Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य ‘अमीबा’ से नहीं ईश्वर की इच्छा से बना है
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भगवान मनु ने कहा है-
मनः सृष्टि विकुरुते खोद्यमानसिसृक्षया।
-मनु0 1।74-75,
सृष्टि के आरंभ में परमात्मा ने अपनी इच्छा शक्ति से मन (जीवों) को उत्पन्न किया।
सृष्टि की हलचल की ओर ध्यान जमाकर देखें तो यह सत्य ही प्रतीत होगा कि इच्छाओं के कारण ही लोग या जीव क्रियाशील है, यह इच्छायें अनेक भागों में बँटी हुई है-(1) दीर्घ-जीवन की इच्छा, (2) कामेच्छा, (3) धन की इच्छा, (4) मान की इच्छा, (5) ज्ञान की इच्छा, (6) न्याय की इच्छा और (7) अमरत्व या आनन्द प्राप्ति की चिर तृप्ति या मोक्ष। इन सात जीवन धाराओं में ही संसार का अविरल प्रवाह चलता चला आ रहा है। इन्हीं की खटपट, दौड़-धूप, ऊहापोह में दुनियाँ घर की हलचल मची हुई है, इच्छायें न हों तो संसार में कुछ भी न रहे।
इन इच्छाओं की शक्ति से ही सूर्य, अग्नि और आकाश की रचना हुई है। देखने और सुनने में यह बात कुछ चटपटी-सी लगती है, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जब हम शोक, क्रोध, काम या प्रेम आदि किसी भी स्थिति के होते हैं तो शारीरिक परमाणुओं में अपनी-अपनी विशेषता वाली गति उत्पन्न होती है। परमाणु जो एक ही पदार्थ या चेतना की अविभाज्य स्थिति में होते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार से स्पंदित होते रहते हैं इससे स्पष्ट है कि शरीर की हलचल इच्छाओं पर आधारित है।
अभी यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या मूल चेतना में अपने आप इच्छायें व्यक्त करने की शक्ति है। इस बात को वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों से भली प्रकार सिद्ध किया जा सकता है। जिन्होंने विज्ञान का थोड़ा भी अध्ययन किया होगा, उन्हें ज्ञात होगा कि जड़ पदार्थ (मैटर) को शक्ति (एनर्जी) अथवा विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी) में बदल दिया जाता है। इस बात का पता पदार्थ की अति सूक्ष्म अवस्था में पहुँचकर हुआ। हम जानते है कि परार्थ परमाणुओं से बने है। परमाणु भी अन्तिम स्थिति न होकर उनमें भी इलेक्ट्रान तथा ‘प्रोट्रान’ आवेश होते हैं। प्रोटान परमाणु का केन्द्र है और इलेक्ट्रान उस केन्द्र के चारों ओर घूमते रहने है। यह दोनों अंश छोटे-छोटे टुकड़े नहीं है वरन् यह धन और ऋण आवेश (इलेक्ट्रिसिटी) है, दोनों की सम्मिलित प्रक्रिया का नाम ही परमाणु है। इस दृष्टि से देखें तो यह पता चलेगा कि संसार में जड़ कुछ है ही नहीं। जगत् का मूल तत्व विद्युत है और उसी के प्रकम्पन (वाइग्रध्न) द्वारा स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों का अनुभव होता हे। छोटे-छोटे पौधों, वृक्ष एवं वनस्पति से लेकर पहाड़, समुद्र, पशु-पक्षी, रंग-रूप और अग्नि-आयु, शीत, ग्रीष्म आदि सब विद्युत चेतना के ही कार्य है। एक ही शक्त सब पदार्थों के मूल में है। सृष्टि के आविर्भाव से पूर्व एवं ही तत्व था, यह बात इतने से ही साबित हो जाती है।
कृषि विज्ञान के बहुत से पण्डितों ने पदार्थों के अन्दर पाये जाने वाले गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) में परिवर्तन करके उनकी नस्लों में भारी परिवर्तन करने में सफलता पाई है। दिल्ली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जी.आर. राव ने मकोय के गुण सूत्रों पर ‘कोल्वौसाइन’ क्रिया के द्वारा प्रभाव डालकर उसे टमाटर की सी नस्ल में परिवर्तित कर दिया। शंकर से हीरा बनाया गया है पर वह वास्तविक हीरे से महंगा पड़ता है। इससे भी यही जान पड़ता है कि पदार्थ की मौलिक चेतना विघटित और संगठित होकर नये-नये पदार्थों का निर्माण कर लेती है। यहाँ यह लगेगा कि यह प्रयोग मानव कृत है, फिर मूल-तत्व की अपनी इच्छा का क्या महत्व रहा ?
वैज्ञानिक यह बताते हैं कि परमाणु में इलेक्ट्रान चक्कर लगाते-लगाते एकाएक अपना स्थान बदल देता है, जिसका कोई कारण नहीं होता उसका यह स्थान परित्याग कार्यकरण सिद्धान्त (ला खाफ कांजेशन) से परे होता है। अर्थात् विद्युत जहाँ एक बद्ध-तत्व हैं, वहाँ उसकी अपनी इच्छा और चेतनता भी है, भले ही वह विद्युत तत्व से कोई सूक्ष्मतर स्थिति हो और अभी उसका अध्ययन एवं जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं हो पाई हो। इस मौलिक स्वाधीनता को ला आफ इनडिटरमिलेसी’ के नाम से पुकारा जाता है और उसी के आधार पर अब वैज्ञानिक भी कहने लगे है कि विश्व की सभी वस्तुयें एक दूसरे से सम्बद्ध परस्पर अवलम्बित और एक ही संगठन में पिरोई हुई है। सारा संसार अर्थात् पृथ्वी से लाखों दूर नक्षत्र तक गणित के सिद्धान्तों से बंधे हुए है, वैज्ञानिक सब यह मानने को विवश हुये कि सम्पूर्ण जगत् एक ही भौतिक संस्थान (राशनल सिस्टम) के द्वारा संचालित है। प्रकृति में पूर्ण व्यवस्था और नियम-बद्धता है और वह सब किसी विश्व-व्यापी, स्वेच्छाचारी शक्ति के ही अधीन है।
हम उसका स्वरूप भले ही समझ न पाते हों पर उस सत्ता के अस्तित्व को इनकार नहीं कर सकते। उसी ने अपनी इच्छा से धरती में पुरुष तत्व को पैदा किया। जब अनेक इच्छायें जीवधारियों के रूप में उत्पन्न हुई तो उनमें शक्ति और इच्छा बल के कारण परस्पर संघर्ष हुआ। एक जीव दूसरे को लाने ओर सताने लगा। उससे थोड़े ही दिन में सृष्टि का अन्त दिखलाई देने पर ईश्वरीय सत्ता की किसी सर्वशक्ति सम्पन्न जीवधारी के उत्पन्न करने की कल्पना सूझी होगी। मनुष्य में ही वही क्षमता है जो उपरोक्त सातों इच्छाओं में क्रम ओर अनुशासन, न्याय एवं व्यवस्था बनाये रख सकता है, क्योंकि उसके लिये प्रत्येक उचित शक्ति भगवान् ने उसे दी है, क्योंकि उसके लिये प्रत्येक उचित भगवान् ने उसे दी है, जो और किसी भी प्राणी को नहीं दी। यदि मनुष्य इस बात को भावनाओं की गम्भीरता में उतर कर समझता नहीं और स्वयं भी वास्तविक आचरण करता है, उसे उस योनि में जाने का भगवान् का दण्ड-विधान अनुचित नहीं है। उत्तराधिकार में पाये हुये साम्राज्य और शक्तियों को मनुष्य जैसा विवेकशील प्राणी अपने स्वार्थ में लगाये और विश्व-व्यवस्था या ईश्वरीय आदेश का परिपालन न करे तो यह दण्ड मिलना उचित ही है।
अमीबा से मनुष्य जाति के विकास की पाश्चात्य थ्योरी को समूचे ज्ञान का एक वंश कहा जा सकता है, सम्पूर्ण नहीं। जो शक्ति सूर्य, चन्द्रमा जैसे प्रकाशवान् नक्षत्र शीत, ग्रीष्म, वर्षा जैसी जटिल और व्यापक प्रकृति उत्पन्न कर सकती है, उसे अमीबा से हाइड्रा, जोड़वाला, मछली, मण्डूक, सर्पणशील पक्षी और फिर स्तनधारी जीव के क्रमिक विकास की क्यों आवश्यकता हुई होगी।
विकास की थ्योरी को सत्य मान लें तो वह सोचना पड़ेगा कि अमीबा के एक कोष्ठ से ही स्त्री और पुरुष दो भेद कैसे पैदा हो गये। यदि ‘अमीबा’ के बाद दो कोष्ठ का हाइड्रा’ हुआ तो क्रम से सभी योनियाँ दुगुने परिणाम से क्यों नहीं बढ़ती ? यदि सर्पणशील जीवों से पर-धारी जीव विकसित हुये तो वह कृमि जो पर-धरी होते है और उड़ लेते है वह किस विकास प्रक्रिया पर आधारित हैं ? पक्षी, जीव−जंतु और कीड़े सभी माँस ओर बकरी आदि माँस क्यों नहीं लाते? एक सी स्थिति में उत्पन्न हुये हाथी और हथिनियों में, मुर्गी और मुर्गे में तथा मोर और मोरनी में शारीरिक विकास में अन्तर क्यों पाया जाता है। स्मरण रहे कि हथिनी के बड़े दाँत नहीं होते, मोरनी के लम्बे पंख और मुर्गी के शिर में कलगी नहीं होती। प्राणियों में दाँतों की संख्या और आकृति, प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। घोड़े के स्तन नहीं होते, जैसे के अण्डकोष के पास स्तन होते है। यदि याँत्रिक सिद्धान्त पर प्राणियों का विकास हुआ तो पक्षियों की अपेक्षा कछुये और सर्प ने अधिक जीवन क्यों पाया? आदि ऐसी आशंकायें है, जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्य अन्य जीवों की विकसित अवस्था न होकर ईश्वरीय इच्छा से प्रकट अपने आप में एक पूर्ण चमत्कार है और वह किसी प्रयोजन के लिये ईश्वरीय इच्छा से ही हुआ है। मनुष्य शरीर की जटिल प्रक्रियायें, चक्रों और ग्रन्थियों की संरचना ऐसी है, जिसे देखकर भी ऐसा लगता है कि मनुष्य का निर्माण किसी बहुत सूझ, समझ और योग्यता के साथ हुआ है, उसमें अन्य जीवों की विकसित स्थिति के लक्षणों का पूर्णतया अपवाद है।
जब तक एक स्थान के वृक्ष वनस्पतियां या जीव अन्य स्थानों में नहीं ले जाये जाते वहाँ उनका अभाव रहता है, इससे भी विकासवाद का सिद्धान्त कट जाता है। भारत के बाघ, सिंह और हाथी होते है, इंग्लैंड में नहीं, साँप, बिच्छू और अन्य गर्मी में पैदा होने वाले प्राणी शीत प्रधान योरोपीय देशों में नहीं होते। अंग्रेज और भारतीय जलवायु के प्रभाव में अपने-अपने वर्ण के होते हैं, रंग−रूप सभी भिन्न होते हैं, यूरोपवासी जब तक नहीं गये थे, आस्ट्रेलिया में खरगोश नहीं थे। जब तक प्राणी कहीं पहुँच कर अपनी संतति का स्वयं विस्तार न कर कोई जीव हो नहीं सकता, मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही बात है, उसने अपना विकास तो किया है पर वह भिन्न भिन्न देशों में किसी एक स्थान से विकसित होकर गया है।
इस विकास की थ्योरी को बुद्धि संगत नहीं ताना जा सकता वह हम ऊपर लिख चुके हैं। मनुष्य की आदिम स्थिति और आज की स्थिति की तुलना करें तो लगता हे कि शरीर, स्वास्थ्य, आयु और ज्ञान सब दृष्टि से आज का मनुष्य बहुत छोटा है, विकास की स्थिति में तो मनुष्य को अब तक कुछ से कुछ हो जाना चाहिये या पा प्रकृति में अपने आप विस्तार की क्षमता नहीं है।
इतने वर्ष पूर्व जो भी जीव सृष्टि में पहले आया होगा, उसे लेकर ही चले तो भी यही मानना पड़ेगा कि वह चाहें प्रकृति कहें या परमेश्वर उनमें से किसी की इच्छा या चेतन-क्रियाशीलता के द्वारा ही हुआ होगा। मेन्टल रेडियो क लेखक अप्टन सिक्लेयर के इस कथन से भी वही बात पुष्ट होती है, वे लिखते हैं-हम स्पष्ट रूप से आकस्मिक या ऐच्छिक चेतना का चिन्ह पा रहे हैं-कुछ ऐसे मानसिक पदार्थ (मेन्टल स्टफ) हम सब में समान होता है, हम उसे वैयक्तिक चेतना में ला सकते हैं। हमें यह भी मालूम है कि एक सर्वमान्य (यूनिवर्सल) मानसिक पदार्थ भी उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार सर्वमान्य खरीद पदार्थ (यूनिवर्सल वाड़ी स्टाफ) जिससे हमारा निर्माण होता है। हम सब उसी इच्छा से जन्मे हैं।
वैज्ञानिकों के यह सूत्र आगे और भी भारतीय दाबे की स्पष्ट पुष्टि करेंगे और यह बतायेंगे कि मनुष्य का जन्म किसी अज्ञात शक्ति की उद्देश्यपूर्ण इच्छा से हुआ है, उसे वन्य-जीवन के बीच शाँति व्यवस्था, मर्यादा, पुण्य और आनन्द की उपलब्धि के लिये भेजा गया है, ताकि भटकती हुई इच्छायें फिर आनन्द में परिणत हो सके। जो मनुष्य इस ईश्वरीय प्रयोजन को पूरा नहीं करता वह बार-बार उसी वन्य जीवन में कष्ट भोगने का ही दण्ड पाता है।