Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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गंगा जल और उसकी महान महिमा-(1)
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डॉ0 हेनकेन आगरा में गवर्नमेंट साइन्स डिपार्टमेन्ट में एक बड़े अफसर थे। प्रयोग के लिये उन्होंने जो जल लिया वह स्नान घाट वाराणसी के उस स्थान का था, जहाँ बनारस की गन्दगी गंगाजी में गिरती है। परीक्षण से पता चला कि उस जल में हैजा के लाखों कीटाणु भरे पड़े हैं। 6 घन्टे तक जल रखा रहा, उसके बाद दुबारा जाँच की गई तो पाया कि उसमें एक भी कीड़ा नहीं है, जल पूर्ण शुद्ध है, हैजे के कीटाणु अपने आप मर चुके हैं। उसी समय जब इस जल का प्रयोग किया जा रहा था, एक शव उधर से बहता हुआ आ रहा था। वह शव भी बाहर निकाल लिया गया, जाँचने पर पता चला कि उसके बगल के जल में भी हजारों हैजे के कीटाणु हैं, 6 घन्टे तक रखा रहने के बाद वे कीटाणु भी मृत पाये, यही कीटाणु निकाल कर एक दूसरे कुएं के जल में दूसरे बर्तन में डालकर रखे गये तो उसमें हैजे के कीटाणु अबाध गति से बढ़ते रहे।
यह घटना अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्कट्वेन को आगरा प्रवास के समय ब्योरेवार बताई गई, जिसका उन्होंने भारत यात्रा वृत्तान्त’ में जिक्र किया है। इस प्रयोग का वर्णन प्रयाग विश्व-विद्यालय में अर्थशास्त्र के अध्यापक पण्डित दयाशंकर दुबे एम॰ ए॰ एल॰ एल॰ बी0 ने भी अपनी सुप्रसिद्ध ‘श्री गंगा रहस्य’ में किया है। धर्म ग्रन्थावली दारागंज प्रयाग से 1952 में प्रकाशित 300 से अधिक इस पुस्तक में गंगाजी के आर्थिक, औद्योगिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, धार्मिक एवं साँस्कृतिक आदि अनेक लाभ और प्रयोगों की विस्तृत जानकारी दी गई है। विद्वान् लेखक ने गंगाजी के प्रति जो प्रबुद्ध श्रद्धा अभिव्यक्त की है, उसे पढ़कर भगवती गंगा की उपयोगिता का सहज ही पता चल जाता है।
बर्लिन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ0 जे0 ओलिवर ने तो भारत की यमुना, नर्मदा, रावी, ब्रह्मपुत्र आदि अनेक नदियों की अलग-अलग जाँच करके उनकी तुलना गंगा-जल से की और बताया कि गंगा का जल न केवल इन नदियों की तुलना में श्रेष्ठ है वरन् संसार की किसी भी नदी में इतना शुद्ध कीटाणु नाशक और स्वास्थ्यकर जल नहीं होता। उनके परीक्षणों का विस्तृत हवाला 4 नवम्बर 1933 के दैनिक पत्र ‘कर्मवीर’ में डॉ0 रविप्रताप सिंह श्रीनेत द्वारा दिया गया है। डॉ0 ओलिवर का इस सम्बन्ध में एक लेख न्यूयार्क से छपने वाले ‘ इन्टरनेशनल मेडिकल जर्नल’ में भी छपा था।
गंगा जल से मिलने वाले व्यक्तिगत लाभों की चर्चा की जाये तो उसका एक स्वतन्त्र गंगा-पुराण ही बन सकता है। विश्रामधाम कार्यालय बम्बई के श्री एन॰ आर॰ निगुडकर एक बार हिमालय यात्रा पर गये। एक दिन वे चलते समय फिसलकर गिर पड़े। सिर में गहरी चोट आई, घाव हो गया। उन्होंने लिखा है कि मैं प्रतिदिन गंगा-जल से घाव धो लिया करता था, उतने से ही वह गहरा घाव अच्छा हो गया।
‘गंगा स्नान महिमा’ के लेखक श्री ललनप्रसाद पाँडेय ने गंगा-जल की औषधोपम उपयोगिता का वर्णन करते हुये 19 वें पृष्ठ पर लिखा है कि मैं स्वयं पेट का रोगी था, गंगा-जल के नियमित सेवन से मेरे पेट की कमजोरी जाती रही।
गंगा-रहस्य के लेखक ने अपने आरोग्य-लाभ के लिये भी गंगा-जल के प्रति भूरि-भूरि श्रद्धा व्यक्त की है। गंगा के इन महत्त्वों को सम्भवतः श्री पं0 जगन्नाथ जी भी जानते थे, तभी तो उन्होंने गंगाजी की गोद में जीवित समाधि ले ली थी। पं0 जगन्नाथ जी की श्रद्धा का वर्णन बड़ा हृदय स्पर्शी है। वे कवि थे, प्रेमवश उन्होंने एक मुसलमान कन्या से विवाह कर लिया था। विवाह उन्होंने विशुद्ध प्रेम-भावना से किया था पर बनारस के रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने उसका घोर विरोध किया। बेचारे पंडित जी को उन्होंने कभी चैन से नहीं बैठने दिया। तब वे गंगा जी के किनारे पहुँचे और भगवती को माँ सम्बोधित कर गीत रचने लगे। एक सीढ़ी पर बैठकर एक शिखरणी छन्द बनाने के बाद वे दूसरी पर पहुँचते और दूसरा छन्द बनाते। इस तरह 52 सीढ़ियों पर उतर कर 52 छन्द रचकर वे घाट पर रख गये और भावावेश में आकर उन्होंने भगवती की गोद में समाधि ले ली। पीछे गंगा लहरी के नाम से उनके यह छन्द प्रकाशित हुये।
गंगा-जल के पाचक, कीटाणु नाशक प्राण और शक्ति-वर्द्धक गुणों की प्रशंसा सुनते-सुनते बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रसायन-शास्त्र के प्रवक्ता डॉ0 एन॰ एन॰ गोडबोले ने निश्चय किया कि -क्यों न गंगा-जल की रासायनिक परीक्षा करके देख ली जाय? उनके विश्लेषण का निष्कर्ष 18 जून 1967 के साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ पृष्ठ 39 पर इस प्रकार दिया है- “मुझे फिनाइल यौगिकों की जीवाणु निरोधता के परीक्षण का काम दिया गया था, तभी मुझे गंगा-जल पर कुछ ‘चिकित्सा सम्बन्धी शोध-पत्र’ पढ़ने को मिले जिनमें यह बताया गया था कि ऋषिकेश से लिये गये, गंगा-जल में कुछ ‘प्रोटेक्टिव कालौइड’ होते हैं वही उसकी पवित्रता को हद दर्जे तक बढ़ाते हैं। कालौइड एक ऐसा तत्व है, जो पूरी तरह घुलता भी नहीं और ठोस भी नहीं रहता। शरीर में लार, रक्त आदि देहगत कालौइड हैं, ऐसे ही कालौइड गंगाजी के जल में भी पाये जाते हैं, जब उनकी शक्ति का ‘रिडैल-वाकर’ नामक यन्त्र से पता लगाया तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि गंगा-जल जीवाणु की वृद्धि को रोकता ही नहीं, उन्हें मारता भी है। रिडैल और वाकर नामक दो वैज्ञानिकों ने मिलकर बनाया था इसमें जिस तरह परमाणुओं के भार को हाइड्रोजन के परमाणु से सापेक्षित (रिलेटिव) मान निकालते हैं, उसी तरह फीनोल से सापेक्षित (रिलेटिव) जीवाणु निरोधता (कीटाणु नष्ट करने की शक्ति ) निकालते हैं।
गंगा जी के महत्त्व के प्रतिपादन को बहुत लम्बा किया जा सकता है पर उसके विस्तार में जाने की अपेक्षा उसके इतिहास में जाने से अनेक वह तथ्य जानकारी में आ सकते हैं, जिनकी अभी तक वैज्ञानिक ढँग से भी खोज नहीं हो पाई पर उनका महत्त्व साधारण और भारतीय प्रजा के लिये बहुत लाभदायक हो सकता है।
पौराणिक कथानक के अनुसार सगर के साठ हजार पुत्र जब श्राप वश मृत हो गये तो सगर को उनके उद्धार की चिन्ता हुईं उन्होंने असमंजस के पौत्र भागीरथ को उसके लिये तप करने और गंगा जी को लाने को भेजा। भागीरथ ने हिमालय में जाकर घोर तप किया। उसके फलस्वरूप गंगा का प्राकट्य हुआ।
प्रत्येक घटना को कलात्मक रीति से वर्णन करने की हमारे यहाँ पद्धति रही है। ऐसी प्रतीत होता है कि उन दिनों अकाल जैसी स्थिति आई होगी। तब प्रजा को पुत्र के समान मानते थे। सगर के 60 हजार नागरिक पीड़ित हुये हों और तब उन्हें एक नहर की आवश्यकता हुई हो। पौराणिक कथन है कि गंगा जी के लिये सगर की तीन पीढ़ियों ने तप किया था। तप का अर्थ हमारे यहाँ आग में तपना नहीं वरन् असम्भावित परिस्थितियों में भी संघर्ष का नाम तप रहा है। हिमालय की चट्टानों को काटकर गंगा जी को लाना एक कठिन कार्य था, उसके लिये सचमुच बड़े परिश्रम की आवश्यकता थी। पाश्चात्य विशेषज्ञों की भी ऐसी धारणा है कि गंगा नदी नहीं, नहर है और उसे कुछ विशेष स्थानों से जानबूझ कर लाया गया है।
हिमालय बहुमूल्य रसायनों और खनिजों का रहस्यमय स्रोत है। सर्पगन्धा चन्द्रवटी ऐसी जड़ी-बूटियाँ जो संसार में और कहीं नहीं पाई जातीं, हिमालय में आज भी मिलती हैं। जो फल संसार में दूसरे स्थानों में भी उगाने से नहीं उगते उनकी वहाँ मीलों लम्बी घाटियाँ हैं, पृथ्वी पर यदि कहीं कोई स्वर्ग है तो वह हिमालय ही है।
भगीरथ की प्रजा अकाल-ग्रस्त ही न थी, अभिशाप-ग्रस्त भी न थी, अर्थात् वे लोग अनेक रोगों से पीड़ित रहे होंगे, इसलिये गंगा के जल को उन-उन स्थानों से लाने के लिये एक विशेष शोध कार्य सगर की तीन पीढ़ियों को करना पड़ा था, जिनमें स्वास्थ्यवर्धक, कीटाणु नाशक, शक्ति और तेज वर्धक तत्त्वों का बाहुल्य था। गंगा जी का भूगोल इस तथ्य का शतशः प्रतिपादन करता है।