Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने लिए नहीं औरों के लिए
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कौशल नरेश राज्य के समस्त पाँच सौ कर्मचारियों की पत्नियों के लिये पाँच सौ वस्त्र दान किया करते थे। यह नियम उन्होंने राजमाता की आज्ञानुसार बनाया था।
एक बार शीत ऋतु का आगमन होने को था। कौशल नरेश वस्त्र बाँट चुके थे, तभी बौद्ध भिक्षु आनन्द ने कौशल में प्रवेश किया। उस दिन राजधानी में ही उनका प्रवचन रखा गया। दान के महत्व पर बोलते हुए भिक्षु ने कहा- “ अपनी आवश्यकता से अधिक द्रव्य या वस्तुयें लोकहित में दान करते रहना चाहिये, इससे समाज में विषमता पैदा नहीं होती।”
राज कर्मचारियों को लगा जैसे राज्य से प्राप्त होने वाले वस्त्र में उनका लोभ और अपरिश्रम भी जुड़ा हुआ है, वे सब धर्मनिष्ठ, देश-भक्त और सामाजिक मर्यादाओं का पालन करने वाले थे, सो सबने अपने-अपने वस्त्र लाकर आनन्द को दान कर दिये।
अगले दिन यह चर्चा महाराज के कानों पर पड़ी। भगवान् बुद्ध के उपदेशों का उन्होंने अच्छी तरह स्वाध्याय किया था। भिक्षुओं के लिये निर्धारित आचार संहिता- शास्ता के भी वे अच्छे ज्ञाता थे। उन्हें मालूम था कि भिक्षु को अपने पास तीन चीवर से अधिक रखने का अधिकार नहीं है। उन्हें ऐसा लगा कि अपरिग्रह का उपदेश करने वाले आनन्द ने स्वयं ही शास्ता-मर्यादा तोड़ दी है, सो उनकी नाराजी और भी बढ़ गई। अगले दिन वे स्वयं ही बौद्ध स्थविर आ उपस्थित हुए।
आनन्द अभी संध्योपासना से निवृत्त होकर बैठे ही थे कि उन्हें महाराज के आगमन की सूचना दी गई। आनन्द द्वार तक स्वयं आये और महाराज को सादर परामर्श कक्ष तक ले आये। महाराज उद्विग्न थे, सो जाते ही पूछ लिया- भंते! आप भिक्षु हैं शास्ता के अनुसार आप अधिक से अधिक तीन चीवर ही ग्रहण करने के अधिकारी हैं, पर आपने पाँच सौ वस्त्र कैसे ग्रहण कर लिये?
आनन्द उठे ओर संघ विश्रामागार की ओर प्रस्थान करते हुये बोले-महाराज! आपका कथन सत्य है। वह समस्त चीवर यहाँ के अन्य भिक्षुओं को बाँट दिये गये हैं? अपने लिये तो एक ही चीवर- पर्याप्त था सो लिया भी एक ही है। भिक्षुओं के चीवर फट चुके थे, सो उनके लिये ही यह वस्त्र स्वीकार करने पड़े। अनावश्यक कुछ नहीं लिया।
महाराज ने पूछा- पर इस तरह इन भिक्षुओं के पास अब तक जो चीवर थे, क्या उनका अपव्यय नहीं हुआ, क्या आपके पूर्ण उपयोग की बात यहाँ असत्य न हो गई? आनन्द ने कहा- नहीं महाराज! हम शास्ता की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन नहीं करेंगे। भिक्षुओं के पुराने चीवर उत्तरीय वस्त्र, उत्तरीय वस्त्र अन्तर-वासक और अन्तर-वासक बिछौने के काम में उपयोग कर लिये गये हैं, महाराज इन सबके बिछावन फट चुके थे।
महाराज को अपने अविश्वास पर बड़ी आत्म-ग्लानि हुई। क्षमा माँगते हुए उन्होंने कहा- “भंते! अपनी भूल के लिए हार्दिक पश्चाताप है।” इस पर आनन्द ने कहा- नहीं महाराज! ऐसा न कहें। दान पाने वाले को ही नहीं, देने वाले को भी सन्तुष्ट होना चाहिये कि उसका सही उपयोग हो रहा है, इसके लिये यदि दान दाता निरीक्षण करना चाहता है तो वह भी पुण्य ही है।
महाराज सन्तुष्ट होकर लौट आये।
=कहानी=============================
दो शिष्य आपसे में लड़ रहे थे, एक कहता था सच्चा योगी मैं हूँ मैंने काम पर विजय पा ली है, दूसरा कहता था, मैंने पद्मासन सिद्ध कर लिया है, मैं तुमसे भी बड़ा हूँ।
आचार्य ने दोनों की सुनकर कहा- ‘सच्चा योगी तो मृगाल है, जो अपने लिये कभी कुछ कहता ही नहीं, सदैव संसार के कल्याण की बात सोचता रहता है।
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