Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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किशोर बच्चों से कैसा व्यवहार करें?
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मनुष्य-जीवन में किशोर अवस्था बड़ी ही निर्णायक अवधि होती है। यही वह समय है, जब लड़के-लड़कियाँ जीवन भर के लिये बनते बिगड़ते हैं। किशोर अवस्था में जिन बालक-बालिकाओं के विकास को सही दिशा मिल जाती है, उनका जीवन सफल और जिनकी दिशा गलत हो जाती है, उनका जीवन एक उलझी हुई समस्या की तरह हो जाता है।
किशोर अवस्था मनुष्य की वयःसंधि का समय होता है। इस समय बचपन विदा लेता होता है और यौवन आता हुआ होता है। बचपन के विदा होने का अर्थ यह होता है कि उसकी मचलने, रोने, रूठने अथवा लापरवाही की प्रवृत्तियाँ तिरोहित होने लगती हैं और उनके स्थान पर गम्भीरता, धीरता और उत्तरदायित्व की प्रवृत्तियाँ विकसित होने लगती हैं। बचपन के भोलेपन का स्थान समझदारी लेने लगती है। संकोचशीलता एवं असमंजस की वृद्धि होने लगती है।
इस संधिकाल में जहाँ तेजी से शरीर का विकास शुरू हो जाता है, वहाँ मनोवेगों में भी तीव्रता एवं दीर्घता आने लगती हैं। बचपन में जिस बात को बच्चा आसानी से भूला है, किशोरावस्था में नहीं भूल पाता। बचपन में किसी बात की प्रतिक्रिया कुछ देर के बाद शिथिल पड़ जाती है, किशोरावस्था में वह बहुत समय तक रहा करती है। बचपन में यदि किसी को अकारण, भ्रमवश अथवा निर्दोष होने पर भी डाँट-फटकार दिया जाता है तो बच्चा कुछ देर दुःखी होकर उसे भूल जाता है। किन्तु यदि किशोरावस्था में किसी को अपराध पर भी डाँट-फटकार दिया जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया उसके हृदय पर बड़ी गहरी चोट किया करती है। यही कारण है, घर से नाराज होकर भागने वालों में किशोरों को ही संख्या अधिक होती है।
इसी संधि समय में किशोर-किशोर जिन गुणों अथवा दुर्गुणों को ग्रहण कर लेते फिर वे उन्हें आजीवन कदाचित् ही छोड़ते हैं। किशोर अवस्था में बालक-बालिकाओं की जिज्ञासा बढ़ जाती है, जिससे वे शीघ्र ही अच्छी व बुरी बात की ओर आकर्षित हो उठते हैं। ऐसे समय में जिन किशोरों का ठीक-ठीक मार्ग-दर्शन कर दिया जाता है, वे आगे चलकर बड़े ही सुशील और सुव्यवस्थित व्यक्ति बनते हैं। इसके विपरीत जिनकी मनोदशा का विचार किये बिना उन्हें कोई दिशा दी जाती है अथवा नहीं दी जाती है तो युवावस्था में उनका अनुशासनहीन, अव्यवस्थित एवं अस्त-व्यस्त हो जाने का डर रहता है।
जिस प्रकार दो युगों के आवागमन संधि समय में एक क्राँति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार वयःसंधि काल में किशोरों के मन व शरीर में एक क्राँति उत्पन्न होने लगती है। उस समय उसमें न तो बच्चों जैसा अल्हड़पन रहता है और न प्रौढ़ों जैसी गम्भीरता आने पाती है। इसलिये इस असमंजस अथवा क्राँति के समय में अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ समझ-बूझ कर व्यवहार करना चाहिए।
इस अवस्था में भी बच्चों को जो अभिभावक निरा बच्चा समझ कर उसी प्रकार व्यवहार करते रहते हैं, जिस प्रकार कि बचपन में, तो किशोर इसे अपना अपमान समझकर खीझ उठता है और यदि उसके साथ प्रौढ़ों जैसा व्यवहार किया जाता है, तब भी वह उसे एक व्यंग जैसा समझ कर प्रसन्न नहीं रहता। इसके अतिरिक्त जो अभिभावक कभी उसे बच्चा समझकर और कभी प्रौढ़ समझकर व्यवहार किया करते हैं, वे भी उसे अपनी स्थिति ठीक-ठीक नहीं समझा पाते।
वास्तव में किशोरावस्था में बच्चों से संतुलित व्यवहार कर सकने की कला हर अभिभावक के वश की बात नहीं है। फिर भी व्यवहार करने में अभिभावकों को इतना तो ध्यान रखना ही चाहिये कि उनके किसी व्यवहार से उनका किशोर अपने को अपमानित न समझे। जैसे यदि किसी समय वह बचकानी मौज में आ जाये और किसी बात के लिये जिद करता अथवा लाड़-दुलार चाहता है तो उससे यह न कहना चाहिए कि इतना सयाना हो गया है, ऐसा बचपन करते शर्म नहीं आती? उन्हें उस समय उसकी बचकानी मौज को रास्ता देना चाहिए। तिरस्कार न करना चाहिए। इसके विपरीत यदि वह कभी प्रौढ़ता के प्रवाह में बहकर कोई गम्भीर बात कहता, किसी गम्भीर विषय में दिलचस्पी लेता है अथवा बड़े-बूढ़ों की बातों में शामिल होता है तो उसे यह कहकर तुरन्त तिरस्कृत नहीं करना चाहिए कि “कल का छोकरा बूढ़ों जैसी बात करता है।” अभिभावकों को चाहिए वे किशोरों की इन दोनों तरंगों का समुचित मूल्याँकन करें और किसी उचित अवसर पर उनको उनकी स्थिति बतलायें। क्योंकि किशोरों में दोनों अवस्थाओं की प्रवृत्तियाँ हुआ करती हैं। न तो बचपन पूरी तरह जाने पाता है और न यौवन आने पाता है। किसी समय भी दोनों में से कोई प्रवृत्ति उभर कर ऊपर आ सकती है।
वैसे होता अधिकतर यह है कि इस आयु में किशोर अपने को अधिक बड़ा, अधिकारी और उत्तरदायी समझने लगते हैं, जब कि वे वास्तव में होते वैसे नहीं हैं। इस आयु में वे अवश्य यह चाहने लगते हैं, उन्हें पहले से अधिक आदर दिया जाये, अधिक अधिकार दिया जाय और अधिक स्वतन्त्रता दी जाये। उन पर से बचपन का कठोर नियन्त्रण उठा लिया जाये। इसका कारण यह कि इस समय उनकी अपनी रुचि, अपना दृष्टिकोण और अपनी जिज्ञासा विकसित होने लगती है। वे हर अच्छी-बुरी बात को अपने दृष्टिकोण से देखना ओर अपनी रुचि के अनुसार करना अथवा न करना पसन्द करने लगते हैं। ऐसी दशा में जब उनका विरोध किया जाता है तो उनमें एक विद्रोह की भावना जाग उठती है।
इस समस्या को हल करने के लिये अभिभावकों को बड़ी ही सहनशीलता एवं संतुलित मस्तिष्क से काम लेना होगा। किसी अवाँछनीय दिशा में किशोरों का मनोवेग रोकने के लिये डाँट-डपट अथवा लानत मलामत से काम लेना ठीक न होगा, बल्कि उन्हें एक मित्र की तरह प्रेम, गम्भीरता तथा उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से समझाना होगा। साथ ही किसी अच्छी बात के लिये प्रेरित करने के लिये आदेश, उपदेश अथवा निर्देश मात्र से काम न चलेगा। उन्हें उदाहरणों, प्रमाणों तथा अनुभवों के आधार पर मित्र की तरह ही शिक्षा देनी होगी। किन्तु इन दोनों बातों में भाषा एवं भावों का स्तर ऐसा रहना चाहिए, जिससे वह अपने को हीन न समझे अथवा अयोग्य न अनुभव करने लगे। यदि अभिभावक के समझाने में उसे इस प्रकार की अनुभूति हुई तो उसको मानसिक एवं बौद्धिक विकास में हानि होगी।
किशोरों का एक सहज स्वभाव यह भी होता है कि वे हर समय कुछ न कुछ करते रहना चाहते हैं। खाली बैठ सकना उनके लिये मुश्किल होता है। इसका एक मात्र कारण यही है कि इस आयु में उनके अन्दर नई शक्ति की अभिवृद्धि हुआ करती है, जो हर समय उनके अंग-प्रत्यंगों में लहर मारती रहती है, कुछ करने का हौंसला लगाती रहती है। ऐसी दशा में जब उन्हें कुछ और काम नहीं होता तो शरारत ही किया करते हैं। यदि उनकी इस नवोदित शक्ति को किसी अच्छे काम में नियोजित कर दिया जाय तो शरारत नहीं करें।
चूँकि लोग किशोरों को किसी काम के योग्य नहीं समझते, इसलिये उन्हें ठाली ही रक्खा करते हैं, कोई काम नहीं सौंपते। इसीलिये आजकल किशोर-अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बेकार रहने से ही किशोर बिगड़ते जा रहे हैं। अनेक देशों ने अपने यहाँ किशोर-अपराध रोकने के लिये बहुत से क्लब खोल दिये ओर उनमें—संगीत, नृत्य, वाद्य, चित्रकारी, नाटक अध्ययन, शिल्प तथा कला-कौशल की विभिन्न व्यवस्थाएं कर रक्खी हैं, जिनमें किशोर एवं किशोरियाँ जाकर अपनी अभिरुचि के काम सीखते, करते और खुश होते हैं।
किशोरों को अपराधों तथा विकारों से बचाने के लिये अभिभावकों को उनके साथ मित्रवत् व्यवहार करते हुए उनकी रुचि एवं योग्यता के ऐसे काम देना चाहिए, जिससे उनकी शक्ति का ही उपयोग न हो, बल्कि उनका मनोरंजन हो, उनके मनोवेगों को उचित आश्रय मिले और आगामी समय में उपयोगी हों। यह किशोर वय लड़कों में 14 से 18 और लड़कियों में 13 से 17 वर्ष तक रहती है। इन चार वर्षों में जो अभिभावक अपने बच्चों को उचित व्यवहार से नियन्त्रण में रख लेते हैं, उनके बच्चे अवश्य ही अच्छे नागरिक बन कर जीवन में सफलता पाते हैं।
भव्य समाज की नव्य रचना