Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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मन से मन का योग
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एक साधारण परिवार में पल कर अपनी योग्यता, व पुरुषार्थ के बल पर बैजापिनडिजरायली ब्रिटेन, पार्लियामेंट में सदस्य चुने गए, तो धनी परिवार से आये साँसद उन्हें बड़ी उपेक्षा से देखने लगे। न जाने क्यों पुराने साँसद उन्हें अपने पास तक नहीं फटकने देते। शायद इसलिए कि डिजरायली का वेष विन्यास अथवा रहन-सहन राजसी नहीं था। वे साधारण वस्त्र पहनते और गरीब लोगों की तरह रहते। अर्थ प्रधान दृष्टिकोण वाले लोग गरीब व्यक्ति का क्यों कर सम्मान करते ? उलटे उनके साथी साँसद उनकी इतनी उपेक्षा करते कि जब व सदन में बोलने के लिए उठते थे तो उन्हें बोलने तक नहीं देते। लेकिन इन परिस्थितियों में भी डिजरायली का मनोबल नहीं डिगा। जब उनके भाषणों में व्यवधान उपस्थित किया जाता तो वे कहते, ‘आपको एक दिन मेरी बातें अवश्य सुननी पड़ेगी।
यह डिजरायली नहीं उनका आत्मविश्वास बोल रहा था। उन्हें अपनी आन्तरिक शक्तियों पर पूरा विश्वास था। वे अपनी आन्तरिक शक्तियों पर पूरा विश्वास था। वे अपना उचित मूल्याँकन करना जानते थे। भविष्य के सम्बन्ध में उनके सामने एक सुनिश्चित योजना थी और उस योजना को भी दृढ़तापूर्वक क्रियान्वित करने के लिए वे कृत संकल्प था। इसी का परिणाम था कि अपने प्रयत्न और परिश्रम के बल पर वे एक दिन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन गये। लोगों ने उनके प्रति, उनकी योग्यताओं के प्रति इतना विश्वास व्यक्त किया, उन्हें इतना ठीक-ठीक पहचाना कि वे ब्रिटेन के सफल तथा योग्यतम प्रधानमंत्री सिद्ध हुये। पहले जो लोग उनका उपहास किया करते थे वे ही उनके प्रशंसक बन गये और उनका गुणगान करने लगे।
यदि डिजरायली अपने साथियों द्वारा की जाने वाली उपेक्षा से, उनके द्वारा हुए उपहास से हतोत्साहित होकर चुपचाप बैठ जाते, तो संसार उन्हें उस रूप में नहीं जान पाता, जिस रूप में आज जानता है। उनकी सफलता का एक ही कारण है कि उन्होंने अपनी योग्यताओं को पहचाना, अपना मूल्याँकन किया और उसके बल पर सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गये। इस संसार का यह विचित्र नियम है कि बाजार में वस्तुओं की कीमत दूसरे लाग निर्धारित करते हैं, पर मनुष्य अपना मूल्याँकन स्वयं करता है और वह अपना जितना मूल्याँकन करता है, उससे अधिक सफलता उसे कदापि नहीं मिल पाली है, प्रत्येक व्यक्ति को, जो जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तथा आगे बढ़ने की आकाँक्षा रखते हैं उन्हें यह मानकर चलना चाहिए कि परमात्मा ने उसे मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर भेजते समय उसकी चेतना में समस्त सम्भावनाओं के बीज डाल दिये हैं। इतना ही नहीं उसके अस्तित्व में सभी सम्भावनाओं के बीज डालने के साथ-साथ उनके अंकुरित होने की क्षमताएं भी भर दी है। लेकिन प्रायः देखने में यह आता है कि अधिकाँश व्यक्ति अपने प्रति ही अविश्वास से भरे होते हैं तथा उन क्षमताओं और सम्भावनाओं के बीजों को विकसित तथा अंकुरित करने की चेष्टा तो दूर रही उनके सम्बन्ध में विचार तक नहीं करना चाहते।
जीवन में कई बार अनपेक्षित परिस्थितियाँ आती हैं, जिनके कारण अपने प्रति विश्वास डगमगाने लगता है और व्यक्ति उन परिस्थितियों में किंकर्तव्य विमूढ़ होकर उपलब्ध साधनों का उपयोग करने में संकोच करने लगता है अथवा यह सोचने लगता है कि वह इन साधनों के योग्य नहीं है। एक घटना नैपोलियन के सम्बन्ध में विख्यात है, उसका एक सैनिक अपने सेनापति के पास कोई महत्वपूर्ण सन्देश लेकर भेजा गया था। सन्देश इतना महत्वपूर्ण था कि जितना जल्दी हो सके उसे पहुँचाना और उसका उत्तर लेकर तुरन्त वापस आना आवश्यक था। सौंपे गये दायित्व को तत्परता से पूरा करने के लिए उस सैनिक ने अपना घोड़ा इतनी तेजी से दौड़ाया कि गंतव्य स्थल पर पहुँचते ही उसने दम तोड़ दिया।
नैपोलियन ने उसकी कर्तव्यनिष्ठों को सराहा तथा पत्र का उत्तर लेकर उसी शीघ्रता से जाने के लिए कहा लेकिन सैनिक का घोड़ा तो मर चुका था। नैपोलियन को यह मालूम था। सैनिक को असमंजस में देखकर वह बोला, यह लो मेरा घोड़ा और जल्दी से यह उत्तर ले जाओ।’ सैनिक भौचक्का होकर अपने सेनापति की ओर देखने लगा। उसने कहा, लेकिन श्रीमान्...........’ सैनिक ने यह दो शब्द ही कहे थे कि नैपोलियन बीच में टोकते हुए बोला, ‘मैं जानता हूँ तुम क्या कहना चाहते हो ? पर याद रखो कि दुनिया का कोई भी घोड़ा ऐसा नहीं है, जिसकी सवारी तुम न कर सको।
घटना छोटी-सी है, पर उन सभी लोगों के लिए लागू होती है जो स्वयं को किसी महत्वपूर्ण उपलब्ध के लिए अयोग्य समझते हैं। दुनिया उस सिपाही जैसे असंख्य लोगों से भरी पड़ी है जो यह सोचते हैं कि अधिकाँश सुख उनकी पहुँच से बाहर है। इस सम्बन्ध में एक विचारक का कथन है कि, ‘दुनिया के कई लोग अपने आपको उन सौभाग्यशाली लोगों से अलग समझते हैं जो महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ऐसा सोचना कितना हानिकारक हैं, इसका अनुमान सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे विचार मात्र व्यक्ति को कई ऊँचाइयों पर पहुँचने से रोक देते हैं। अपने आपको बौना समझने वाला व्यक्ति देवता कैसे बन सकता है ?”
इसमें कोई सन्देह नहीं कि कोई भी व्यक्ति केवल उतनी ही सफलताएँ प्राप्त कर सकता है या उतनी ही उपलब्धियाँ अर्जित कर सकता है, जितनी कि वह चाहता है, चाहने को तो लोग न जाने क्या-क्या चाहते, न जाने क्या-क्या आकाँक्षाएँ और इच्छाएँ रखते हैं, पर वैसा चाहना और बात है तथा उसका फलित होना और बात। लोग चाहते हैं कि उसे पास खूब सम्पत्ति जमा हो, पर सौ में से दस प्रतिशत भी सच्चे मन से यह नहीं चाहते कि वे सम्पन्न बनें। उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि वे संपन्न भी बन सकते हैं। पानी में डूबते समय जैसे तीव्र आकांशा होती है कि बच जाया जाये और डूबने वाला व्यक्ति हाथ-पैर मारने लगता है, अपने शरीर के दबाव और पानी की उछाल शक्ति में संतुलन बिठाने के लिए हड़बड़ाहट में ही सही प्रयत्न करने लगता है और फलस्वरूप तैरने लगता है। यही तीव्र आकाँक्षा का परिचय है। कोई व्यक्ति दरिद्रता से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे दरिद्रता में वैसी ही घुटन अनुभव करना चाहिए जैसी कि डूबने वाला व्यक्ति पानी में डूबते समय करता है, पर वैसी घुटन कहाँ अनुभव होती है ?
आत्म-विश्वासी भाग्य को अपने पुरुषार्थ का दास समझता है तथा उसे अपना इच्छानुवर्ती बना लेता है। इसके लिए आवश्यकता केवल इस बात की है कि उचित मूल्याँकन किया जाए और आत्मविश्वास को सुदृढ़। यदि अपना उचित मूल्याँकन किया जाये तो वह निष्कर्ष अपनी प्रतिभा का स्पर्श पाते ही जीवन्त हो उठता है तथा व्यक्ति बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को लाँघ सकता है। नैपोलियन को अपने विजय अभियान में जब आल्पस् पर्वत पार करने का अवसर आया तो लोगों ने उसे बहुत समझाया कि आज तक आल्पस् पर्वत कोई भी पार नहीं कर सका है और इस तरह की चेष्टा करने वाले को मौत के मुँह में जाना पड़ा है। उन व्यक्तियों को नैपोलियन ने यही उत्तर दिया था कि मुझे मौत के मुंह में जाना मंजूर है, पर आल्पस् से हार मानना नहीं और इस निश्चय के सामने आल्पस् को झुकना ही पड़ा।
स्मरण रखा जाना चाहिए और विश्वास किया जाना चाहिए कि इस संसार में मनुष्य के लिए न तो कोई वस्तु या उपलब्धि अलभ्य है तथा न ही कोई व्यक्ति किसी प्रकार अयोग्य है। अयोग्यता एक ही है और वह है अपने आपको प्रति अविश्वास। यदि अपना उचित मूल्याँकन किया जाये तो कोई भी बाधा मनुष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचने से नहीं रोक सकती।