Magazine - Year 1969 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
रोगों की जड़ शरीर, नहीं मन में
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कैलीफोर्निया के राल्फ वाल्डो ट्राई से भेंट करते समय एक बार सज्जन ने बताया-’मेरे पिता जो बैठे दिन रात चिन्ता किया करते हैं-चिन्ता ही नहीं घर वालों से उन्हें न जाने क्यों अप्रसन्नता है कि सबको डाँटते और गाली-गलौज बकते बने रहते है।”
ट्राई ने सारी बात ध्यान से सुनी। थोड़ा ठहर कर बोले-”आपके पिता जी अस्वस्थ हैं, उन्हें प्रायः पेट दर्द बना रहता हैं, उन्हें कोई काम करने में रुचि नहीं आती।” ऐसी और भी कई स्थूल बातें ट्राई महोदय ने बताई। वह सज्जन आश्चर्यचकित होकर बोले-”मैंने तो आपको केवल इतना कह था कि मेरे पिता जी बहुत चिन्ता करते हैं, उनके सम्बन्ध में आपने इतनी बातें कैसे बताई। क्या आप उन्हें पहले से ही जानते हैं?”
ट्राई ने हँसकर कहा-’नहीं, मैंने तो उन्हें देखा तक नहीं किन्तु मुझे इतना पता अवश्य है कि बुरे विचारों और बुरी भावनाओं के कारण शरीर के किसी न किसी अवयव में पीड़ा अवश्य बढ़ती है और वह अंग रोगी हो जाता हैं, मनुष्य की यह बड़ी भारी भूख है कि वह रोग का कारण ढूंढ़ता हैं, सच बात तो यह है कि वह दुर्भावनाओं की देन है। बुरी भावनायें ही शरीर में बीमारियाँ और रोग पैदा करती है।
विचार और भावनाओं की अदृश्य शक्ति का हमारे भारतीय शास्त्रों में गहन अध्ययन हुआ है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि स्थूल रूप से मनुष्य का जैसा भी कुछ जीवन हैं, वह उसकी भावनाओं का ही परिणाम हैं, भले ही उनका सम्बन्ध इस जीवन से न हो पर कोई भी कष्ट या दुःख, रोग-शोक या बीमारी हमारे पूर्वकृत कर्मों और उसके पूर्व पैदा हुए मन के दुर्भावों का ही प्रतिफल होता है।
बुरे विचार रक्त में विकार उत्पन्न करते हैं और तभी रोगाणुओं की वृद्धि होती है। यह विचार और भावनाओं के आवेश पर है कि उनका प्रभाव धीरे होता है या शीघ्र पर वह निश्चित है कि मन के भीतर अदृश्य रूप से जैसे अच्छे या बुरे विचार उठते रहते हैं, उसी तरह के रक्तकण शरीर को सशक्त या कमजोर बनाते रहते हैं, मनोभावों की तीव्रता की स्थिति में प्रभाव भी तीव्र होता है। यदि कोई विचार हल्के उठते है तो उससे शरीर की स्थूल प्रकृति धीरे-धीरे प्रभावित होती रहती है और उसका कोई दृश्य रूप कुछ समय के बाद देखने में आता है।
इंग्लैंड के डॉक्टर जान हंटर बड़े योग्य चिकित्सा शास्त्री थे। उन्होंने बड़े-बड़े रोगों को ठीक करने में सफलता पाई, किन्तु उनकी धर्मपत्नी कुछ उग्र स्वभाव की थीं, फलस्वरूप उन्हें भी प्रायः क्रोध आ जाया करता था और उसके कारण वे स्वयं ही अस्वस्थ रहा करते थे।
एक बार डॉक्टरों की किसी सभा में भाव लेते समय किसी व्यक्ति से सहमति न होने पर उन्हें जोर का गुस्सा आया, उससे शरीर का रक्त-चाम एकाएक बड़ गया। दिल का दौरा पड़ा और जान हंटर की वही मृत्यु हो नई। डॉक्टरों ने खोज करके बताया कि उस समय उनके रक्त का दबाव 230 था, जबकि सामान्य स्थिति में 130 ही रहता है। इस बड़े हुये दबाव के कारण शरीर की कोई भी शिरा फट सकती है। इसी प्रकार सामान्य अवस्था में किसी की हृदयगति यदि 180 प्रति मिनट होती है तो क्रोध की अवस्था में धड़कन बढ़कर 220 प्रति मिनट तक हो जाती है। रक्त का दबाव और धड़कन में वृद्धि के साथ ही शरीर की दूसरी सब ग्रन्थियाँ जीवन में काम आगे वाले शारीरिक रस निरर्थक मात्रा में पटक देती है। उससे शरीर की व्यवस्था और रचनात्मक शक्ति कमजोर पड़ जाती है और मनुष्य रोगी या बीमार हो जाता है।
भारतीय योगियों ने इस तथ्य का अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन किया है, योगवाशिष्ठ में बताया हैं-
चितं विधुरिते देह संक्षोजयनुयात्वक्तम्।
-6/1/81/30
संक्षो भात्साम्युत्सर्ज्यं वहन्ति प्राणनायवः॥
-6/1/81/32,
अहमं बहति प्राणे नाज्योयान्ति वि स्थितिम्।
-6/1/81/33,
काश्चिन्नाडघः प्रपूणत्वं यान्तिकाश्चिच्चरिक्तताम्।-6/1/81/34,
कुजीर्णत्वमजीर्णत्य मतिजीर्णत्वमेव वा।
द्वोषा यैव प्रपात्यन्नं प्राणसच्चारदुष्क्रमात्॥
-6/1/81/35,
तथान्नानि नयत्यन्तः प्राणवातः स्वमाश्रयम्।
-6/1/81/36,
यान्यभ्रानि निरोथेन तिडन्त्यन्तः शरीर के॥
-6/1/81/37,
तान्येव घ्याधिताँ शन्ति परिणामस्वभावतः।
-6/1/81/37,
एवमाधैर्मवेन्द्याथिस्तस्याभावच्च नश्यति॥
-6/1/81/38,
अर्थात्- चित्त में उत्पन्न हुये विकार से ही शरीर में दोष पैदा होते हैं। शरीर में क्षोभ या दोष उत्पन्न होने से प्राणों के प्रसार में विषमता आती है और प्राणों की गति में विकार होने से नाड़ियों के परस्पर सम्बन्ध में खराबी आ जाती है। कुछ नाड़ियों की शक्ति का तो स्राव हो जाता है कुछ में जमाव हो जाता है।
प्राणों की गति में खराबी से अन्न अच्छी तरह नहीं पचता। कभी कम, कभी अधिक पचता है। प्राणों के सूक्ष्म यन्त्रों में अन्न के स्थूल कण पहुँच जाते और जमा होकर सड़ने लगते हैं, उसी से रोग उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार आधि (मानसिक रोग) से ही व्याधि (शारीरिक रोग) उत्पन्न होते हैं। उन्हें ठीक करने के लिये मनुष्य को औषधि की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी यह कि मनुष्य अपने बुरे स्वभाव और मनोविकारों को ठीक कर ले।
पाश्चात्य वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और डॉक्टर अब उपरोक्त तथ्यों को और भी गहराई तक समझने लगे हैं, दि फील्ड आफ डिसीजेज’ में सर वी0 डबल्यू रिचर्ड सन ने लिखा है कि-”मानसिक उद्वेग एवं चिन्ताओं के कारण प्रायः फुन्सियाँ निकल आती हैं, कैन्सर, मृगी और पागलपन आदि हालत में भी सबसे पहले मानसिक ववत् में ही विकार बढ़े होते हैं।”
वैज्ञानिकों ने दीर्घकाल तक शरीर की थकावट के कारणों की जाँच में जो प्रयोग किये हैं, उनका कहना है कि लोगों की थकावट का कारण शारीरिक परिश्रम नहीं होता वरन् उतावलापन, घबराहट, चिन्ता, विषय मनोस्थिति या अत्यधिक भावुकता होती है। निराशा जनित घबराहट, अधूरी आशायें और शक्ति से अधिक कामनायें, भावुकता को परस्पर विरोधी उलझने भी रोगी में थकान लाती हैं। हीन भावना से भी शरीर टूटता है। थकान लाती है। हीन भावना से भी शरीर टूटता है। थकान से बचने के लिये आवश्यक है कि मन में सदैव प्रसन्नता और आशावादी विचारों का संचार किये रखा जाये।
अमेरिका में हुये मनोवैज्ञानिक बोध में डॉक्टरों के एक चिकित्सा-दल ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट इस प्रकार दी है-”शारीरिक थकावट के 100 रोगियों में से 90 को कोई शारीरिक रोग न था वरन् वे मानसिक दृष्टि से दूषित व्यक्ति थे। अपच के 70, गर्दन के पीछे के दर्द के 75, सिरदर्द और चक्कर आने के 80-80, गले में दर्द के 90 और पेट में वायु विकार के 99 प्रतिशत रोगी केवल भावनाओं के दुष्परिणाम से पीड़ित थे। पेट में अल्सर जैसे दर्द और मूत्राशय में सूजन जैसी बीमारियों के रोगी भी 50 प्रतिशत रोगी निर्विवाद रूप से अपने दुर्गुणों के कारण पीड़ित थे, शेष के बारे में कोई निश्चित राय इसलिये नहीं बनाई जा सकी, क्योंकि उनका विस्तृत मानसिक अध्ययन नहीं किया जा सका।”
इसी प्रकार डा. टुडे ने ‘इन्फ्लुएन्स आफ दि ग्राइन्ड अपान दि बाडी’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि पागलपन, मूढ़ता, लकवा, अधिक पसीना आना, पाण्डुरोप, बालों का शीघ्र गिरना, रक्त-हीनता, घबराहट, गर्भाशय में बच्चों की शारीरिक विकृति, चर्मरोग, फोड़े-फुन्सियाँ, एग्जिमा आदि अनेक बीमारियाँ केवल मानसिक क्षोभ से ही उत्पन्न होती है।
डॉक्टर भी अब परेशान है कि कई रोगों का कारण वे मरीजों को क्या बतायें। रोगी अपने कष्ट कहता है, किन्तु डॉक्टरी सिद्धान्तों से उसे कोई रोग नहीं होता। डाक्टर उसे ‘एलर्जी’ नाम देकर कुछ औषधि तो दे देते हैं पर दरअसल ऐसे रोगी कहीं भी ठीक नहीं हो सकते, क्योंकि उनके मस्तिष्क में पापा और दुर्वासनाओं की जड़ें बहुत गहरी जम गई होती है। तात्पर्य यह कि अब डॉक्टर भी यौवन को सूक्ष्म संस्कारों का लेखा-जोखा मानते हैं। यद्यपि वे इस सम्बन्ध में इसीलिये चुप्पी साधते है कि इससे औषधि क्षेत्र में एक जबर्दस्त क्राँति आ सकती है पर सच बात यही है कि बुरे संस्कार चाहे इस जन्म के हों चाहे पूर्व जन्मों के शारीरिक व्याधियों का कारण वही होते हैं, भारतीय तत्व-दर्शियों ने बड़ी कठिन शोध साधनाओं के बाद यह देखा था कि मनोमय जगत् की सूक्ष्म वासनाओं का प्राण-शरीर और प्राण-शरीर का अन्नमय शरीर से कितना गहरा संबंध हैं, अन्नमय शरीर का दोष मनोमय जगत को दूषित करता है तो मनोमय जगत अन्नमय शरीर को। स्थूल शरीर जब नहीं रहता हैं, जीव चेतना शरीर को छोड़ देती है तब भी विकृत-संस्कार मस्तिष्क में छाये रहते हैं और वह जब किसी नये शरीर में पदार्पण करते हैं तो दुर्भावनाओं की तीव्र प्रक्रिया उसे अनजान में ही दूषित और अशक्त कर डालती है। हम उस रोग का कारण समझ नहीं पाते, भगवान् को दोष देते हैं पर प्रकृति इतनी कठोर और अनुशासित है कि बुरी भावनाओं का प्रभाव जब तक स्थूल रूप से समाप्त नहीं हो लेता, तब तक वह मनुष्य चाहे कितना ही अपना स्वभाव बदल कर सतोगुणी कर ले, तब तक व्याधियों से छुटकारा नहीं मिलता। सद्गुणों के धारण और मन को रचनात्मक विचारों में डालने के फल से वंचित रहना पड़ता हो ऐसी बात भी नहीं हैं, उसका भी परिपाक एक दिन जीवन में सुख, स्वास्थ्य और प्रसन्नता बनकर आता है, उस अवधि में उससे धैर्य और सन्तोष भी मिलता है पर तुरन्त सतोगुणी या भगवान् का आश्रय लेकर भी कोई उन कुसंस्कारों के प्रभाव से बच नहीं सकता। भोग तो भोगना ही पड़ता है।
यह महत्व भी कम नहीं है कि अच्छी भावनाओं और रचनात्मक विचारों से तत्काल कुछ धैर्य और संतोष मिलता है। पाश्चात्य देशों में भी अब इसीलिये अनुपस्थिति रोग चिकित्सा (एन्सेन्ट ट्रीटमेंट) नामक चिकित्सा पद्धति का प्रसार तेजी से हो रहा है, उसमें रोगी को न दवा लेनी पड़ती हैं, और न कोई यौगिक व्यायाम वरन् उसे अपनी इच्छा शक्ति को इच्छा बनाने और उसे मजबूत बनाने का ध्यान करना पड़ता है। उदाहरणार्थ-रोगी बिल्कुल एकान्त में किसी सुन्दर और स्वच्छ स्थान में बैठता हैं, जहाँ बाहर की प्रकृति भी उसे मानसिक प्रसन्नता प्रदान कर सकती हो। आँख कल्पना चित्र मस्तिष्क में उतारता है और यह भावना करता है कि मुझमें क्रोध की, काम-वासना की, ईर्ष्या आदि की जो दुर्भावनायें, वह दूर हो रही है और मेरे मन में प्रसन्नता बढ़ रही है।
इस तरह के चिकित्सा शास्त्रियों का मत है कि इस प्रयोग से लोगों के मन में बुरे विचार और पाप से घृणा उत्पन्न होती है और प्रसन्नता के प्रति आकर्षण बढ़ता है, मनुष्य उसी की खोज करने लगता है। निःसन्देह यदि कोई प्रसन्नता की खोज करता है तो उसे उस तरह की परिस्थितियां अपने भीतर से ही निकलती हुई सी अनुभव होने लगती है।
भारतीय अध्यात्म सच पूछा जाय तो भावनाओं की इसी गहराई पर टिका हुआ है। अभी पाश्चात्य लोग उसे अच्छी तरह समझ नहीं सके। अभी वे जड़ परमाणुओं की चेतना के ही गुणों का पूरी तरह पता नहीं लगा पाये जब चेतन परमाणुओं (सेल्स) का अच्छी तरह अध्ययन कर लेंगे तो उन्हें पता चलेगा कि दुर्भावनायें किस तरह मनुष्य को नीचे गिराती, पुण्य और उत्तम भावनाओं से उसे किस तरह आनंद मिलता और जीवन सुखी बनता है।