Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से, अपनी-पर नितान्त आवश्यक बात
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पिछले दिनों में हमने अपने विशाल परिवार में से कुछ ऐसे प्रबुद्ध साथी ढूँढ़ने का प्रयत्न किया है, वो युग-निर्माण की पुण्य-परम्परा को हमारे पीछे भी प्रगतिशील रख सकें। इस दृष्टि से गत वर्ष परिजनों से पूछा था कि आप लोगों में से ऐसे कौन-कौन हैं, जो हमारे कन्धों पर आये हुए उत्तरदायित्वों के भार को अपना कन्धा लगाकर हल्का कर सकें? इसका उत्तर सन्तोषजनक मिला था। बेशक परिवार में ऐसे लोग भी हैं, जो हमारी विचारधारा में रस लेते हैं, उसे पसन्द करते हैं और अखण्ड-ज्योति अथवा अन्य साहित्य को पढ़कर अपना संतोष कर लेते हैं। परिवार में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो पूजा, उपासना के माध्यम से, अपनी कतिपय कठिनाइयों के समाधान की आशा करते हैं, उनका मूल प्रयोजन उतना मात्र ही है। इस दृष्टि से वे संपर्क में आते हैं, संपर्क में आने पर किसी प्रकार संकोचवश ही सही, अखण्ड-ज्योति या अन्य पुस्तकें भी पढ़ने लगते हैं। वैसे उनकी इस सम्बन्ध में कोई निजी दिलचस्पी नहीं है।
उपरोक्त दो प्रकार के लोगों से हम कुछ विशेष आशा नहीं करते। उनके बारे में उतना ही सोचते हैं कि अपनी साहित्यिक अभिरुचि को तृप्त करने अथवा उपासनात्मक मार्ग-दर्शन से मिल सकने वाले प्रलोभन के कारण वे किसी प्रकार आज हमारे साथ हैं। कल उन्हें उपयोगिता कम दिखाई पड़ी, अपना प्रयोजन कम सधता दीखा तो वे साथ छोड़ देंगे। परिवार की सदस्यता त्यागते उन्हें देर न लगेगी। इस श्रेणी के लोगों को सहचर मात्र कहा जा सकता है। रास्ता चलते कितने ही लोगों का साथ हो जाता है। बोलते बात करते मंजिल कट जाती है फिर जिसका जिधर अभिप्राय था, उधर रुक जाता है या चला जाता है। समय के साथ एक दूसरे को भूल भी जाते हैं। लाखों व्यक्ति हमारे जीवन संपर्क में ऐसे भी जाते हैं। लाखों व्यक्ति हमारे जीवन संपर्क में ऐसे भी जाते हैं। जो कभी बड़े घनिष्ठ थे, पर अब एक दूसरे को लगभग भूल चुके हैं। इसी प्रकार जो आज अपने सहचर हैं, उनमें से भी अनेकों ऐसे होंगे जो अगले दिनों अपना साथ छोड़ देंगे।
इस भीड़-भाड़ में से हम ऐसे लोगों को तलाश करने में कुछ दिन से लगे हुए हैं, जो हमारे सच्चे आत्मीय साथी एवं कुटुम्बी के रूप में अपनी निष्ठा का परिचय दे सकें। बात यह है कि हमारा कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है। हमें अपनी वर्तमान गतिविधियाँ देर तक चलाते रहने का अवसर नहीं मिलेगा। किसी महान शक्ति के मार्ग दर्शन एवं संकेत पर हमारा अब तक का जीवन-यापन हुआ है। आगे भी इस शरीर का एक-एक क्षण उसी की प्रेरणा से बीतेगा। वह शक्ति हमें वर्तमान कार्यक्रमों से विरत कर दूसरी दिशा में नियोजित कर देगी, ऐसा आभास मिल गया है। अतएव हमारा यह सोचना उचित ही है कि जो महान् उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है, उसका भार-वहन करने की जिम्मेदारी किनके कंधों पर डालें? जो मशाल हमारे हाथ में थमाई गई है, उसे किन हाथों में सौंप दें? उस दृष्टि से हमें अपने उत्तराधिकारियों की तलाश करनी पड़ रही रहे।
गत वर्ष हमने परिजनों से यह पूछताछ की थी कि आप लोगों में से कौन ऐसे हैं, जो हमारे उत्तराधिकारी के रूप में आगे आ सकते हैं? कोई भौतिक धन-दौलत पास में होती तो अखण्ड-ज्योति परिवार का हर सदस्य अपने को हमारा सच्चा अनुयायी एवं शिष्य बताता और जो उसे मिलता, उस पर खुशी मनाता। पर जो चीज मिलने वाली है वह आध्यात्मिक है, प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ती, फिर उसके बदले में तृष्णा और वासना की पूर्ति नहीं होती, इतने पर भी वह पात्रता की कसौटी पर खरा उतरने के पश्चात् ही मिल सकती है, उत्तराधिकार में मिलने वाली इसी वस्तु को लेकर कोई करेगा भी क्या? अधिकाँश ने ऐसा ही सोचा है और जिन लोगों के उत्तराधिकार की इच्छा प्रकट करने वालों के नाम आये हैं, वे कम ही हैं। उन्हें सन्तोषजनक संख्या में नहीं कहा जा सकता।
हमें जिस महान् परम्परा का उत्तराधिकार मिला है, वह ऐसा ही है, जिसमें तृष्णा-वासना की पूर्ति जैसा कुछ नहीं है। श्रम और झंझट बहुत है, फिर भी गम्भीरतापूर्वक देखने से यह प्रतीत होता है कि जो लोग सारी जिन्दगी धन तथा भोग के लिए पिसते-पिलते रहने के पश्चात जो पाते हैं, उससे हमारी उपलब्धियाँ किसी प्रकार कम नहीं। ठीक है, अमीरों जैसे ठाठ नहीं बन सके, पर जो कुछ मिल सका है, वह उतना बड़ा है कि उस पर पहाड़ों जैसी अमीरी न्यौछावर की जा सकती है। सामान्य बुद्धि इस उपलब्धि का मूल्याँकन नहीं कर पाती, पर जो थोड़ी गम्भीरता से समझ और देख सकता है, वह यह विश्वास करेगा ही कि अमीरी की तुलना में यह आध्यात्मिक उपलब्धियाँ भी कम महत्व की, कम मूल्य की नहीं हैं।
हमने जो पाया है, वही हम अपने उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ जाना चाहते हैं। हमें भी इसी परम्परा के अनुसार कुछ मिला है। हर पुत्र को पिता की सम्पत्ति में हिस्सा मिलता है। जो हमारे निकटतम आत्मीय होंगे, उन्हें हमारी संयमित पूँजी का भी लाभ मिलना चाहिए, मिलेगा भी। गाँधी की संग्रहित पूँजी का बिनोवा, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद आदि अनेकों ने भरपूर लाभ उठाया। यदि वे लोग गाँधी जी के संपर्क से दूर रहते और अपने दूसरे चतुर लोगों की तरह भौतिक कमाई में जुटे रहते तो वह सब कहाँ से पाते, जो उन लोगों ने पाया। हम गाँधी तो नहीं, पर इतने निरर्थक, दरिद्र एवं खाली हाथ भी नहीं हैं कि जिनके निकट संपर्क में आने वाले को कुछ न मिले। यह खुला रहस्य है कि लाखों व्यक्ति साधारण संपर्क का लाभ उठाकर अपनी स्थिति में जादुई मोड़ दे सकने में सफल हुए हैं और इस संपर्क की सराहना करते हैं। भविष्य में जिन पर हमें अपना उत्तराधिकार सौंपना है, उन्हें वर्तमान स्थिति में ही पड़ा रहना पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। वे सहज ही ऐसा कुछ पा सकेंगे, जिसके लिए चिर-काल तक प्रसन्नता एवं सन्तोष अनुभव करते रह सकें।
आध्यात्मिक महानता की, सत्पात्रता की कसौटी के सम्बन्ध में हम इस तथ्य को अनेकों बार प्रस्तुत कर चुके हैं कि व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव का उत्कृष्ट होना ही उसकी आन्तरिक महानता का परिचायक है। इसी आधार पर संसार में, इसी आधार पर परलोक में और इसी आधार ईश्वर के समक्ष किसी का वजन एवं मूल्य बढ़ता है। अपने दैनिक-जीवन में हम कितने संयमी, सदाचारी, शाँत, मधुर, व्यवस्थित, परिश्रमी, पवित्र, संतुलित, शिष्ट कृतज्ञ एवं उदार हैं, इन सद्गुणों का दैनिक-जीवन में कितना अधिक प्रयोग करते हैं, यह देख, समझकर ही किसी को, उसकी आन्तरिक वस्तु-स्थिति को जाना जा सकता है। जिसका दैनिक-जीवन फूहड़पनों से भरा हुआ है वह कितना ही जप, ध्यान, पाठ, स्नान करता हो, आध्यात्मिक स्तर की कसौटी पर ठूँठ या छूँछ ही समझा जायगा।
महानता की एक स्पष्ट परख यह है कि व्यक्ति अपने शरीर या परिवार के क्षेत्र से बाहर भी अपनी आत्मीयता को विस्तृत कर सका या नहीं? जो उसी दायरे में सोचता और करता है उसे संकीर्ण, अनुदार एवं तुच्छ कहा जायगा। महान आत्मा—महात्मा वह है जो विराट ब्रह्म की, विश्व मानव की सेवा में अपनी क्षमता एवं प्रतिभा की श्रद्धाँजलि अर्पित करते हुए नत मस्तक होता है। अक्षत चंदन, पुष्प, धूप दीप तो पूजा के प्रतीक मात्र हैं, असली पूजा तो लोक मंगल के लिए किये उदार सत्प्रयत्नों से ही आँकी जाती है। जो कृपण-परमार्थ का महत्व न समझ सका, लोक मंगल के लिए जिसने कुछ भी त्याग कर सकने की हिम्मत न की ऐसा अभागा व्यक्ति भावना की दृष्टि से पक्का नास्तिक है, फिर चाहे उसके तिलक और केश कितने ही लम्बे क्यों न हों। ईश्वर भक्त आस्तिक को लोकसेवी होना ही चाहिए। जिसके हृदय में अध्यात्म की करुणा जगेगी वह सेवा धर्म अपनाये बिना रह ही न सकेगा। कार्य कुछ कठिन है, पर ध्यान रखना चाहिए, बड़ी चीजों की कीमत बड़ी होती है। आध्यात्मिक लाभ जीवन साधना का महँगा मूल्य चुका कर ही प्राप्त किये जा सकते हैं। सस्ते दाम में ही वे नहीं खरीदे जा सकते। माला घुमाने की कीमत पर न तो ईश्वर मिल सकता है, न आत्मा। उपासना का तो कर्मकाण्ड-कलेवर है उसका प्राण तो भावनात्मक उत्कर्ष के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
उत्तराधिकारियों की पात्रता उसी कसौटी पर कसी गई है। दो छोटे कार्यक्रम इस परख के लिए स्वजनों के सामने प्रस्तुत किये गये थे और देखा गया था कि किसमें कितनी वास्तविकता है। दो अत्यन्त छोटे कार्यक्रम थे (1) एक घंटा प्रतिदिन जन-जागरण के लिए देते रहना, (2) एक आना प्रतिदिन इसी ज्ञान यज्ञ के लिए समर्पित करना। यह दोनों इतने सरल हैं कि जिनमें रत्तीभर भी सद्भावना जग पड़ी होगी उन्हें इसमें तनिक भी कठिनाई अनुभव न होगी। जिनकी रुचि इस ओर नहीं उनके लिए हजार बहाने गढ़ लेना बाँये हाथ का खेल है। उत्तराधिकारियों की रुचि आत्म-निर्माण की धर्म साधना की दिशा में जगी या नहीं, हमारे अनुरोध का कुछ मूल्य समझा या नहीं—इसकी पहचान इस तरह सहज ही हो सकती है कि उपरोक्त दो छोटे से प्रयोग आरम्भ कर दिये या नहीं।
एक घंटा समय का क्या उपयोग करें, इस प्रश्न का उत्तर अपनी परिस्थिति के अनुसार कर लेना चाहिए। प्रतिदिन समय न मिलता हो तो छुट्टी के दिन अथवा जब अवसर मिले तब कई घंटे जन-जागरण के लिए खर्च किये जा सकते है। महीने में कुल मिलाकर 30 घंटे तो खर्च हो ही जाने चाहिए। (1) अपने कुटुम्बी , पड़ौसी, मित्र परिजनों में विचार क्रान्ति की प्रेरणा देने वाला साहित्य पढ़ाने या सुनाने के लिए उनके पास जाना, संपर्क बनाना, (2) किसी स्थान विशेष पर बैठकर वहाँ पुस्तकालय, वाचनालय जैसी प्रवृत्ति चलाना। स्थानीय संगठन का कार्यालय चलाना, (3) प्रबुद्ध परिजनों के जन्म दिन मनाने की व्यवस्था करना, उनमें सम्मिलित होना तथा उन आयोजनों में एकत्रित लोगों को प्रेरणा देना, (4) संगठनात्मक प्रक्रिया चल पड़ने पर शतसूत्री युग-निर्माण योजना, के कार्यक्रमों में से जो रचनात्मक एवं आन्दोलनात्मक कार्य अपने लिए विशेष उपयुक्त हो उसे चलाना। यों दैनिक जीवन में विभिन्न प्रयोजनों के लिए संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को ऐसी सत्प्रेरणाएं देते रहना ही चाहिए पर कम से कम एक घंटा- (महीने में 30 घंटे) अलग से सुरक्षित रखे जायें। इतना भर करते रहने से एक व्यक्ति ही अपने क्षेत्र में संगठनात्मक एवं रचनात्मक कार्यक्रम को आशाजनक सीमा तक बड़ी सरलता और सफलतापूर्वक आगे बढ़ा ले जा सकता है।
एक आना प्रतिदिन—महीने में दो रुपया-प्रतिदिन या एकबार भी जमा करते चलना चाहिए। इसका उपयोग केवल मात्र सद्ज्ञान प्रसार के लिए, आवश्यक उपकरण, सत्साहित्य, खरीदने के लिए ही खर्च करना चाहिए। अन्य किसी काम में इस पैसे का उपयोग नहीं होना चाहिए। घर में पूजा, कथा की तरह ज्ञान मन्दिर का स्थापित होना भी आवश्यक है। विचार क्रान्ति का—साँस्कृतिक एवं नैतिक पुनरुत्थान का प्रयोजन पूरा कर सकने वाला सुबोध साहित्य हर घर में रहना चाहिए। हर उत्तराधिकारी के घर में इस प्रकार का पुस्तकालय, चले। अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाएं इसी पैसे से मंगाई जाँय। जिन सर्वांग सुन्दर 5 ट्रैक्टों का प्रकाशन हर महीने हो रहा है उन्हें नियमित रूप से मँगाकर उस पुस्तकालय का कलेवर बराबर बढ़ाते रहा जाय। गत वर्ष 10 ट्रैक्ट विवाहोन्माद सम्बन्धी छपे थे। इस वर्ष हर महीने 5 के हिसाब से 12 महीनों में 60 और नये ट्रैक्ट छप चुके इस प्रकार कुल मिलाकर 70 हो गये। 20 नये पैसा प्रति ट्रैक्ट के भाव से अब तक वे 14) के छप चुके। आगे भी यह प्रकाशन नियमित रूप से होता रहेगा। अपने घरेलू ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय में इनका रखा जाना आवश्यक है।
एक आना प्रतिदिन सद्ज्ञान प्रसार के उपकरण-सत्साहित्य खरीदने में और एक घंटा का समय जन-संपर्क में लगाना, यद्यपि बहुत ही छोटा और सरल कार्य है पर इस प्रारंभिक प्रयोजन को नियमित रूप से करते रहने पर सेवा साधना का क्रमबद्ध अभियान चल पड़ता है। दूसरे से कुछ कहने वाले को लोक-लाज वश अपने को भी अपेक्षाकृत अधिक सुधरा हुआ बनाना पड़ता है। सेवा धर्म अपनाने वाले के गुण कर्म स्वभाव स्वयमेव उत्कृष्टता की दिशा में विकसित होने लगते हैं। और उसकी पात्रता का कोष बढ़ता चला जाता है जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हे।
अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों में से प्रत्येक को अब पुनः अपने उत्तराधिकार के लिए आमंत्रित करते हैं। जिनने गतवर्ष अपनी प्रतिज्ञा की सूचना दी थी, उन्हें उसे नियमित रूप से चालू रखने का स्मरण दिलाते हैं। कहकर मुकर जाना बुरी बात है। प्रतिज्ञा तो पालन करने के लिए ही की जाती है। उसे मखौल नहीं बनाया जाना चाहिए। जिन्होंने यह दोनों बातें अभी आरंभ नहीं की हैं उनसे इस बार पुनः अनुरोध करते हैं कि वे आत्म-निर्माण एवं समाज-निर्माण के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक इन छोटे-छोटे दो कार्यों को तत्काल आरंभ कर दें। ‘कथनी’ के क्षेत्र से आगे बढ़कर ‘करनी’ में यदि इस प्रकार दो कदम आगे बढ़ाये जा सकें तो यह आशा बँध जायगी कि महापुरुषों के मार्ग पर हम आगे भी चल सकेंगे और उन उपलब्धियों को प्राप्त कर सकेंगे जो सच्चे अध्यात्म-मार्ग पर चलने वालों को निश्चित रूप से मिलती हैं।
उपासनात्मक जीवन बिताने के कारण उस क्षेत्र में हमारी जो अनुभूतियाँ और उपलब्धियाँ हैं उन्हें हस्तान्तरित करने की अब हमें उतावली हो रही है। पर दिया उन्हें ही जा सकता है जो सत्पात्र हैं। सत्पात्र उत्तराधिकारियों के हाथ में हम बहुत कुछ सौंपना चाहते हैं। उन्हीं सौंपी जाने वाली वस्तुओं में से एक युग-निर्माण योजना की जाज्वल्यमान मशाल भी है। जीवन को धन्य बनाने के महत्वाकाँक्षियों को हम सादर आमंत्रित करते हैं, हमारा महान् उत्तराधिकार संभालने के लिए। जिनकी भावनाएँ जीवित हों वे आगे आयें और वह प्राप्त करें, जिसे प्राप्त करने वाले को मानव-जीवन की सार्थकता का लाभ मिलता है।