Magazine - Year 1966 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वयोवृद्धों के लिए एक अनुपम अवसर
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जो इससे चूकेंगे, वे सदा पछताते रहेंगे!
युवावस्था को सुख-शाँतिमय और समृद्ध बनाने के लिए उसकी तैयारी बालकपन में करनी पड़ती है। बचपन में विद्याध्ययन, स्वास्थ संवर्धन एवं संस्कार अनुशासन का अभ्यास न किया जायगा। तो यौवन युवावस्था दीन-हीन होकर बितानी पड़ेगी। यौवन लौकिक-जीवन की सुविकसित अवस्था है। उसमें मनुष्य को सारे इह-लौकिक आनन्द प्राप्त करने का अवसर मिलता है। स्वास्थ्य, सौंदर्य, प्रतिभा, सत्ता, धन, मान, मनोरंजन, यश, पारिवारिक-उल्लास आदि आनन्द के बहुत से अनुभव इसी अवस्था में होते हैं। पर यह लाभ मिलते उन्हें ही हैं, जो बचपन में इसके लिए कठोर तप कर लेते हैं। जिन्होंने शैशव अस्त-व्यस्त बिताया, उनका यौवन निराशाओं और असफलताओं से भरा हुआ ही रहेगा।
भविष्य-निर्माण की तैयारी -
लौकिक जीवन में एक ही बार यौवन आता है। वृद्धावस्था तो लूटे हुए दिवालिये की तरह है। न शरीर काम देता है, न मस्तिष्क, न शक्ति रहती है, न प्रतिभा। बूढ़े को किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे करने पड़ते हैं। इसके उपरान्त मरणोत्तर जीवन की प्रौढ़ता एक बार फिर आती है। शरीर त्यागने के बाद परलोक का स्वर्गीय आनन्द और इसके बाद उच्च स्तरीय साधन सम्पन्न परिस्थितियों में नया जन्म। इन दोनों को मिलाकर एक यौवन आनन्द का अवसर फिर मिलता है।
यों समझना चाहिए कि एक जीवन-चक्र में दो बार यौवन आता है और दो बार उसकी तैयारी करनी पड़ती है। पच्चीस से पचास वर्ष की आयु के बीच रहने वाला लौकिक, शारीरिक-यौवन उसी के लिए आनन्ददायक बनेगा, जो पच्चीस वर्ष तक उसके लिए आवश्यक तपश्चर्या की तैयारी, शक्ति-संचय करता रहा होगा। जिसने वह अवधि—आलस्य और प्रमाद में, उच्छृंखलता और स्वच्छंदता में बिगाड़ दी, उसे युवावस्था में पग-पग पर नीचा देखना पड़ेगा। तिरस्कृत और असफल की तरह ही वह समृद्ध साथियों के बीच संकोच एवं पश्चात्ताप की व्यथा सहता रहेगा। अभावग्रस्त तो रहेगा ही।
दूसरा यौवन मानसिक आता है। यह मरणोत्तर जीवन है। इसमें परलोक में स्वर्ग एवं मुक्ति का देवोपम सुख सम्मिलित है और ऊँचे साधन सम्पन्न माध्यम लेकर—जन्म, जाति, प्रतिभा के साथ जन्मना भी उसी यौवन के अंतर्गत आता है। यह अदृश्य एवं अप्रत्यक्ष है, पर है इतना महत्वपूर्ण कि शारीरिक यौवन की समृद्धि एवं सफलता उसकी तुलना में नगण्य एवं अकिंचन ही ठहराई जायगी। स्वर्ग में मिलने वाले अपार सुखों की तुलना? मुक्ति का आनंद संसार की किसी भी सुविधा से असंख्य गुना अधिक है। सारे जीवन भर प्रयत्न करने पर भी साधारण मनुष्य इतनी प्रतिभा एकत्रित नहीं कर सकता, जितनी कि कोई-कोई तेजस्वी संस्कारी व्यक्ति जन्म से ही अपने साथ लेकर लेकर आते हैं। अद्भुत कुशाग्र बुद्धि, मनोरम सौंदर्य, मधुर कंठ, उत्कृष्ट संस्कार, अद्भुत मनोबल, साधन-सम्पन्न घरों में जन्म आदि कितनी ही विशेषताएं ऐसी हैं, जो अनेक व्यक्तियों को जन्म से ही इतनी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं कि उनके भाग्य को सराहना पड़ता है। यह अदृश्य यौवन जो मरण से लेकर नये जन्म की अवधि के बीच में आता है, निःसंदेह शारीरिक यौवन की अपेक्षा हजारों-लाखों गुना अधिक उत्कृष्ट एवं महत्वपूर्ण है। इसका आनन्द वे लोग उठाते हैं, जो वृद्धावस्था में उसके लिए आवश्यक तपश्चर्या कर लेते हैं। जिन्होंने बुढ़ापा यों ही अस्त-व्यस्त ढंग से बिता दिया, उनके लिए यह अदृश्य यौवन अभाव और कष्टों से ही भरा रहता है। उन्हें नारकीय व्यथाएं सहनी पड़ती हैं।
बालकपन को सुव्यवस्थित एवं सुविकसित बनाने के लिए चारों ओर बड़ी प्रबल चेष्टाएं की जा रही हैं। स्कूल-कालेजों की स्थापना और शिक्षा-व्यवस्था के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है, खेल-कूद के साधन प्रचुर परिमाण में जुटाये जा रहे हैं, मानसिक विकास के लिए अनेक साँस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे हैं। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि बच्चों का अगला समय, यौवन अधिक उज्ज्वल बनाने के लिए आवश्यक ध्यान दिया जा रहा है। किन्तु खेद इसी बात का है कि वयोवृद्धों के भविष्य-निर्माण की दृष्टि से कहीं कुछ भी नहीं हो रहा। जबकि उनकी संख्या भी लगभग बालकों के जितनी ही है। उनका भविष्य, उनका मरणोत्तर, यौवन—सच पूछा जाय तो बालकों से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
गृह-निवृत्त व्यक्तियों सोचें, यों करें-
लगभग पचास-पचपन वर्ष की आयु में यह स्थिति आ जाती है कि बड़े लड़के अपनी शिक्षा पूरी करके आजीविका कमाने लगें। बड़े बच्चों पर यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपने छोटे भाई-बहिनों का पुत्रवत् लालन-पालन शिक्षा और विवाह आदि का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठावें। यदि वे यह भार नहीं उठाते तो समझना चाहिए कि वे माता-पिता के ऋण से उऋण नहीं होते। अपनी कमाई आप ही खाने और भाई-बहिनों की उपेक्षा करने का अर्थ यह है कि उनके बच्चे भी ऐसा ही करें और उनके बुढ़ापे को सार्थक बनाने में कुछ भी सहायता न करें।
सच्ची तीर्थ-यात्रा का पुण्य-फल -
प्राचीन-काल में तीर्थ इसी प्रयोजन के लिये थे। बुढ़ापे में लोग तीर्थ-यात्रा करने जाते थे। वहाँ वयोवृद्धों के लिए शिक्षा एवं साधना की आवश्यक व्यवस्था रहती थी, इसी के लिए वहाँ जाते थे और देर तक वहाँ ठहरते थे। तीर्थों का सृजन ही वानप्रस्थों से लिये, गुरुकुलों एवं साधना संस्थानों की दृष्टि से किया गया था। आज तो सब कुछ उल्टा हो रहा है, तो तीर्थ का स्वरूप भी उल्टा क्यों न होगा?
हमें एक महत्वपूर्ण कार्य, उन वयोवृद्धों के लिए ऐसे सजीव तीर्थों का सृजन करना है, जहाँ रहकर वे ब्रह्म-विद्या का प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए एक अवधि तक साधना संलग्न रह सकें। इस तीर्थ-यात्रा के बिना उनके संस्कार परिपक्व न होंगे। जो इच्छा उत्कण्ठा परमार्थ के लिए किसी अवसर पर उठी होगी, वह फिर पानी के बबूले की तरह बैठ जायगी। भावनाओं की परिपक्वता के लिये कुछ ठोस प्रयत्न करना होता है। यह प्रयत्न कुछ समय घर से बाहर रहकर करना होगा, जहाँ जीवन के नये मोड़ में कार्य आने वाली क्षमता उत्पन्न की जा सके। लुप्त प्राय तीर्थ-परिक्रमा को हमें पुनः साकार रूप देना होगा।
इस अभाव की पूर्ति की जाय -
अखण्ड-ज्योति पवार के विवेकवान् वयोवृद्धों के लिये ऐसी सुविधा उत्पन्न करना हमारा कर्त्तव्य है। परिजनों में से प्रत्येक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि इस लेख को उन सभी व्यक्तियों को पढ़ाने-सुनाने का प्रयत्न करें, जो पचास वर्ष की आयु पार कर चुके। उन्हें ढलती आयु के धर्म-कर्तव्यों का पालन करना ही चाहिए। पारमार्थिक जीवन में साहसपूर्वक प्रवेश करना ही चाहिए। यह प्रेरणा जितने आधिक वयोवृद्धों को दी जा सके उतना ही उत्तम है।
हम मथुरा में ऐसा प्रबन्ध कर रहे हैं, जिसके अनुसार ऐसे वयोवृद्धों की, वानप्रस्थों की तीर्थ-यात्रा एवं साधना-शिक्षा का प्रयोजन पूरा हो सके। कहना न होगा कि मथुरा तीर्थ का अपना अनुपम स्थान है। ‘तीन लोक से मथुरा न्यारी’ की उक्ति निरर्थक नहीं, सार-गर्भित है। यहाँ की कुछ विशेषताएं हैं, जो इस भूमि में अनादि-काल से घुली चली आती हैं। यहाँ के निवास का अपना लाभ है। फिर गायत्री-तपोभूमि को संस्कारवान् सिद्ध-पीठ बनाने के लिए तो पिछले 15 वर्षों से इतना कुछ किया गया है कि यदि कोई नई जगह होती तो भी वह तीर्थ बन जाती। अखण्ड-अग्नि, नित्य-यज्ञ, 2400 तीर्थों का जल, 123 अरब मन्त्रों की स्थापना, अब तक हुई साधना, तपश्चर्या, यज्ञाहुति आदि का प्रभाव ऐसा है, जिससे यहाँ निवास करने मात्र से बहुत कुछ कल्याण हो सकता है। यमुना तट पर बसी हुई यह तपोभूमि— साधना एवं तपश्चर्या के लिए, शिक्षा और दीक्षा के लिए कितनी उपयुक्त है, यह कहने की आवश्यकता नहीं।
एक वर्षीय तपश्चर्या -
व्यवस्था यह की गई है कि यहाँ निवास करने वाले वयोवृद्धों के लिए साधना एवं शिक्षा का एक वर्षीय कार्यक्रम चला करे। एक वर्ष में सहस्रांशु गायत्री महापुरश्चरण पूरा हो जाता है। यह एक बहुत बड़ी तपश्चर्या है। एक वर्ष तक इस तीर्थ भूमि में रहकर यह पुरश्चरण किया जाय तो घर रहकर किये जाने वाले दस पुरश्चरणों से अधिक इसका प्रभाव होगा। इसी एक वर्ष की अवधि में एक चान्द्रायण व्रत कर लिया जायगा। चन्द्रमा के हिसाब से भोजन घटाने-बढ़ाने का यह चान्द्रायण महाव्रत इस जीवन में बन पड़े तो यह पाप कर्मों का उचित प्रायश्चित है। इस प्रायश्चित से आत्मा में प्रत्यक्ष पवित्रता एवं सात्विकता का प्रकाश बढ़ते हुए परिलक्षित होना सुनिश्चित है। आत्मा की निर्मलता, साधना की सफलता को अधिक सम्भव एवं अधिक सरल बना देती है। एक वर्ष तक नित्य हवन करने का लाभ भी कुछ कम नहीं, उससे शरीर और मन पर चढ़े हुए रोग-शोक एवं कषाय-कल्मषों का शमन होगा ही। साधना में मार्ग-दर्शक का सान्निध्य आवश्यक होता है। गायत्री उपासना में मार्ग पर बढ़ते हुए जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उनका समाधान जितनी अच्छी तरह यहाँ रहने वाले का हो सकता है, उतना और कहीं नहीं। किस साधक के लिए किस प्रकार की साधना उपयुक्त है? इसका निश्चय यहाँ रहने पर बहुत ही उत्तमता से हो सकता है। जिन्हें गायत्री साधना का कुछ वास्तविक लाभ देखना हो, उन्हें एक वर्ष उधर रहकर अपनी तपश्चर्या पूर्ण करने की बात सोचनी चाहिए।
साथ में ब्रह्म-विद्या की शिक्षा भी -
साधना के साथ-साथ ब्रह्म-विद्या का प्रशिक्षण भी अनिवार्य रूप से हम आवश्यक है। ज्ञान और कर्म का जोड़ा है। स्वाध्याय और साधना की अन्योन्याश्रय संगति है। ब्रह्म-विद्या का ज्ञान प्राप्त करना ही सच्चा सत्संग है। सच्चे सत्संग की आवश्यकता ऊट-पटाँग बकवास से नहीं, वरन् क्रमबद्ध शास्त्र अध्ययन से ही पूरी हो सकती है। इस एक वर्षीय वानप्रस्थ साधना में ब्रह्म-विद्या की शिक्षा को भी आधारभूत अंग बना दिया गया है।
ज्ञान का स्रोत वेद है। वेद समस्त प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का महानतम भण्डागार है। जो इसमें है, वही संसार में है। जो इसमें नहीं, वह कहीं भी नहीं है। ऋषियों ने वेद-ज्ञान के आधार पर ही भारत को, विश्व का मुकुट-मणि बनाया था। खेद है कि वह वेद-ज्ञान आज प्रायः लुप्त होता चला जा रहा है। इस सूर्य के अस्त हो जाने पर नाना प्रकार के पंथ-पाखण्ड उल्लू और चमगादड़ों की तरह कुहराम मचा रहे हैं। ज्ञान के नाम पर अज्ञात फैला रहा है। सच्चा ज्ञान प्राप्त करना हो तो वेद का ही आश्रय लेना पड़ेगा। वानप्रस्थों के लिये-ज्ञान के उद्गम वेद को ही पढ़ना सीखना चाहिए। एक वर्ष के इस साधना-काल में वेद का तत्वज्ञान और उसका रहस्योद्घाटन उपनिषदों के द्वारा पढ़ाया जायगा। चारों वेदों और 108 उपनिषदों का भाष्य करने के उपरान्त अब हमारे लिए यही उचित भी था कि ब्रह्म-विद्या के इस तत्वज्ञान को व्यवहारिक रूप से सिखाने पढ़ाने का भी कार्य करें। सो यह प्रशिक्षण प्रक्रिया द्वारा होगा।
संस्कृत जानने वाले वेद को साहित्यिक ढंग से पढ़ सकते हैं। पर जो संस्कृत नहीं पढ़े हैं उन्हें हिन्दी के माध्यम से भी भली-भाँति पढ़ाया जा सकेगा। किसी को यह आशंका न करनी चाहिए कि हमें संस्कृत नहीं आती इसलिए वेद कैसे पढ़ सकेंगे? जो संस्कृत सीख सकते हैं, उन्हें संस्कृत भी पढ़ावेंगे। अन्यथा हिन्दी में माध्यम से भी उसी प्रकार वेद का रहस्य सीखा समझा जा सकता है, जैसे कि संस्कृत के माध्यम से। जितना एक वर्ष में संभव है उतना पढ़ा दिया जायगा। जो अधिक दिन रहना चाहेंगे वे अधिक पढ़ सकेंगे।
प्रातः नित्यकर्म जप, हवन जलपान से निवृत्त होने पर वेद कथाएं प्रातःकाल चला करेंगी। दोपहर को शिक्षार्थी अपना-अपना अथवा कई मिलजुल कर भोजन बनायेंगे खायेंगे और फिर विश्राम स्वाध्याय करेंगे। तीसरे पहर गीता रामायण की कथा चला करेंगी। यों गीता रामायण का पाठ तो कई लोग करते हैं पर धर्म शास्त्रों के निचोड़ इन महाग्रन्थों का रहस्य कोई विरले ही जानते हैं। एक वर्ष में इन दोनों महाग्रन्थों का इस प्रकार शिक्षण किया जायगा कि शिक्षार्थी भारतीय धर्म और संस्कृति के समूचे स्वरूप को इन दोनों ग्रन्थों के ही आधार पर पूरी तरह समझ लें। इस शिक्षण क्रम में विशेषताएं ही विशेषताएं भरी रहेंगी। सामान्य गीता, रामायण पाठ से यह प्रशिक्षण कहीं अधिक महत्वपूर्ण होगा। आसन, प्राणायाम, सूर्य, नमस्कार, योग की अन्य क्रियाएं, प्राकृतिक चिकित्सा आदि छुट-पुट शिक्षण क्रम साथ-साथ चलते रहेंगे।
वानप्रस्थों के लिए धर्म तंत्र से भावी जीवन में समाज सेवा भी करनी है इसलिए उन्हें प्रवचन की कला, पर्व संस्कार, यज्ञ, कथा, सामूहिक धर्मानुष्ठान आदि कर्मकाण्डों की भी अच्छी जानकारी इसी अवधि में करा दी जायगी। व्यक्तिगत परामर्श एवं शंका समाधान के लिए समुचित स्थान रहेगा।
विधि व्यवस्था एवं रूपरेखा -
साधारण यह सोचा गया है कि वयोवृद्ध शिक्षार्थी एक वर्ष की शिक्षा और साधना पूरी करके अपने घरों को वापिस लौट जायेंगे और अपने परिवार की देख-भाल करते हुए अपनी उपासना तथा लोक सेवा की साधना में निरत रहकर अपना तथा दूसरों का कल्याण करेंगे। इस मार्ग पर चलते हुए वे अपना भावी यौवन—मरणोत्तर जीवन तो आनन्दमय बनायेंगे ही, इस लोक में भी यश तथा पुण्य से सम्मिश्रित आत्म संतोष प्राप्त करेंगे।
जो आगे अधिक दिन या सदैव यहाँ रहना चाहेंगे, वे प्रसन्नतापूर्वक रह सकेंगे। स्थान इतना यहाँ है। भोजन आदि का व्यय स्वयं होगा। अपनी स्थिति और सुविधा के अनुरूप जब अपना-अपना सस्ता-महँगा प्रबंध करेंगे। जो अपनी धर्मपत्नी समेत रहना चाहेंगे वे भी रह सकेंगे। जिन्हें भोजन बनाना न आता होगा, उन्हें इस प्रकार दो-चार दिन में ही सिखा दिया जायगा कि यह कार्य उन्हें एक खेल की तरह बहुत ही आसान प्रतीत होने लगे। जो अपनी शरीर यात्रा स्वयं चला सकने में असमर्थ हैं, बीमार हैं, खाँसी या किसी छूत के रोग से ग्रसित हैं उनका प्रवेश न हो सकेगा। शरीर से स्वस्थ और मन से श्रद्धालु होना आवश्यक है। उजड्ड, कटुभाषी, गन्दे, संकीर्ण, स्वार्थी, आलसी, प्रमादी प्रकृति के व्यक्तियों को भी नहीं लिया जायगा। ऐसे व्यक्ति व्यवस्था और परम्परा बिगाड़ेंगे तो सारी योजना ही गड़बड़ हो जायगी। सौम्य, सज्जन और सेवा-भावी ही स्थान पा सकेंगे।
25 मई से 13 जून तक चलने वाला शिविर समाप्त होते ही यह एक वर्षीय वानप्रस्थों के लिए आरंभ किया गया शिक्षा-क्रम चल पड़ेगा। जिन्हें आना हो शिविर में सम्मिलित रहकर दुहरा लाभ उठा सकते हैं। अन्यथा शिविर के बाद आ सकते हैं। जिन्हें आना हो अपना पूर्ण परिचय लिखते हुए आवेदन करना चाहिए और स्वीकृति प्राप्त होने पर आने की तैयारी करनी चाहिए।
परिवार के हर वयोवृद्ध को इन पंक्तियों के द्वारा इस एक वर्षीय प्रशिक्षण-क्रम में सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित करते हैं। जो आवेंगे वे इस एक वर्ष को जीवन का सर्वोत्कृष्ट एवं सार्थक कर्म अनुभव करेंगे। जिनकी परिस्थितियाँ ऐसी हों, वे इसमें सम्मिलित होने का शक्ति भर प्रयास करें। सच्ची तीर्थ-यात्रा का पुण्य-फल इससे अधिक और कहाँ मिल सकता है? जो लोग तीर्थ-यात्रा की बात सोचते हों, उन्हें वह धन अपने निर्वाह खर्च में कम कर इस एक वर्षीय साधना क्रम में सम्मिलित होना चाहिए।
सामान्य पाठक जो स्वयं नहीं आ सकते, इस स्थिति के व्यक्तियों तक यह सूचना पहुँचावें और उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित करें। इस प्रकार भारत की एक महान परम्परा को पुनर्जीवित करने का हम लोग सचमुच ही कूद ठोस काम कर सकेंगे।