Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सुशिक्षित कहलाने का अधिकार
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अपने दुःख अभाव और क्लेशों के लिए लोग प्रायः भाग्य को दोष देते हैं, परिस्थितियों को कारण बताते हैं और सोचते रहते हैं कि काश ! ऐसा हो सका होता तो अच्छा रहता। यह चिन्तन ही हताश और निराश का द्योतक है। अन्यथा मनुष्य अपने आपसे इतना सर्वांगपूर्ण है कि यदि वह ठीक ढंग से सोचना, समझना सीख जाए और समुचित रीति से प्रयत्न करने लगे तो परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हो वह आगे बढ़ने और प्रगति करने की राह निकाल ही लेता है। कठिन में कठिन और प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी यदि मनुष्य अपना आत्मविश्वास, साहस, सूझ-बूझ और मनोबल न खोये तो कोई कारण नहीं कि परिस्थितियों से हार न माननी पड़े।
अधिकाँश लोग अपनी आर्थिक स्थिति के कारण चिन्तित रहते हैं। अर्थाभाव के कारण हजारों, लाखों नहीं करोड़ों लोग दिन रात चिन्ता और निराशा के थपेड़ों में अपनी जीवन नैया खेने का प्रयास करते हैं। परन्तु जो लोग इन अंधड़ों में आशा और पुरुषार्थ की पतवार बाँध सके, उनके न केवल परिस्थितियों को परास्त कर दिखाया वरन् अपने ही समान अन्य व्यक्तियों के लिए भी अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है। भले ही ऐसे व्यक्तियों की संख्या थोड़ी हो, पर है अवश्य और थोड़ी इसलिए है कि अधिकाँश व्यक्ति निर्धनता और धनाभाव के सामने इस प्रकार घुटने टेक देते हैं कि उन्हें कुछ करने की सूझ ही नहीं पड़ती।
जो अपना सन्तुलन बनाये रखते हैं, वे कोई न कोई ऐसा मार्ग अवश्य निकाल लेते हैं जिससे कि समृद्धि चरण चेरी बन जाये। दुनिया में लगभग सभी लोग सुबह शाम चाय का व्यवहार करते हैं और चाय पीने वाले ‘लिप्टन की चाय’ से भी परिचित हैं। पर ऐसे लोग शायद कम ही हैं, जिन्हें यह मालूम हो कि लिप्टन कौन थे ? क्या करते थे ? इनका परिचय उनके ही शब्दों में इस प्रकार हैं- मैंने अपना जीवन एक स्टेशनरी की दुकान में काम करने वाले लड़के के रूप में आरम्भ किया। उस समय मुझे दस शिलिंग डालर रोज मिलते थे और इसी शुरुआत के बाद मैंने आगे बढ़ना आरम्भ किया तथा किफायतशारी के नियमों पर चल कर अपने व्यापार को संसार भर में फैला सका हूँ। जिन्दगी में फिजूल खर्चों से मुझे सख्त नफरत रही है। जो काम में खुद कर सकता था, उसे मैंने दूसरों पर कभी नहीं छोड़ा जो काम दो डालर में हो सकता था, उसके लिए सवा दो डालर कभी खर्च नहीं किये और न मैंने किसी प्रकार की व्यर्थ की जरूरतों को अपनी लिए बढ़ाया।
दस शिलिंग प्रति सप्ताह से अपना जीवन आरम्भ करने वाले राँमस लिप्टन की आमदनी लाखों डालर प्रति सप्ताह तक बढ़ गई और इन दिनाँक संसार भर में उनकी कम्पनी के एजेंटों की संख्या दस हजार से भी अधिक है तथा उनका व्यापार विश्व के सभी देशों में फैला हुआ है। परिस्थितियाँ शायद ही कभी किसी के लिए सहायक बनती हैं। प्रायः तो लोग उनसे अपने विकास में बाधाएँ ही अनुभव करते हैं, पर ऐसे पुरुषार्थी व्यक्तित्व भी हैं जो उनमें से भी आगे बढ़ने की राज निकाल लेते हैं। डेविडसन राकफैलर ऐसे ही व्यक्तियोँ में से एक थे।
राकफैलर परिवार की गणना आज विश्व में समृद्धतम व्यक्तियों में की जाती है। किन्तु इस समृद्धि का अर्जन करने वाले डेविडसन राकफैलर को अपने प्रारम्भिक जीवन में अपना तथा अपनी माँ का पेट पालने के लिए एक पड़ौसी के मुर्गीखाने में सवा रुपये रोज पर काम करना पड़ा था। कभी वे खेतों में आलू खोदने जाते थे तो कभी कोई और मजदूरी करने। इस थोड़ी सी आमदनी में से भी उन्होंने कुछ न कुछ नियमित रूप से बचाने का नियम अपनाया तथा उसी बचत से अपना एक नया काम शुरू किया। पचास वर्ष की आयु तक पहुँचने पर उनकी गणना संसार के अरबपतियों में की जाने लगी थी। बचपन में फटे हाल स्थिति में प्रौढ़ावस्था तक पहुँचते-पहुँचते की यात्रा का, सफलता का रहस्य बताते हुए उन्होंने एक अवसर पर कहा था, ‘मैं अपने पुरुषार्थ और विवेक पर विश्वास करता हूँ। आरम्भ से ही मैंने अपनी माँ के गुर को अपनी गाँठ से बाँध कर सदैव बचत का ध्यान रखा और प्रतिदिन, प्रतिमाह, प्रतिवर्ष कितनी बचत हुई इसका ध्यान रखता रहा।’
समृद्धि के लिए बचत ही नहीं मितव्ययिता भी अत्यंत आवश्यक है और उसके लिए व्यक्ति को आत्मसंयमी होना चाहिए। इस तथ्य हो निरूपित करते हुए उन्होंने कहा हैं, मैं शराब, तम्बाकू, जुआ इत्यादि को महँगी और बेकार की वस्तुएँ मानता हूँ। मिथ्याडम्बरों से मुझे घृणा है। प्रदर्शन की आदत को मैं मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी समझता हूँ। मैंने कभी भूल कर शराब और तम्बाकू को हाथ नहीं लगाया और अरबों डालर का स्वामी हो जाने के बाद भी कभी किफायतशारी नहीं त्यागी। साधारण-सी वस्तुओं में भी ठगे जाने के लिए मैं कभी राजी नहीं हुआ।
प्रतिवर्ष विज्ञान, साहित्य आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सेवाएँ करने वालों को दिये जाने वाला नोबुल पुरस्कार संसार का सबसे बड़ा पुरस्कार है। नोबुल पुरस्कार से तो अधिकाँश व्यक्ति परिचित होंगे, पर उसके प्रवर्तक अल्फ्रेड नोबुल का जीवन वृत जिन्हें मालूम है, वे जानते हैं कि उनके पिता एक जहाज में एक केबिन ब्वाँच अर्थात् जहाज के यात्रियों को उनके लिए आवश्यक वस्तुएँ समय पर पहुँचाने वाला बेयरा थे। आगे चलकर उनकी रुचि विस्फोटक पदार्थों के अधिकार की ओर हुई तथा उसी में उन्होंने अपने प्राण गँवा दिये। अब बचे रहे अल्फ्रेड नोबुल और उनकी विधवा माँ, जिन्हें बड़े कष्टपूर्ण और अभावग्रस्त स्थितियों में अपने दिन गुजारने पड़े।
अल्फ्रेड भी हमेशा किसी न किसी बीमारी के शिकार बने रहते थे। सदा रोगी रहने वाले अल्फ्रेड में प्रचण्ड मनोबल था और इस मनोबल के सहारे ही उन्होंने रोग बीमारियों की कभी कोई परवाह नहीं की तथा पुरुषार्थ और अध्यवसाय द्वारा इतनी सम्पत्ति अर्जित की कि उनकी गणना संसार के समृद्धतम व्यक्तियों में की जानी लगी। मरने तम उनके पास 20 लाख पौंड से भी अधिक की सम्पत्ति इकट्ठी हो चुकी थी, जिसके ब्याज से ही टैक्स आदि चुकाने के बाद छह लाख पौंड की विशुद्ध आय होती थी। अल्फ्रेड ने यह सारी सम्पत्ति प्रतिवर्ष ऐसे पाँच व्यक्तियों को पुरस्कृत करने के लिए दे दी जो मानवता की विशिष्ट सेवा में लगे हो। अब भी प्रतिवर्ष संसार के पाँच विभूतिवान व्यक्तियों को नोबुल पुरस्कार दिया जाता है। अभी पिछले वर्ष ही भारत में दीन−दुःखियों और अनाथ व्यक्तियों के लिए भारत में कई सेवाश्रम चलाने वाली मदर टेरेसा को यह पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार एक ओर जहाँ विभूतियों का सम्मान है, वहीं दूसरी ओर निर्धन तथा अभावग्रस्त व्यक्तियों के लिए ही नहीं, समृद्ध और सम्पन्न व्यक्तियों के लिए भी अल्फ्रेड नोबुल प्रेरणा के स्त्रोत और आदर्श बने हुए है।
जिन लोगों ने साधारण, अतिसाधारण स्थिति में उठ कर प्रगति की उल्लेखित सफलताएँ प्राप्त कीं उनमें एन्ड्रयू कारुनेगी का नाम भी उल्लेखनीय है न केवल उन्होंने उल्लेखनीय प्रगति की वरन् पिछड़े उपेक्षित और अविकसित लोगों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने डेढ़ अरब रुपयों का दान भी दिया। ऐन्ड्रयू के जीवनीकार ने उनके जीवन चरित्र में लिखा है, वे लोग गरीब थे। खाने के लिए अन्न और पहनने के लिए कपड़ों का जुगाड़ तो किसी प्रकार हो जाता था किन्तु हारी बीमारी में डॉक्टर या वैद्य को दिखा लेने की भी उनकी हैसियत नहीं थी। एन्ड्रयू कार्नेगी के पिता एक गरीब जुलाहे थे और कपड़े बुन-बुनकर जैसे-तैसे अपने परिवार का गुजारा चलाते थे। पहले वे लोग स्काटलैंड में रहते थे। पति की आय से निर्वाह ठीक प्रकार न चलते देखकर पत्नी ने एन्ड्रयू कार्नेगी की माता ने एक दुकान में जूते सीने और कपड़े धोने का काम करने लगी। इतने पर भी आर्थिक कठिनाइयाँ बनी रहतीं। एन्ड्रयू के पास कपड़ों का एक ही जोड़ा रहता था। जिसे माँ रात को सोने से पहले धोकर सुखाने के लिए रख देती।
इस तरह की अभावग्रस्त स्थिति में, जब कि निर्वाह का प्रश्न ही बहुत जटिल हो तो समुचित शिक्षा-दीक्षा का सवाल ही कहाँ उठता है ? स्वाभाविक ही कार्नेगी को स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने का अधिक तो क्या, थोड़ा बहुत कहा जा सके ऐसा अवसर भी नहीं मिल सका। शीघ्र ही अपने निर्धन परिवार की सहायता के एन्ड्रयू को पीटर्स वर्ग के एक तारघर हरकारे की नौकरी करनी पड़ी, जिससे उसे आये हुए टेलिग्रामों को बाँटने के लिए घर-घर जाना पड़ता था। यही कार्नेगी की महत्वाकाँक्षा जगी कि किसी प्रकार तारबाबू बना जाये और उन्होंने रात में देर तक जाग कर तार भेजने की कला का अभ्यास शुरू किया। एक दिन जिस टेलीग्राफ आफिस में वे नौकरी करते थे, वहाँ का तारबाबू छुट्टी पर गया हुआ था। कार्यालय में संयोगवश उस समय कोई नहीं था और वहाँ तार आया। कार्नेगी ने स्वयं वह सन्देश ले लिया और उसे पते पर पहुँचा दिया। अधिकारियों को कार्नेगी की इस कर्त्तव्य परायणता का पता चला तो उन्होंने कार्नेगी को पुरस्कृत करते हुए उनकी पदोन्नति कर दी। कर्तव्यनिष्ठा, कार्य तत्परता, परिश्रम और लगन के बल पर वे निरन्तर प्रगति करते रहे और जब वे युवावस्था से गुजर रहे थे तब उनकी आय सोलह हजार रुपये प्रतिमाह थी।
कार्नेगी ने केवल धन कमाया ही नहीं वरन् अर्जित सम्पदा का सर्वोत्तम उपयोग भी किया। वे सार्वजनिक सेवा कार्यों में पूरी रुचि लेते रहते थे। उन्होंने करीब डेढ़ अरब रुपये सार्वजनिक पुस्तकालयों शिक्षण संस्थाओं तथा अन्य लोकहित के कार्यों में दान दिये।
दुनिया के प्रायः सभी देशों में फोर्ड कम्पनी की बनी कारें उच्च धनाढ्य और शीर्ष सम्पन्न होने का प्रतीक समझी जाती है। बहुत ज्यादा धनवान लोग ही इन कारों को खरीद कर अपने धनवान होने की धाक जमाते हैं। इस कम्पनी के अधिष्ठान, संचालन और पोषक हैनरीफोर्ड की प्रारम्भिक स्थिति बहुत ही साधारण थी। अब उस कम्पनी में प्रतिवर्ष लाखों कारें बनती हैं। जिस व्यक्ति द्वारा स्थापित संस्था का उत्पादन प्रतिष्ठा और उच्च समृद्धि का प्रतीक समझा जाता है, उसके सम्बन्ध में यह तथ्य किसी आश्चर्य से कम नहीं है कि वह एक साधारण किसान का बेटा था। हैनरीफार्ड के पिता अपने निवास ग्राम में थोड़ी-सी जमीन पर खेती किया करते थे और जो पैदा होता उसी से परिवार का भरण-पोषण चलाते थे। चूँकि आय अधिक नहीं थी, निर्वाह भी मुश्किल से होता था इसलिये फोर्ड को उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर न मिल सका।
इसलिए हैनरी को पास के एक कस्बे में एक मैकेनिक के पास भेज दिया गया। मशीनरी सम्बन्धी प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद हैनरी ने एक मोटर का काम करने वाले संस्थान में नौकरी की। सूझ-बूझ, परिश्रम, लगाने आत्मविश्वास और प्रामाणिकता के बल पर हैनरी ने शीघ्र ही ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली कि कुछ सम्पन्न मित्रों की सहायता से सन् 1903 में फोर्ड मोटर कम्पनी की स्थापना की। आगे चलकर उन्होंने जहाज रानी के क्षेत्र में भी अच्छी सफलताएँ प्राप्त की।
हैनरी फोर्ड अपने जीवन काल में ही संसार के समृद्धतम व्यक्तियों में गिने जाने लगे थे, पर उस स्थिति में भी वे इतनी सादगी से रहते थे कि जब भी सादगी के महत्व की चर्चा होती है जो फोर्ड का उदाहरण अवश्य दिया जाता था। मितव्ययिता का गुण उनमें फूट-फूटकर भरा था, उसे कंजूसी की संज्ञा नहीं दी जाती। उनकी कम्पनी में करने वाले कर्मचारी अन्य अमेरिका कम्पनियों के कर्मचारियों की अपेक्षा अधिक वेतन पाते हैं। फोर्ड ने जनहित के कार्यों में भी जी खोलकर दान दिया, पर अपने प्रति वे कठारे ही बने रहे।
इस प्रकार अभावग्रस्त दीन-हीन अवस्था से उठ कर समृद्धि और सम्पन्नता के शिखर तक पहुँचने वाले पुरुषार्थियों की संख्या कम नहीं है। कई तो ऐसे है जिनके पूर्व जीवन में सम्बन्ध में अधिक कुछ जाना नहीं जा सका। पुरुषार्थ और परिश्रम के द्वारा लक्ष्मी को प्रसन्न किया जा सकता है इसमें कोई सन्देह नहीं है और जब सम्पन्नता अर्जित कर ली जाये तो उसकी सार्थकता इसी बात में है कि उपलब्ध साधनों का अधिकतम उपयोग जनहित के - लोक कल्याणकारी कार्यों में खर्च किया जाए।