Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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क्रूरता-मानवता पर महान् कलंक
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आज संसार में पशुओं पर जो नृशंस अत्याचार किये जा रहे है, उन्हें देख - सुनकर किसी भी सहृदय व्यक्ति की छाता करुणा से भरे बिना नहीं रह सकती। यदि एक बार हिंस्र अथवा दुष्ट जन्तुओं पर यह अत्याचार किये जाते तो किसी हद तक सहन भी हो सकते थे। किन्तु यह नृशंसता उन पशुओं के साथ की जा रही है, जो शिशुओं को तरह अबोध और भोले होते है और जो कभी भी किसी प्रकार का अहित नहीं करते।
भेड़-बकरी से लेकर गाय-बैल, भैंस-भैंसा, घोड़ा, गधा आदि किसी भी ऐसे जानवर को ले लीजिये जो मनुष्य के संपर्क में रह कर अत्याचारों का लक्ष्य बना हुआ है। कितना अच्छा होता कि ये अभागे पशु आदमी के संपर्क में न आयें होते अथवा मनुष्य को किसी प्रकार उपयोगी सिद्ध न हुये सोते, अथवा इतने सीधे आज्ञाकारी और विश्वासी न होते। ऐसा होने से कम से कम बंधकर तो अत्याचार न सहते। हिरन, बन्दरों की तरह कही जंगलों से स्वच्छन्द बिहार करते और जैसे भी होता शत्रु-जीवों से भाग, छिपकर अपनी रक्षा करते और यदि किसी हिंस्र-जन्तु को चपेट में आ जाते तो एक बार ही मृत्यु का आलिंगन करके सदा के लिये छुट्टी पाते।
इस प्रकार दिन-रात परिश्रम करके, आधा पेट घास-फूँस खाकर दिन-रात मनुष्य का अत्याचार तो न सहते। एक तो बन्धन, दूसरे परिश्रम, तीसरे आधा पेट और चौथे अत्याचार। यह चार-चार दंड एक साथ सहने वाले पशुओं की आत्मा, परमात्मा के प्रतिनिधि कहे जाने वाले मनुष्य को क्या कहती होगी ? अन्दर ही अन्दर रोती हुई मनुष्य के संपर्क में आने के अपने दुर्भाग्य को कोसती होगी।
भेड़-बकरी को ले लीजिये। लोग इन्हें पालते है। कभी कुछ विशेष खाने-पीने को नहीं देते। योंही छोड़े रहते है। बेचारी दिन भर जहाँ-जहाँ ऐसी-वैसी वस्तुऐं बीन-चुन कर लाया करती है। शाम को घर आने पर यदि कुछ खाने-पीने को मिल गया तो खा लेती है, नहीं तो योंही बाँधकर दुहली जाती है। उनका दूध मौलिक के बच्चे पीते और अधिक होने पर बेचकर पैसे कमाये जाते है। इस प्रकार लोग बिना कुछ विशेष व्यय किये अधिक से अधिक लाभ उठाया करते है।
जो लोग अधिक भेड़-बकरी पाला करते है तो जंगल में बिना पैसों की वनस्पति चुगा लाते है और उनके ऊन व दूध से मन-माना लाभ कमाते है। दूध बेचने वाले पालक उनके बच्चों को माँ का दूध नहीं पीने देते। दूध बचाने को थनों की थैली चढ़ा दिया करते है। यदि यही भेड़-बकरी मनुष्य के संपर्क में न आकर जंगलों में स्वच्छन्द रहती तो बिना किसी बन्धन अथवा प्रतिबन्ध के परमात्मा की पैदा की हुई वनस्पति को मन-माना खाती और अपने प्यारे मेमनों को जी भर कर दूध पिलाती। अपने बच्चों के प्रति यह अत्याचार उन्हें मनुष्य के संपर्क में आने के कारण ही सहना पड़ता है।
भेड़-बकरियों के सारे बच्चे समय-समय पर कसाइयों के हाथ बेच दिये जाते है। रोज शाम को अपना पेट भर कर आने के बाद जो बकरी या भेड़ मिमियाती हुई अपने बच्चों को पुकारती और चाटा करती थी, एक दिन बह उन्हें खोजे से भी नहीं पाते। तब उसके पास रात भर बिना कुछ खाये-पीये उदास आँसू बहाने के सिवाय और कोई चारा नहीं रह जाता और जिस समय इधर यों बच्चों की आशा में फिर परेशान होकर मिमियाती है तब उसका मेमना कही पर कट चुका होता है। यह इसीलिये कि बकरी बेवश होती है, इस अत्याचार कर न तो बदला ले सकती है और न विरोध कर सकती है, क्योंकि निर्दयों मनुष्य के बन्धन में होती है। मनुष्य के साथ रहने के बजाय यदि वह जंगल में रह रही होती तो क्यों तो वह अपने देशों को छोड़कर जाती और क्यों उसके बच्चे उसकी गैर-हाजिरी में अथवा आंखों के सामने ही कसाई के हाथ बेच दिये जाते? इसके अतिरिक्त जब बकरी बूढ़ी हो जाती है अथवा उसके माँस से दूध की अपेक्षा अधिक लाभ होता है तो उसके भी एक दिन इसी प्रकार कसाई के हाथ बेच दिया जाता है। कितना अच्छा होता कि मनुष्य या तो इन जानवरों को पालता ही नहीं अथवा स्वार्थवश उनके साथ इस प्रकार का अत्याचार न करता। लोग भेड़-बकरियों को पालते ही अधिकतर कसाइयों के हाथ उनके बच्चे बेचने के लिये है।
मनुष्य यही हाल गाय-भैंस और बैलों आदि के साथ किया करते है। जब तक गाय-भैंस दूध दिया करती है अथवा बैल काम योग्य रहा करते है, तब तक तो उनके साथी बने रहते है, किन्तु ज्योंही उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है अथवा कम लाभकारी हो जाते है कि उन्हें या तो कसाइयों के हाथ बेच देते है अथवा दर-दर ठोकरें खाने के लिये डंडे मारकर भगा देते है। यद्यपि बहुत से दयावान् व्यक्तियों और संस्थाओं ने गायों की रक्षा के लिये अनेक गौशालायें खोल रखी है, तब भी धन क लोभ के कारण अधिकतर गाये कसाइयों के हवाले ही होती है। गौशालाओं से उंगलियों पर गिनने लायक संख्या में गायों को तो कुछ राहत मिल गई है किन्तु बेचारे बूढ़े बैल और कमजोर भैंसे, भेड़-बकरी आदि तो छुरी के घाट ही उतरा करते है।
मनुष्य का स्वार्थ उसे यह नहीं सोचने देता कि जिन बैल अथवा भैंसों से उसने जीवन भर तो परिश्रम लिया है, उनको इस प्रकार कसाईखानों के हवाले करना कितना बड़ा जुल्म है। जो जानवर उसकी सेवा करते-करते अपनी सारी शक्ति अपना सारा पौरुष बलिदान कर चुके है, वे अब कमजोर होने पर अथवा बूढ़े होने पर यदि कसाई के हाथ न बेचकर छोड़ भी दिये गये तो वे कहाँ जायेंगे? कौन उन्हें आश्रय देगा अथवा कौन एक मुठ्ठी भूसा? सिवाय इसके कि वे भूखे मारे-मारे फिरें और यदि किसी की कोई वस्तु खाले तो बुरी तरह मार खाये, उनके पास क्या उपाय रह जाता है? मनुष्य का यह स्वार्थ कितना जघन्य है, यह सोचकर किसी भी दयावान् का हृदय दुःख से भरे बिना नहीं रह सकता। यदि ये जानवर मनुष्य के संपर्क में न आये होते है, जंगल में प्रकृति माता की गोद में आनंद से जीते और वक्त आने पर सुख की मौत मरते। इस प्रकार के अत्याचार देखकर इनके लिये मनुष्य का संपर्क एक दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
इनके अतिरिक्त गुजरों की बात सोचने और उनकी चरबी निकालने के लिए पाले हुए गुजरों पर जो अत्याचार किये जाते है, उसे लेकर तो रोंगटे खड़े हो जाते है। ठीक तरह से दुबारा जमने और पूरा लाभ प्राप्त करने के लिए उनके बाल काटे नहीं जाते बल्कि चिमटी अथवा हाथ से उखाड़े जाते हैं। सुअर के बाल बड़े कड़े और गहरी जड़ वाले होते है उन्हें जड़ से उखाड़ने में उस गिरोह पशु की कितनी पीड़ा होती होगी या तो इसे अन्तर्यामी ही जान सकता है अथवा कोई भावुक सहृदय अनुभव कर सकता है। इसका थोड़ा बहुत अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पीड़ा के कारण छटपटाने अथवा उछलने कूदने से रोकने के लिए उसके चारों पाँव बाँध दिये जाते है।
चरबी प्राप्त करने के लिए तो इन गरीबों को आग में सेंक सेंक कर मारा जाता है। चारों पाँव बाँधकर वो आदमी उसे लाठी डण्डे पर उल्टा कर नीचे जलती हुई आग पर सेका करते है। साथ ही उसका चीत्कार रोकने के लिए उसका मुख भी पूरी तरह बाँध दिया जाता है।
अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य यह नहीं सोच पाता कि वह यह क्या कर रहा है? बेचारे निरुपद्रवी सुअर के बाल काटकर भी प्राप्त किये जा सकते है और चरबी मरने पर निकाली जा सकती है। किन्तु नहीं मनुष्य को तो उसका जड़ तक पूरा बाल चाहिए और मरे सुअर की चरबी उसके ज्यादा काम नहीं आती। कितना अच्छा होता कि मनुष्य उसके कटे वालों से ही काम निकाल लेता और मरने के बाद चरबी की उपयोगिता पर सन्तोष कर लेता। किन्तु स्वार्थ से मनुष्य इतना मजबूर हो चुका है कि पशुओं की किसी वस्तु का अधिक मूल्य पाने के लिए उन पर नृशंस से नृशंस अत्याचार करने में संकोच नहीं करता। आज संसार में पशुओं पर किये गये अत्याचारी का मूल्य दिया जा रहा है।
सवारी में चलने वाले और बोझा ढोने वाले जानवरों पर इतना जोर अत्याचार किया जाता है कि जब तब ये रास्तों में ही गिरकर मरते देखे जाते हैं। तांगों, इक्की में चार-चार गुनी सवारी बिठाना, ठेलों में आवश्यकता से अधिक बोझ लादना तो एक मामूली बात हो गई है। इस पर भी जब थका हुआ जानवर रुक रुककर अथवा धीरे धीरे चलता है तो उसको डंडों से मारा जाता है। डंडों की मार से हर वाहक पशु को कही न कही जख्म हो जाते है और तब उसे अधिक उत्तेजित करने के लिए घावों पर भी प्रहार किया जाता है। बैल-भैंसों के कन्धे और घोड़ों की छाती पकी -सड़ी हुई आमतौर से देखी जाती है। अधिक सवारियाँ भरने और अधिक समय तक जोतने के कारण बेचारे वाहक पशु आधी आयु तक भी नहीं जो पाते। बेतहाशा परिश्रम के कारण या तो वे शीघ्र मर जाते है अथवा निकम्मे होने पर खाल के ग्राहकों के हाथ बेच दिये जाते हैं। बोझ लादने वाले और सवार होने वाले मनुष्य यह नहीं सोचते कि इस प्रकार से इतना अधिक भार वहन करने में इस गरीब जानवर की क्या दशा होगी? वह मरे या जिये सवारियों की लदने और वाहक को पैसे से मतलब।
इस प्रकार किसी भी क्षेत्र में क्यों न देखा जाये मनुष्य के संपर्क का हर काम वाला जानवर मनुष्य के स्वार्थ पूर्ण अत्याचार से पिसा ओर मरा जा रहा है। इसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि यह इन पशुओं का दुर्भाग्य है जो यह मनुष्य के संपर्क में आये। होना तो यह चाहिए कि मनुष्य के संपर्क में जाने पर पशुओं को अधिक सुख सुविधा मिलती, इसके विपरीत उसके संपर्क में बेचारे बेमौत मारे जा रहे है।
कितना अच्छा होता कि या तो मनुष्य इनके साथ दया का बर्ताव करता अथवा वे मनुष्य के संपर्क में न आये होते। इस प्रकार पशु उत्पीड़न और मनुष्य पाप से बच जाते।