Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सुरुचि का विकास इतना आवश्यक
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मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति का प्रधान माध्यम मन है। उसे ही बन्धन एवं मोक्ष का कारण बताया गया है। मन की चंचलता एवं चिन्तन प्रवाह को सुनियोजित करने से ही साधना के मार्ग में प्रगति मिलती है। मन का स्तर योगी के आहार पर निर्भर है। यह जितना सात्विक होगा, मन उसी अनुपात से निर्मल बनता चला जाएगा। अन्नमय कोष भी साधना के लिये अन्न की महिमा को प्रधानता देते हुए ही साधनाक्रम बिठाया जाता है। आहार शास्त्री बताते हैं कि अस्सी फीसदी रोगों के कारण आहार का व्यतिक्रम है। भूख से आरम्भ होने वाली यह प्रक्रिया आहार ग्रहण करने तथा उसे आत्मसात कर उसका निष्कासन होने तक व्यक्ति को प्रभावित करती है।
आधुनिक समाज में कैंसर, अर्थाइटिस, दमा, हृदयाधान से जोड़ा जाने लगा है। कुछ विशेषज्ञ तो यहाँ तक भी कहते हैं कि पाचन सम्बन्धी अनेक सामान्य असन्तुलन इन भयंकर रोगों के पूर्व संकेत है। राष्ट्र संघ की “पोषण एवं मानव की आवश्यकता” पर प्रकाशित एक रिर्पोट में कहा गया है कि “इस शताब्दी के प्रारम्भ से ही संक्रामक रोग बढ़ते चले आ रहे है। इसका कारण है आहार में विद्यमान संघटकों में परिवर्तन। कार्बोहाइड्रेट, फल, साग-सब्जी तथा अन्न के स्थान पर अब वसा, शर्करा-स्टार्च ने जगह ले ली है। कैलोरी सम्बन्धी आवश्यकता पूरी करने वाली सारी सामग्री का साठ प्रतिशत इन्हीं पदार्थों से बना होता है। शरीर की जीवनी शक्ति बढ़ाने के बजाय से सभी तथाकथित पोषक पदार्थ मनुष्य को पाचन सम्बन्धी रोगों तथा संक्रामक रोगों के जंजाल में डाल देते हैं। असामयिक मृत्यु के दस प्रमुख कारणों में से छह का सम्बन्ध आहार में है। कैंसर भी उसमें से एक हैं।”
नवीनतम वैज्ञानिक खोजों से यही स्पष्ट होता जा रहा है कि कैंसर का कारण, बचाव और उपचार में आहार का सर्व प्रमुख स्थान है। नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट अमेरिका के डॉ. गोरी के अनुसार पुरुषों में सभी प्रकार के कैंसर का साठ प्रतिशत तथा स्त्रियों में इकतालीस प्रतिशत सम्बन्ध आहार की अनियमितता से होता है। उपचार हेतु कितनी भी औषधियाँ खोज ली जायें, यदि आहार सम्बन्धी भ्रमों से मनुष्य ने जल्दी ही मुक्ति नहीं पायी तो सारे प्रयास निष्फल ही सिद्ध होंगे।
आहार से पहले बारी आती है भूख की। समय बेसमय भूख लगना वस्तुतः मनुष्य के भीतर की अपूर्णता या रिक्तता की द्योतक है। भूख का सम्बन्ध मन एवं चेतना से है। भूख अच्छे स्वास्थ्य का एक चिन्ह है। यह मस्तिष्क के लिये एक संकेत है कि शरीर को अन्न की जरूरत है। इस भूख के तीन प्रकार हैं-क्षुधा, व्यथा तथा भूख की असह्यता। क्षुधा रुचिकर भोजन की इच्छा से सम्बन्धित है। व्यथा या कसक जैविक क्रमानुसार पेट में कुलबुलाहट उठने से सम्बन्धित है। तीसरी असह्य भूख है, अचेतन स्तर पर शरीर को जीवित बनाये रखने के लिये प्रकृति की माँग है। आत्म-सुरक्षा हेतु निर्धारित सुरक्षा व्यवस्था है।
भूख के ये तीनों कारक मस्तिष्क को आवश्यक रस स्राव हेतु स्नायु संस्थान को सक्रिय करने के लिये संकेत देते हैं। शरीर के अन्दर ऐसी भी व्यवस्था है जो बताती है कि हमें कितना खाना चाहिए एवं कब खाना बन्द कर देना चाहिए। आन्तरिक सजगता का विकास यदि हुआ हो तो मनुष्य इन संकेतों के प्रति संवेदनशील हो जाता है एवं अपनी भूख की तीव्रता पर एक स्वाभाविक नियन्त्रण स्थापित कर लेता है। अति आहार के कारण होने वाली व्याधियों जैसे मोटापा, अजीर्ण तथा पाचन सम्बन्धी रोगों का निवारण करने के लिये आत्म नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक है। वासनामय चित्र, आत्मकेन्द्रित दृष्टिकोण, अनुसार वृत्ति, सुख उपभोगों में लिप्सा ही सारे शारीरिक असंतुलनों व मानसिक तनावों को जन्म देते हैं। भोग लालसा मन को इन सुखों के पीछे भागने को विवश करती है। जब व्यक्ति वासना से अभिभूत होकर अधिक खाता है तो रोग से ग्रस्त हो जाता है। इस प्राकृतिक नियम का दुरुपयोग व्यक्ति को निम्न अधोगामी प्रवृत्तियों में ही लिप्त रखता है। तथा अति आहार के लिये विवश करता है।
शरीर की सूक्ष्म एनाटामी के अनुसार स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध सुखानुभूति व काम-वासना से है। भोजन और सम्भोग इन स्वाभाविक वासनाओं की पूर्ति में ही सामान्य पशु लिप्त रहते हैं। कामवासना की स्वाभाविक पूर्ति में कोई अवरोध हो अथवा पूर्व सन्तुष्टि प्राप्त न हो तो अन्तः प्रवृत्ति के वशीभूत हुआ मनुष्य उसकी पूर्ति भोजन द्वारा करता है। ये चक्र संस्थान हमारे आटोमेटिक नर्वस सिस्टम का एक भाग है। इन्हें सुनियोजित कर हम अपने अन्दर के जंगली पशु को साध सकते हैं। यह संस्थान आटोमेटिक है जो बिना किसी चेतन निर्देशन के अपना कार्य करता है। वैज्ञानिक वायोफीडबेक पद्धति द्वारा अन्तः नियन्त्रण व संयन्त्रों का प्रशिक्षण प्रयोग रूप में कर दिखाते हैं, इसी तरह पंचकोशों की साधना से आटोमेटिक नर्वस सिस्टम को चैतन्य नियन्त्रण में रखने तथा भाव-सम्वेदनाओं की अतिरेकता के प्रभावों से बचाये रखने में सहायता मिलती है।
भूख के बाद बारी आती है आहार की। आहार की शुद्धता क्यों आवश्यक है, इस सम्बन्ध में शास्त्रकार निर्देश देते है:-
अन्नमयं हि सोम्य मन !(छान्दोग्य)
हे सोभ्य ! यह मन अन्नमय है।
अन्नमशितं प्रेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तपुरोषं भवति यौ मध्य मस्तन्मा सं योगतिष्टास्तन्मव।
जो अन्न खाया जाता है, वह तीनों भागों में विभक्त हो जाता है। स्थूल अंश मल, अध्यम अंश रस-रक्तमाँस तथा सूक्ष्म अंश मन बन जाता है।
आहार शुद्ध्या नृपते, चित्र शुद्धिश्च जायते ।
शुद्धे चित्रे प्रकशः स्यार्द्धमस्य नृपसत्तम्॥
देवी भागवत
हे राजन ! आहार शुद्धि होने पर चित्त की शुद्धि होती है। इस निर्मल चित्त से ही धर्म का प्रकाश होता है।
आहार स्वाद के लिये नहीं, औषधि रूप में लिया जाना चाहिए। उसकी अन्तःशक्ति को ध्यान में रखा जाय। यह जीवन है-जीवन का आधार है, यह समझते हुए उसकी स्वादिष्टता को नहीं सात्विकता को ही महत्व दिया जाना चाहिए। अभक्ष आहार उल्टा प्राणी को ही खा जाता है एवं विपत्ति का कारण बनता है। उपनिषद्कार इस वैज्ञानिक तथ्य को इस तरह व्यक्त करता है-
अन्नं हि भूतानाँ ज्येष्ठम्। तस्मात्सर्वोष्ध मुच्यत
जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेति च भूतानि॥
तैत्तिरीय
प्राणियों में अन्न ही श्रेष्ठता है। इसलिए उसे सर्वोत्तम औषधि कहते हैं। अन्न से जीव जन्मते और बढ़ते हैं। जीवधारी अन्न को खाते हैं, पर वह अन्न जीवों को भी खा जाता है।
यह स्थिति तब आती है जब मनुष्य अभक्ष्य एवं अति पर उतर आता है। प्रसिद्ध अमेरिकन सिनेतारिका ग्लोरिया लिखती हैं कि “ मुझे गर्भाशय का कैंसर बता दिया गया था। चिकित्सकों के अनुसार मेरी आयु मात्र 1 वर्ष थी यदि में शीघ्र आपरेशन द्वारा यूटेरस को न निकलवाती।” ग्लोरिया ने इस सर्जरी को अनावश्यक मान आहार विशेषज्ञ से राय लेकर अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन किया। जहाँ वह दिन में कईबार खाती थी एवं माँसाहार-चर्बी युक्त भोजन करती थी, कहाँ शाक सब्जी, अन्न ने व उपवासों के क्रम के स्थान ले लिया। अढ़ाई वर्ष बाद पुनः परीक्षण होने पर पाया गया कि उसका ट्यूमर पूर्णतः लुप्त हो गया था। योग, आहार व इच्छा शक्ति के आधार पर मनुष्य रोगों पर विजय प्राप्त कर सकता है, यह अब एक सुनिश्चित तथ्य है।
आहारभक्ष्स निवत्ता विशुद्ध् हृदय भवेत।
आहार शुद्धो चितस्य विशुद्धिर्भवति स्वतः चित्ते शुद्धे क्रमाज्ञ ज्ञानं भिन्दयते ग्रन्थमः स्फुरम॥पाशुपत ब्रह्योपनिषद्
अभक्ष्य आहार त्याग देने से अन्तःकरण पवित्र होता है। चित्त की शुद्धि स्वयमेव होने लगती है। इस चित्त शुद्धि के आधार पर सद्ज्ञान का उदय होता है और अवरोधों की ग्रन्थियाँ खुल जाती है।
अन्नमय कोष की साधना में साधक को इन्हीं बातों का ध्यान रखना होता है। समग्र स्वास्थ्य का आधार सात्विक आहार है, इसी मूल-दर्शन को योगविज्ञान में केन्द्र बिन्दु माना गया है। साधक का आहार अनेक स्वादों का नहीं होना चाहिए। एक ही पदार्थ व एक ही स्वाद उत्तम है। गाँधी जी ने सप्त महावर्त्त लेखमाला में प्रथम व्रत अस्वाद को माना है। उनके अनुसार यदि जितेन्द्रिय की प्रबलता पर अंकुश लगाया जा सके तो कामेन्द्रियों पर सहज नियन्त्रण किया जा सकता है।
वस्तुतः पतन का आरम्भ जिव्हा के असंयम से ही आरम्भ होता है। जो व्यक्ति अपनी रसना को वश में कर लेता है, उसका चिन्तन कभी कामुकता में लीन नहीं हो सकता। किसी भी साधक, आत्मिक प्रगति के विद्यार्थी के लिये इसलिये इन प्राथमिक अभ्यासों को साधना में आवश्यक बताया गया है।
प्राचीनकाल में योगाभ्यासी ऋषियों का भोजन परम सात्विक होता था। महर्षि कणाद अन्न के दाने बीनकर गुजारा करते थे। पिप्पलाद का आहार था पीपल वृक्ष के फल। जैसी स्थिति आज कहीं पायी नहीं जा सकती, पर जितना कुछ सम्भव है, आहार की सात्विकता और व्यवस्था पर अधिकाधिक अंकुश रखना साधक की सफलता के लिये नितान्त जरूरी है।
अन्न के विषय में कहा गया है कि यह एक स्तर पर औषधि है, दूसरे पर तृप्ति और तीसरे पर विष। नारी एक स्तर पर माता, दूसरे पर बहिन या पुत्री तथा पर विषय वासना से भरी रमणी। एक ही वस्तु के तीन स्वरूप है। जिसने अन्न की सात्विक और सीमित मात्रा में ही उपयोगिता को समझा, वह न केवल शारीरिक दृष्टि से लाभ प्राप्त कर सका, अपितु चिन्तन तथा भावनाओं को उत्कृष्टता की ओर नियोजित कर स्वयं को आध्यात्मिक दृष्टि से भी ऊँचा उठा सका है।
उपनिषद्कार कहता है:-
एवमेव खलु सोम्यान्नस्याश्य मानस्य याऽणिमा स ऊर्ध्वः
मुदीषति तन्मनोभवति। अपा(सोम्य पीयमाननाँ योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदीषति सा वाग्भवति॥ (छान्दोग्य)
हे सौम्य! इस प्रकार ही खाये गये अन्न का जो भी सूक्ष्म भाग होता है, वह ऊपर उठ जाता है एवं मन का तन्तु जाल बनाता है। ऐसे ही पिये जाते हुए जलों का जो सूक्ष्म अंश आता है, वह ऊपर नितर आता है एवं प्राणमय जीवन बनाता है। ऐसे ही खाये हुए तेज का जो सूक्ष्म अंश होता है वह ऊपर नितर आता है एवं वाणी बन जाता है।
ऋषिगणों की इतनी सूक्ष्म दृष्टि थी कि उन्होंने साधना के स्वरूप को बोधगम्य बनाने के लिए आहार के सभी आयामों को शरीर मन की संरचना के साथ सम्बन्धित कर प्रस्तुत किया।
दुश्चिन्तन ही समस्त व्याधियों का मूल है। यह मनुष्य को अपनी अन्तःवृत्तियों का दास बनने पर विवश कर देता है। अन्नमय कोष की साधना आहार सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण के परिष्कार की साधना है। साँसारिक जीवन में सफलता की बात हो या आत्मिक उत्कर्ष की, सुखी स्वस्थ जीवन दोनों के लिये जरूरी है। जो अपनी वृत्तियों का परिशोधन कर अपने जीवनक्रम में परिवर्तन कर लेता है वह अन्नमयकोश जागरण की साधना के इस प्रथम चरण को पार कर लेता है। शुद्ध सात्विक भोजन, मित आहार, प्रसन्न मन से भगवान से प्रसाद रूप में ग्रहण किया गया भोजन, स्वाद विशेष में रुचि न रख बीच-बीच में अस्वाद व्रत का पालन, परिश्रम की कमाई का ही भोजन निश्चिंततः साधक की इस प्राथमिक भूमिका को सशक्त बनाते हैं।