Magazine - Year 1970 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अन्तिम मिलन के लिए चार दिन मथुरा पधारें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इस ‘अपनों से अपनी बात’ स्तम्भ के अंतर्गत अपने अंतरण में घुमड़ती हुई हर बात- हर विचारणा परिजनों के सम्मुख व्यक्त करते चले आ रहे हैं। ताकि हमारे जी की कोई बात दबी छिपी न रह जाय। अखण्ड ज्योति परिवार के प्रवृद्ध परिजनों को हम अपने विराट शरीर के कल पुर्जे-अंग प्रत्यंग ही मानते हैं। सो उन तक अपनी हर छोटी बड़ी- हर बुरी भली बात पहुँचाना आवश्यक समझते हैं। इससे हमारा चित्त हलका होता है और परिजनों को हमारा अंतःकरण पढ़ने समझने में सुविधा होती है चलते वक्त इतना तो हमें करना ही चाहिए था। अब हमें अपने आपसे कोई शिकायत नहीं रहेगी कि जी में बहुत कुछ था पर स्वजनों से कह न सके। उसी प्रकार परिजनों को भी यह न अखरेगा कि आचार्य जी के मन में न जाने क्या था और वे न जाने क्या सोचते हुए चले गये। हम अपने परिवार के साथ घुले हुए हैं। इसलिए अपनी हर विचारणा को भी उनके सम्मुख पूरी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत करते चले जा रहे हैं। यह क्रम अगले 16 महीने और भी चलता रहेगा। जो कुछ और कहना बाकी है, इसी स्तम्भ के अंतर्गत अपनों से अपनी बात कहते हुए अपना चित्त पूर्णतया हलका कर लेंगे।
जो बातें सार्वजनिक रूप से सबके सामने कही जाने योग्य थीं- सब पर लागू होती थीं, उन्हें ही इस स्तम्भ के अंतर्गत लिखा, छापा जा सकना सम्भव हो सका है। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत पक्ष ऐसा रह गया है जो अलग व्यक्तियों से अलग-अलग ही कहा सुना जा सकता है। अपना परिवार बहुत बड़ा है, उसमें अनेक स्तर के व्यक्ति हैं, उनकी स्थिति अलग-अलग है। हमारे सम्बन्धों में भी उतार-चढ़ाव है कोई अत्यधिक घनिष्ठ है किन्हीं के साथ वह घनिष्ठता सामान्य स्तर की है। विचार करने का क्षेत्र एवं आकाँक्षायें और दिशायें भी लोगों की अलग-अलग हैं। लक्ष्य एक होते हुए भी थोड़े-थोड़े अंतर से स्थिति में बहुत अंतर पड़ जाता है। इसी से व्यक्ति परामर्श की आवश्यकता बनी ही रहती है। भाषणों और लेखों की एक सीमा है, उनमें वही व्यक्त किया जा सकेगा जो एक सामान्य स्तर वालों के लिए समान स्तर का प्रकाश देता है। पर हर व्यक्ति का स्तर भिन्न है उसे परामर्श और मार्गदर्शन अलग ढंग का अपेक्षित होता है। सो यह आवश्यकता व्यक्तिगत परामर्श से ही पूरी हो सकती है।
सोचा यह गया है कि परिजनों से व्यक्तिगत विचार विनिमय का अन्तिम दौर चलने से पहले समाप्त कर लें। चलते वक्त भीड़ लगाने का हमारा मन नहीं है। हमारी भावुकता भी इन दिनों कुछ तीव्र हो गई है। बुझने के समय दीप की लौ जिस तरह तेज हो उठती है- शायद वही बात हो या जो भी हो यह एक तथ्य है कि इन दिनों अपने प्रिय परिजनों के प्रति ऐसी भावुकता की लहर उमड़ती है जिसे विदाई का- वियोग का- मोह का- अथवा जिस प्रकार का भी नाम दिया जा सके उभार बहुत आता है। स्वजनों को बार-बार देखने और मिलने की इच्छा होती है। मिल लेने पर भी तृप्ति नहीं होती। परिजनों के साथ चिर अतीत से चले आ रहे मधुर सम्बन्धों की स्मृतियाँ और भविष्य में उनके उस मृदुल शृंखला के टूट जाने का ताल-मेल विवश हमारे लिए बहुत भारी पड़ता है। स्वजनों को आग्रहपूर्वक बुलाते हैं, आते हैं तो प्रसन्नता होती है पर जब वे विदा होते हैं तो जी टूटने लगता है और मुख फेर कर आँसू पोंछने पड़ते हैं। मरते समय अज्ञानियों को मोह ग्रस्त होकर रोते-बिलखते हमने देखा है और उनकी इस दुर्बलता का जीवन भर उपहास उड़ाया है। पर अब तो हम स्वयं ही उपहासास्पद बनते चले जा रहे हैं। प्रियजनों के साथ लम्बे समय से चली आ रही मृदुल अनुभूतियाँ अब प्रत्यक्ष न रहकर परोक्ष पात्र रह जाएंगी, यह कल्पना जी को बहुत भारी कर देती है और अक्सर रुला देती है। साठ वर्ष के लम्बे जीवन में जितने आँसू सब मिलाकर निकले होंगे, अब विदाई की वेदना प्रायः हर दिन उतना पानी आँखों से टपका देने को विवश करती रहती है। भगवान जाने यह प्रेम है या मोह भावना है या आसक्ति सहृदयता है या दुर्बलता जो भी हो- वस्तुस्थिति यही है। सो हम अपनी दुर्बलता भी छिपाकर नहीं रखेंगे। छिपाने लायक हमारे पास कभी कुछ नहीं रहा तो फिर अपनों से अपनी दुर्बलता भी क्यों छिपायें। कोई हंसी करेगा ज्ञानी को अज्ञानी कह कर उपहास करेगा इतने भर संकोच से वस्तुस्थिति को छिपाकर रखें यह उचित नहीं लगता।
विदाई के दिन निकट आ रहे हैं। पहले विचार था कि चलते समय एक बार एक दिन एक दृष्टि से सब को देख लेंगे और शाँति तथा संतोष के साथ विदाई देते लेते चले जायेंगे जाते समय एक छोटा समारोह सम्मेलन जैसा बुला लेंगे और अपनी कहते हुए और दूसरों की सुनते हुए अपने पथ पर पाँव बढ़ाते हुए अदृश्य के अंचल में विलीन हो जायेंगे। पर अब जबकि दूसरे ढंग से सोचते हैं तो वह बात पार पड़ती दीखती नहीं कारण कई हैं एक तो हमारी मनोदशा में गड़बड़ी उत्पन्न होती है, एक-दो व्यक्तियों को जब अन्तिम विदाई का अभिवन्दन करते हैं तो देर तक हमारे सीने में दर्द होता है। अभी तो यह आशा भी है कि दुबारा मिलना हो सकता है। तब भी जी बहुत भारी हो जाता है। फिर जब इतने स्वजनों की सचमुच अन्तिम बाद विदा करने की बात होती तो हमारी मनोदशा संतुलित रहना कठिन हो जायगा। अभी तो एक दो व्यक्ति आते जाते हैं और वे किसी खास भावुकता के मूड में नहीं होते तब हमें उनकी विदाई बहुत भारी पड़ती है और सम्भवतः बहुत लोग हमारी ही तरह द्रवित हो उठे और वह हमारे लिए असह्य हो जाय। उस स्थिति का गहरा असर हम पर पड़ सकता है और यदि वह स्थिति देर तक बनी रही तो हमारी भावी साधना क्रम में अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है।
दूसरा कारण यह भी है कि उस समय व्यक्तिगत विचार विनियम सम्भव न होगा। बहुत अधिक व्यक्तियों में भावावेश की स्थिति में गम्भीर विचार विनिमय सो भी सबसे उनकी स्थिति के अनुरूप अधिक मनोयोग के साथ तो सम्भव हो ही नहीं सकता। अभी अपने विशेष परिजनों से व्यक्तिगत रूप से बहुत कुछ कहना और सुनना बाकी है। उतना बड़ा काम उस दो-चार दिन के विदाई समारोह वाले दिनों में कैसे सम्भव होगा। यदि वह बात न बनी तो एक बहुत बड़ी आवश्यकता अधूरी ही पड़ी रह जायगी। और वह आयोजन लोकाचार मात्र रह जायगा। उपयोगिता उसकी नहीं के बराबर ही रहेगी।
सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ के समय यह सब हम देख चुके हैं। 4 लाख व्यक्ति इस समारोह में कितना व्यय करके और कितना कष्ट सह कर आये थे पर हम आगन्तुकों से कुशल समाचार तक न पूछ सके। इतने विशाल जन समुदाय से एक व्यक्ति उतना संपर्क बना भी नहीं सकता था। अब फिर वैसी स्थिति ही आ जाएगी। विदाई के समय सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ जितने वरन् जिससे भी अधिक व्यक्ति आ सकते हैं क्योंकि तब की अपेक्षा अब अपना परिवार कम से कम दस गुना और बढ़ गया है। ऐसी दशा में इस समय भी वैसी ही स्थिति बन जायगी और हमें पहले जैसे ही विशाल आयोजन का सरंजाम अभी से खड़ा करना होगा। अब उतना बड़ा झंझट सिर पर लेने का मन नहीं है।
इन दो कारणों से विदाई समारोह तो न होना ही अच्छा है। पर यह उचित नहीं कि परिजनों से अन्तिम परामर्श का अवसर भी न मिले। व्यक्तिगत स्वभाव, व्यक्तिगत रुचि, व्यक्तिगत समस्यायें एवं व्यक्तिगत संभावनाओं के सम्बंध में उचित मार्गदर्शन एवं विचार विनिमय व्यक्तिगत परामर्श से ही सम्भव है। सो इसकी गुंजाइश निकालनी ही चाहिए। अभी व्यक्तिगत रूप से बहुत सुनना और कहना बाकी है उसकी पूर्ति इस थोड़े समय में ही पूरी कर लेने की बात सोची गई है।
अभी 15 मई, 70 तक हमारे कार्यक्रम देश व्यापी युग निर्माण सम्मेलनों तथा गायत्री यज्ञों में जाने के बन चुके हैं। उस समय तक बाहर रहना पड़ेगा। इसके बाद ठीक एक वर्ष रहा जायगा इस अवधि का अधिकाँश भाग प्रिय परिजनों के साथ विदाई मिलन कहिये अथवा व्यक्तिगत परामर्श कहिये- उसी में लगाने की बात सोची गई है।
योजना यह है कि 4-4 दिन के शिविर 15 मई से 15 अक्टूबर तक 5 महीने लगातार लगाये जाते रहें और उनमें थोड़े-थोड़े परिजनों को बुलाकर विदाई मिलन और अन्तिम परामर्श का प्रयोजन पूरा करते चला जाय। गायत्री तत्व ज्ञान,दर्शन, नीति, सदाचार जीवन जीने की कला, व्यावहारिक अध्यात्मवाद, नव निर्माण आदि विषयों का प्रशिक्षण करने के लिए हमारे भाषण होते थे और हर आगंतुक को एक लघु अनुष्ठान गायत्री तपोभूमि के सिद्ध पीठ में करने के लिए कहा जाता था। तीर्थयात्रा का कार्यक्रम भी रहता था। अब की बार ऐसा कुछ न होगा। यह शिविर शृंखला व्यक्तिगत बातें पूछने व्यक्तिगत अभिव्यंजनायें व्यक्त करने तथा व्यक्तिगत रीति-नीति निर्धारित करने का विचार विमर्श करने के लिए ही होंगे। भाषण तो प्रातः काल एक ही हुआ करेगा। बाकी तो सारे दिन चर्चा और परामर्श का ही क्रम चलता रहेगा।
हमारे पास अभी भी बहुत कुछ देने को है, व्याकुलता रहती है कि उसे किसे दिया जाय, क्या कोई उसे लेने के अधिकारी मिल सकते हैं। बहुमूल्य वस्तुयें केवल माँगने या चाहने मात्र से नहीं दी या ली जातीं, उनके लिए पात्रत्व की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। इन शिविरों में पात्रत्व ढूंढ़ते रहेंगे और जो संग्रहित है उसे देने का प्रयत्न करेंगे। इसी प्रकार अलग-अलग स्तर और स्थिति के लोगों को उनकी परिस्थितियों के अनुरूप अधिक तेजी से आगे बढ़ सकने का परामर्श देंगे। अगले दिनों हमारा शरीर ही अदृश्य होने वाला है जीना तो अभी हमें बहुत दिन है। उस अवधि में संग्रहीत तप बल का प्रधान उपयोग तो जनमानस में प्रकाश उत्पन्न करना और प्रवृद्ध आत्माओं को लक्ष्य की दिशा में गतिशील करना तथा अध्यात्म विज्ञान के लुप्त रहस्यों को खोजकर मानव समाज की प्रगति के लिए उन्हें पुनः उपलब्ध करना है पर उस तप साधना का एक अंश अपने प्रिय परिजनों की व्यक्तिगत सहायता के लिए भी सुरक्षित रखा है।
अभावों, कुण्ठाओं, उलझनों, विपन्नताओं और विकृतियों के ऐसे जंजाल जो प्रगति का पथ अवरुद्ध किये पड़े हैं, मार्ग से हटाये ही जाने चाहिएं। अन्यथा आगे बढ़ सकने की आशा पूर्ण न हो सकेगी। परामर्श मात्र देकर हम अपने कर्तव्य से छुट्टी नहीं पा सकते। वरन् परिजनों का पथ प्रशस्त करने के लिए आवश्यक अनुदान एवं सहयोग भी देते रहेंगे। हमारी तपश्चर्या का एक अंश उसके लिए निर्धारित है। श्रद्धा, आत्मीयता, एवं स्नेह सद्भावों की बहुमूल्य अमृत वर्षा जिन्होंने हमारे ऊपर की है। उनके प्रति हमारे मन में असीम कृतज्ञता उमड़ती रहती है समय आ गया कि उस कृतज्ञता का ऋण चुकायें। यों अब तक भी कितनों की कुछ कुछ सेवा सहायता करके अपना ऋण भार हलका करते रहेंगे पर पूँजी कम और उपभोक्ता अधिक होने से हिस्से में थोड़ा-थोड़ा ही आता रहा है। अब उपभोक्ता कम रह जायेंगे और उपार्जन अधिक होगा तो स्वभावतः अनुदान भी अधिक मात्रा में लिया और दिया जा सकेगा। जिसके लिए हमें अगले दिनों क्या करना है - इसका भी एक बार पर्यवेक्षण फिर से हो जायगा और इस अन्तिम मिलन की स्मृति में यह तथ्य नोट करके रख सकना सम्भव होगा कि आगे हमें किसका कितना ऋण किस प्रकार किस अनुदान के रूप में चुकाना है।
उपरोक्त कारणों को ध्यान में रखते हुए यही निष्कर्ष निकाला गया है कि 15 मई से 15 अक्टूबर तक 5 महीने तक चार-चार दिन के शिविरों की शृंखला आरम्भ कर दी जाय और उनमें लगभग सभी विशिष्ट परिजनों से परामर्श और विदाई का प्रयोजन पूरा कर लिया जाए इसके बाद के शेष छः महीने हमें दूसरे आवश्यक कार्यों में व्यय करने हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच जंगल में हिमालय की गोद और गंगातट पर माता भगवती देवी की भावी साधना के लिए एक उद्यान बनाया है। उसमें हर ऋतु में फलने वाले वृक्ष तथा दूसरे कन्द-मूल, शाक आदि लगाये गये हैं। माता जी यहीं रहकर अपनी भावी साधना करेंगी।
सात ऋषियों की तप साधना वाला यह प्रदेश जहाँ गंगा सात धारायें बनाकर बही हैं, उपासना की दृष्टि से अतीव उपयुक्त स्थान है। यहाँ कुछ समय के लिए यदाकदा हम भी आते रहेंगे और जो प्रकाश संग्रह करेंगे उसको जनसाधारण में फैलाने के उपयुक्त जितना अंश होगा माता जी के पास छोड़ जाया करेंगे। वे इस प्रकाश को जनसाधारण तक बखेरती रहेंगी। इस उद्यान का नाम शाँति कुण्ड रखा है। इसे वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के अंतर्गत देवोत्तर सम्पत्ति बना दिया गया है।
सप्त सरोवर के समीप यह बड़ा ही मनोरम और शाँतिदायक स्थल होगा। इसमें कुछ निर्माण कार्य होना बाकी है, ताकि वहाँ हम लोग निवास कर सकें और कोई अतिथि वहाँ जा पहुँचे तो उसके ठहरने का भी प्रबन्ध हो सके। चूँकि इस आश्रम का स्वामित्व गायत्री माता का है इसलिए उनका एक छोटा मन्दिर भी बनाना है जिसकी सेवा पूजा हम लोग स्वयं ही किया करेंगे। यह कार्य हमें उन नवम्बर 70 से मई 70 तक 6 महीनों में ही पूरा कराना है।
जिस प्रकार हमें अपना विशाल परिवार छोड़ना कठिन पड़ रहा है। माता जी का भी अपना एक परिवार है, जो अखण्ड ज्योति कार्यालय के कार्यकर्ताओं से लेकर गायत्री तपोभूमि के आश्रम वासियों और छात्रों तक फैला है। इसमें देश व्यापी परिवार के सहस्रों परिजन भी बंध गये हैं। माता जी भी हमारी ही तरह भावुक हैं और उन्हें इस प्रकार के एकाकी जीवन का यह पहला ही अनुभव होगा। उन्हें इससे अभ्यस्त कराना होगा, सो उन शेष छः महीनों में वे भी उस उद्यान में आती जाती रहेंगी। ताकि उन्हें यकायक का परिवर्तन अधिक कष्टकर प्रतीत न हो।
हम लोग गुरुदेव के हाथों में धागे की तरह बँधी कठपुतली मात्र हैं। वे जो निर्देश करें वही करना, यही हमारे लम्बे जीवन की एकमात्र रीति नीति है। कभी दूसरी बात सोची ही नहीं उनकी इच्छा पूर्ति के अतिरिक्त और कुछ चाहा ही नहीं। अब जबकि शरीर में जीर्णता आ गई है और सुख सुविधायें भोगने की इच्छाओं वाला समय भी चला गया तो गुरुदेव के निर्देश के अतिरिक्त और दूसरी बात सोचेंगे भी क्यों? करेंगे तो वही जो कराया जा रहा है। पर उस खाँचे में फिट होने की अड़चन तो हम लोगों को स्वयं ही हल करनी है। वे अन्तिम छः महीने इसी प्रयोजन के लिए लगाने का विचार है। माता जी वातावरण में परिवर्तन का अभ्यास करने और हम निर्माण कार्य कराने के लिए यहाँ रहेंगे और वह व्यवस्थायें जुटायेंगे, जिससे उसे जंजाल में निर्वाह सम्बन्धी आवश्यकतायें सरलतापूर्वक पूरी होती रह सकें।
विदाई का समय गायत्री जयन्ती है ज्येष्ठ सुदी 10 सम्वत् 28 तदनुसार 3 जून 71 को गायत्री जयन्ती है। गायत्री को प्रणाम करेंगे और उसी रात को चुपचाप निर्धारित दिशा में चल पड़ेंगे। उस समय कोई उत्सव, आयोजन करना निरर्थक है। भावनाएं उमड़ती हैं और वे बहुत दर्द पैदा करती हैं चुपचाप चल पड़ने से अपने मन की ही आग रहेगी, दूसरे लोग उसमें आहुतियाँ न देंगे तो वह दर्द सहा और सीमित ही बना रहेगा और उस जलन पर अपेक्षाकृत कुछ शीघ्र ही काबू पाया जा सकेगा। विदाई समारोह से उत्पन्न कष्ट से एक सीमा तक उसी प्रकार बचा जा सकेगा।
इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए 5 महीने वाली चार-चार दिन की योजना प्रस्तुत की गई है। हर महीने 6 शिविर 24 दिन के रखे हैं और अंतिम सप्ताह दोनों पत्रिकाओं की तैयारी तथा दूसरे आवश्यक कार्यों के लिए खाली रखा है। हर महीने 6 शिविर होते रहेंगे। अर्थात् कुल मिलाकर 5 महीने में 30 शिविर होंगे। परामर्श थोड़े ही व्यक्तियों में ठीक तरह हो सकता है। यह संख्या अधिक से अधिक 100 हो सकती है। 30 शिविरों में 3000 व्यक्तियों तक ही परामर्श सम्भव है यों अपना परिवार बहुत बड़ा है, उसमें इतनी छोटी संख्या नगण्य है। पर किया क्या जाय थोड़ी बहुत गुंजाइश रही तो 6 महीने जो माता जी उद्यान निर्माण के लिए रखे हैं उसमें से काट छाँटकर दो पाँच शिविरों के भी बढ़ाने की बात सोचेंगे पर अभी तो इतना ही विचार है।
इन पंक्तियों द्वारा हम अपने प्रवृद्ध परिजनों को अभी से आमन्त्रित करते हैं कि जिन्हें कुछ कहना सुनना हो वे 30 शिविरों में से किसी में आने की तैयारी अभी से करें। आवश्यक नहीं कि उनने जो तारीख भेजी है वह स्वीकृत ही हो जाय। यदि वह पहले से ही भर गई तो उन्हें आगे के किसी शिविर के लिए कहा जा सकेगा। इसलिए अपनी सुविधा की पसन्दगी के रूप में क्रमशः तीन के लिए सूचना भेजनी चाहिए। ताकि यदि पहले में सम्भव न हो तो दूसरे में और दूसरे में भी सम्भव न हो तो तीसरे में स्थान रखा जा सके। आवेदन पत्र पर यहाँ यह देखा जायगा कि किस शिविर में स्थान खाली है। उसी के अनुसार स्वीकृति दी जा सकेगी। अस्तु उचित यही है कि शीघ्र ही अपने लिए स्थान सुरक्षित करा लिया जाय। यह कार्य 15 मार्च से आरम्भ होकर 15 अप्रैल तक समाप्त कर देने का विचार है। आशा है कि इस एक महीने में ही 3000 परिजनों के आवेदन आने और उन्हें स्वीकृति प्रदान करने का कार्य समाप्त कर लिया जायगा।
इन शिविरों में छोटे बच्चे महिलायें तीर्थ यात्री दर्शनार्थी तथा इधर-उधर के काम लेकर एक तीर में कई शिकार करने वाले लोग न आयें। जिनका हमारे मिशन से पूर्व परिचय या सम्बन्ध नहीं है वे भी दर्शन मात्र के लिए आकर भीड़ न बढ़ाएं और दूसरे आवश्यकता वाले लोगों का स्थान घेर कर उन्हें लाभ से वंचित न करें। रोगियों अथवा अन्य दीन दुःखियों को लाने की भी आवश्यकता नहीं है। उनकी बात बता देने पर भी हम उनकी सेवा सहायता जो कर सकते होंगे कर देंगे। इन शिविरों में केवल उन्हीं को आना चाहिए जो अपने को हमारे साथ देर से जुड़ा हुआ समझते हैं और आगे भी उस सम्बन्ध को बनाये रहने की आवश्यकता उपयोगिता समझते हैं। आशीर्वाद तो पत्र द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। किराया भाड़ा तथा समय उन्हें ही व्यय करना चाहिए जो हमारे प्रकाश और मार्ग दर्शन का मूल्य समझते हैं और उनकी उपयोगिता समझते हैं।
जहाँ वाँछनीय भीड़ को इन शिविरों में आने की निरुत्साहित किया जा रहा है वहाँ हर प्रवृद्ध परिजन को आग्रह तथा अनुरोधपूर्वक यह कहा भी जा रहा है कि अंतिम बार हमसे मिल लेने और जी भर कर अपनी अन्तःभावनाओं को व्यक्त करने का यह अवसर किसी भी मूल्य पर चूके नहीं। समय तो बीमार पड़ जाने पर ढेरों बच जाता है और जरूरी व्यय आ पड़ने पर पैसे की भी किसी प्रकार व्यवस्था हो जाती है, किराये-भाड़े के पैसे तथा चार दिन का समय निकाल सकना उनके लिए कुछ अधिक कठिन न रहेगा, जिनकी इच्छा गहरी है और जो इस मिलन एवं परामर्श की उपयोगिता अनुभव करते हैं। विश्वास है कि अंतिम मिलन के यह चार दिन आगन्तुकों के जीवन में अविस्मरणीय बनकर रहेंगे और सम्भव है इन्हीं दिनों वे ऐसा प्रकाश प्राप्त कर लें जो उनके शेष जीवन को आनन्द और उल्लास से भरे महामानव जैसी स्थिति में परिवर्तित कर दे।
अपने अंतरंग परिजनों से एक बार अंतिम बार जी भर कर मिल लेने की हमारी प्रबल इच्छा है हमारी ही जैसी भावना जिनके मन में उमड़े उन सब को हम अनुरोधपूर्वक आग्रह करते हैं कि वे प्रत्येक अड़चन की उपेक्षा करके चार दिन के भीतर हमसे मिल जाने वाली बात को सर्वोपरि महत्व दें।
चार-चार दिन के तीस शिविरों की पाँच मास तक चलने वाली शृंखला इस प्रकार है :-
(1) 16, 17,18, 19 मई सन् 1970।
(2) 20, 21, 22, 23 मई।
(3) 24, 25, 26, 27 मई।
28 से 31 मई तक अवकाश।
(4) 1, 2, 3, 4 जून
(5) 5, 6, 79, 8 जून
(6) 9, 10, 11 ,12 जून
(7) 13, 14, 15, 16 जून
(14 जून गायत्री जयन्ती)
(8) 17, 18, 19, 20 जून।
(9) 21, 22, 23, 24 जून।
25 से 30 जून तक अवकाश
(10) 1, 2, 3, 4 जुलाई
(11) 5, 6, 7, 8 जुलाई
(12) 9, 10, 11, 12 जुलाई
(13) 13, 14, 15, 16 जुलाई
(14) 17, 18, 19, 20 जुलाई
(17 जुलाई गुरुपूर्णिमा)
(15) 21, 22, 23, 24 जुलाई।
25 से 31 जुलाई तक अवकाश
(16) 1, 2, 3, 4 अगस्त।
(17) 5, 6, 7, 8 अगस्त।
(18) 9, 10, 11, 12 अगस्त।
(19) 13, 14, 15, 16 अगस्त।
(20) 17, 18 ,19, 20 अगस्त।
(17 अगस्त श्रावणी, रक्षा बंधन)
(21) 21, 22, 23, 24 अगस्त।
(24 अगस्त कृष्ण जन्माष्टमी)
25 से 31 अगस्त तक अवकाश
(22) 1, 2, 3, 4 सितम्बर
(23) 5, 6, 7, 8 सितम्बर
(24) 9, 10, 11, 12 सितम्बर
(25) 13, 14, 15, 16 सितम्बर
(26) 17, 18, 19, 20 सितम्बर
(27) 21, 22, 23, 24 सितम्बर
25 से 30 सितम्बर तक अवकाश
(28) 1, 2, 3, 4 अक्टूबर।
(1 अक्टूबर से नवरात्रि आरम्भ)
(29) 5, 6, 7, 8 अक्टूबर
(30) 9, 10, 11, 12 अक्टूबर।
(10 अक्टूबर विजय दशमी)
स्मरण रहे तीन पसन्दगी के लिए तीन शिविरों के नाम क्रमशः लिखने चाहिएं। ताकि यदि पहले शिविर भर चुके हो तो आगे वालों की स्वीकृति दी जा सके। स्थान केवल तीन हजार के लिए है, परिवार बहुत बड़ा है। यों अपने लिए स्थान सुरक्षित करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए।