद्धों की तरह ही वे निराशा, हतोत्साह तथा निष्क्रियता के शिकार बने रहते हैं। उन्हें जीवन से उस प्रकार की कोई रुचि नहीं रहती, जो एक तरुण में होती हैं, जो आयु से, बालों से तथा अन्य इन्द्रियों से वृद्धता की सूचना देते हुए भी मन से बालकों की तरह प्रफुल्ल और नौजवानों की तरह रुचिपूर्ण बने रहते हैं। किन्तु मनुष्य का वास्तविक जीवन तथा वाँछनीय जीवन्तता इन दोनों संस्थाओं के समान रूप से स्वस्थ एवं सम्मिलित रहने से ही पूर्ण होती हैं। शरीर तथा मन दोनों से तरुण बने रहने से ही मनुष्य आयु की बढ़ोतरी पर विजय पाकर चिर-तरुण तथा सक्षम बना रह सकता है और उभय-उपलब्धि तभी सम्भव है, जब मनुष्य जीवन के विधि-विधान का पूरा पालन करे।
बुढ़ापे के कारणों तथा उसके प्रतिरोध के उपाय खोजने में व्यस्त वैज्ञानिकों का मत है कि यद्यपि आयु के बढ़ने पर मानव शरीर की नियामक प्रणालियों की क्रिया-प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया में कुछ परिवर्तन अवश्य आ जाता है, किन्तु उनकी शक्ति नष्ट नहीं होती। जैसे बढ़ी आयु में हृदय, रक्त-वाहिकाओं तथा अवयवों एवं ग्रन्थियों की सामान्य सम्वेदना शीलता कम हो जाती है, किन्तु साथ ही उनमें रासायिनिकता के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाया करती है, जिससे जहाँ उनका काम कम हो जाता है, वहाँ उनकी आवश्यकता भी कम हो जाती है, वे जीवन की सामान्य सक्रियता के लिये कम आयु की अपेक्षा कम से कम तत्व में सन्तुष्ट होने लगती हैं। इसका ठीक-ठीक अर्थ यही है एक अवधि के बाद प्रकृति कुछ अवयवों तथा इन्द्रियों को अपना काम कर देने का संकेत देती है और उसी के अनुसार वह उनको कम भोजन में जीवित तथा प्राणपूर्ण बना रहने की क्षमता भी दे देती है। अब जो व्यक्ति प्रकृति के इस विधान की उपेक्षा करके निवृत्त अवयवों को जबरदस्ती काम में लगाये और अधिक तत्वों के बल पर उन्हें तेजस्वी बनाये रहने को प्रयत्न करते हैं, वह दोहरी गलती करते हैं। एक तो वे विश्राँत अंगों से अतिरिक्त परिश्रम लेते हैं, दूसरे उन्हें अनधिकृत तत्व-मात्रा को ग्रहण करने पर मजबूर करते हैं। यह नियति-नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है जिसका परिणाम जीवनहीन बुढ़ापे के रूप में शीघ्र ही सामने आ जाता है।
शारीरिक-श्रम अथवा उसके स्थान पर समुचित व्यायाम के साथ-साथ शरीर को सदा तेजस्वी बनाये रहने के लिये समुचित आहार व्यवस्था भी बहुत आवश्यक है। शारीरिक-श्रम अथवा व्यायाम से उसकी पूर्ति करते रहने पर भी यदि आहार को अनुकूल तथा उचित न बनाया गया तो लाभ के स्थान पर हानि की ही आशंका अधिक रहेगी। श्रम का कार्य तो शरीर के अंगों, उपाँगों को सक्षम तथा तेजस्वी बनाये रखना ही होता है, किन्तु उनको पोषण-तत्व तो आहार से ही प्राप्त हो सकेगा। अस्तु-श्रम के साथ समुचित आहार को शामिल कर लेना भी जरूरी है।
आहार का निर्धारण करते समय केवल दो-तीन मोटी-मोटी बातों को ध्यान में रखने से भी बहुत कुछ काम चल सकता है। पहली बात तो यह कि आहार अधिक से अधिक प्रकृति सम्मत, स्वास्थ्य तत्वों तथा खनिज लवण से युक्त होना चाहिये। उसका चुनाव, आयु, श्रम तथा स्वभाव के अनुकूल ही किया जाना चाहिये। आहार की मात्रा संतुलित तथा समय नियमित होना चाहिए। एक बार बहुत-सा खाने की अपेक्षा अनेक बार थोड़ा-थोड़ा खाना स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक हितकर है। युवकों की अपेक्षा वयोवृद्धों को आहार की मात्रा कम ही रखना चाहिए। बुढ़ापे के कारणों में आहार का असन्तुलित तथा अयुक्त होना भी एक विशेष कारण है। हरे शाक, ताजी सब्जियाँ तथा ऋतु-फल स्वास्थ्य के लिए सबसे उपयुक्त आहार माने गये हैं। मासिक तथा साप्ताहिक उपवास आहार के ही अंग हैं, जिनका निर्वाह भी आवश्यक है। जिस प्रकार आवश्यकता से कम खाना अकाल वृद्धता के हेतु है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक भोजन भी शरीर को थका कर असमय में ही बूढ़ा बना देता है।
इस प्रकार की विवेचना से पता चलता है बुढ़ापा मनुष्य की कोई आवश्यक स्थिति नहीं है और न आयु की बढ़ोतरी से ही उसका कोई सम्बन्ध है। शरीर का सक्षम तथा तेजस्वी बना रहना ही यौवन है और उसका शिथिल हो जाना ही बुढ़ापा है फिर मनुष्य की आयु चाहे तीस साल की हो अथवा नब्बे साल की। शरीर का सक्षम तथा तेजस्वी बना रहना, श्रम, संयम तथा आहार-विहार के साथ विचारों तथा भावनाओं की युक्तता के अधीन है। प्रकृति के शरीर तथा जीवन सम्बन्धी विधान का निष्ठा के साथ पालन करते चलिये और यौवन पूर्ण लम्बी आयु का आनन्द लीजिये।