Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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देवमानव का सृजन निकट भविष्य में ही होगा
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सुसन्तति के संबन्ध में सामान्य तथा इतना ही समझा जाता है। यदि माता-पिता स्वस्थ सुन्दर हों तो उनकी संतान वैसी ही उत्पन्न होगी। यदि खान-पान अच्छा मिले-सुविधा शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो तो बच्चे विकसित बनेंगे। यह तथ्य एक अंश तक ही सीमित है। वस्तुस्थिति कुछ और ही है।
रज वीर्य के बहुत ही छोटे-खुली आँखों से न दीख पड़ने जितने नन्हे कण अपने भीतर उस ऐसी रहस्यमय परम्परायें जोड़े रहते हैं। जिनका सन्तान के शरीर और मन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। यह परम्परागत सम्पत्ति कितनी ही पीड़ियों बाद भी उभर सकती है। उसी प्रकार पिता के पूर्वजों में रही कोई विशेषता भी सन्तान में प्रकट हो सकती है। यह ऐसी विलक्षण भी हो सकती हैं जिनका माता-पिता की तात्कालिक शारीरिक मानसिक स्थिति से कोई सीधा सम्बन्ध न हों।
माता पिता की शारीरिक मानसिक स्थिति से भिन्न एवं विपरीत प्रकार के बालकों के जन्मने का कारण ढूँढ़ते हुए जीव विज्ञानी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि रज एवं शुक्र कीटों के भीतर रहने वाले जीवाणुओं की परम्परागत सञ्चित सम्पदा अवसर पाकर फलित प्रकटित होती है और उसी से ऐसी विभिन्नताएँ सामने आती रहती है। अतएव सन्तान को सुयोग्य सुविकसित देखना हो तो माता-पिता की शारीरिक मानसिक स्थिति को पर्याप्त न मानकर वंश परम्परा की विशेषता पर भी ध्यान देना होगा।
जीनी के विभिन्न उपभागों द्वारा मनुष्य के विभिन्न अंग प्रत्यंग बनते हैं इस प्रक्रिया को अनुशासन में रखने के लिए शरीर में कुछ रासायनिक पदार्थों की आवश्यकता होती हैं। जिन्हें ऐंजाइम कहते हैं। इन ऐंजाइम में वे संभावनाएँ व्यस्त रहती हैं जिनके ऊपर शरीर और मन में समयानुसार अनेकों भली बुरी विशेषताएँ उभरती रहती है।
प्रजनन के लिए काम आने वाला कोष केन्द्र दो अर्ध घटकों में विभाजित होता है। नारी वर्ग के कोष ‘अण्ड’ और पुरुष वर्ग के कोष शुक्राणु कहलाते हैं। इन दोनों का मिल नहीं मनुष्य के जीवन आरम्भ का श्रीगणेश हैं।
जीव कोष में 46 ‘क्रोमोसोम’ होते हैं। इन्हें तीतर–बितर करके पृथक्-पृथक् पहचाना जा सकता है। इनमें 44 तो नर नारी में एक जैसे होते हैं इनका कार्य शरीर निर्माण भर होता है। शेष दो नर मादा अलग-अलग होते हैं इन्हें सैक्स क्रोमोज़ोम कहते हैं। इन्हें वैज्ञानिकों की भाषा में ‘एक्स’ और ‘वाई’ कहते हैं। नर में एक एक्स और एक ‘वाई’ होती है पर मादा में दोनों ‘एक्स’ होते हैं। बालक बालिका का जन्म होना पूर्णतया नर की स्थिति पर निर्भर है। उसमें यदि ‘क्ष’ की प्रधानता होगी तो लड़का उत्पन्न होगा। इसमें मादा का कोई हाथ नहीं, क्योंकि उसमें तो सदा ‘क्ष’ कोष ही रहता है कन्याओं की अधिकता में आज जो नारी को दोष दिया जाता है वह सर्वथा गलत है। यह नर पक्ष ही है जिसमें यदि ‘क्ष’ कणों की प्रमुखता है तो कन्याओं ही कन्यायें होती रहेंगी। हाँ, माता-पिता में से किसी के अणु प्रबल होगे तो आकृति प्रकृति में उसकी प्रधानता लिए हुए बालक जन्मेगा।
वर्ण शंकर पद्धति को कुछ समय पूर्व अच्छा माना जाता था। भिन्न स्तर के रक्तों के सम्मिश्रण की वकालत इसलिए की जाती थी कि उसका दृश्य परिणाम अच्छा निकलता है। एक जाति का मिश्रण दूसरी से किया जाय तो शारीरिक परिणाम अच्छा निकलता है। घोड़ी की तुलना में हलका भले ही पड़े पर गधे से तो निश्चित रूप से मजबूत होता है। इसके शंकरत्व से गधा वर्ग को लाभ मिलता है। उसकी उन्नति का पथ प्रशस्त होता है। वृक्ष वनस्पतियों में भी यह प्रयोग किये गये है और फसलें उगाने में इसकी सफलता देखी गई हैं। इसलिए पिछले दिनों पूरे उत्साह के साथ वर्ण शंकर प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता रहा है।
सन् 1865 में आस्ट्रिया की एक मठवासी वैज्ञानिक मंडली ने पादरी मेंडले के नेतृत्व में मटर की विभिन्न जातियों को वर्ण शंकर नस्लें पैदा करके उनमें अनोखी विशेषताएँ पैदा की उन्होंने सिद्ध किया कि पीड़ियों से चली आ रही परम्परा में कुछ मूल तत्त्व सन्निहित रहते हैं और कारण वश उन्हीं के दबने उभरने से विविध विशेषता सम्पन्न नस्लें प्रकाश में आती है। गुण सूत्रों की ओर इस शोध में महत्त्वपूर्ण संकेत था। इस शोध के अनुसार वे इतना अनुभव सम्पादन कर सकें कि मिश्रित जाति के पौधों में बदले हुए रंग , आकार , प्रकार , स्वाद , फूल आदि में सम्भावित परिवर्तन की पूर्व घोषणा कर देता और वह अनुमान प्रायः सही ही निकलता। मेंडेल द्वारा स्थापित वे एक शताब्दी से भी अधिक पुराने सिद्धान्त अभी भी उस क्षेत्र में प्रामाणिक माने जाते हैं
किन्तु यह उत्साह बहुत आगे तक न बढ़ सका। तात्कालिक थोड़ा दृश्यमान लाभ भर ही वर्ण शंकरत्व का होता है अन्ततः उसके दुष्परिणाम ही निकलते हैं। गधी और घोड़ी से उत्पन्न ‘खच्चर’ नपुंसक होते हैं उनकी पीढ़ियाँ आगे नहीं चलती। गधी और घोड़े के संयोग से उत्पन्न बच्चे तो माता पिता दोनों की तुलना में गये गुजरे होते हैं।
कलमी वृक्षों पर फल जल्दी, मीठे और बड़े तो जरूर आते हैं पर वे उतने गुणकारी नहीं होते। फिर उन वृक्षों का विकास एवं जीवन तो निश्चित रूप से अपेक्षाकृत स्वल्प होता है। इस प्रकार वह तात्कालिक लाभ अन्ततः घाटे का सौदा ही सिद्ध होता है। इस दृष्टि से जातिगत वर्ण शंकरत्व की महिमा जो पिछले दिनों बहुत गाई जाती थी अब धूमिल पड़ गई है और जहाँ तक सुसन्तति का प्रश्न है, पूर्वजों की वंश परम्परा को ध्यान में रखने पर बहुत जोर दिया जाने लगा है।
आनुवांशिकी अन्वेषण में शोध कार्य की शृंखला में एक के बाद एक उपयोगी कड़ी जुड़ती ही चली गई है। हालैण्ड के वैज्ञानिक ह्यू गोदकी ने इस दिशा में बहुत कार्य किया। इस दिशा में मेंडल, फिशर हाल्डेन, राइट, सटन, मार्ग्रन ,हर्मन, मूलर, फेडरिक मीशर , लीनस पािलग, फ्राँसिस क्रिक, वाटसन, क्रिक, मार्शल निरेन वर्ग, राबर्ट-हाले प्रभृति वैज्ञानिकों ने विश्व के विभिन्न देशों में शोध संस्थानों के अन्तर्गत बहुत काम किया। अनेक विश्व विद्यालयों ने इस अन्वेषण को महत्त्व दिया। प्रयोगशालाओं बनाई तथा गुण सूत्रों के स्वरूपों को समझने तथा उनमें हेर-फेर करने की दिशा में आशाजनक प्रगति की। अमेरिका में काम कर रहे भारतीय मूल के डाक्टर हरगोविंद खुराना ने विस्कासिन विश्व विद्यालय में इस विषय में महत्त्वपूर्ण शोधें की और नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया।
सुविकसित जातियाँ अपनी रक्त शुद्धि पर इसी दृष्टि से जोर देती रही है और उनमें अपने ही कुल वर्ग के अंतर्गत विवाह करने पर जोर दिया जाता रहा है। मिश्र के शासक कभी इस सम्बन्ध में बहुत कठोर थे। योरोप के राज्य परिवारों में इस बात पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा है। हिटलर ने जर्मन जाति को शुद्ध आर्य रक्त घोषित किया था और उस वर्ण की रक्षा पर जोर दिया था। भारत में रोटी बेटी के लिए जाति मर्यादायें स्थापित थी। इन प्रचलनों के मल में कुछ वैज्ञानिक तथ्य थे पर पीछे वे बातें ढकोसला मात्र रह गई। जाति-पाँति की प्रथा तो ध्यान में रही पर पीड़ियों में क्या क्या सूक्ष्म विशेषताएँ पनप रहीं है और इसकी खोज का कोई आधार न रहा, फलतः यह जाति के अन्तर्गत विवाह करने वाली बात भी रूढ़िवादिता मात्र सिद्ध हुई। उसका भी अभीष्ट सत्परिणाम देखने को नहीं मिला।
हीमोफीलिया, एल्केप्टी नूरिया, एल्केप्टोनमीह, सरीखे रोग अक्सर समोत्र विवाहों के कारण होते हैं। जाति और उपजाती के कठोर बन्धनों में बँधी जातियाँ क्रमशः दुर्बल होती चली जाती है।
ऐसी दशा में उभयपक्षीय संकट उत्पन्न होता है। न वर्ण शंकरत्व का समर्थन करते बनता है और न खण्डन। फिर सुसन्तति की समस्या-पीड़ियों का सुधार संवर्धन कैसे किया जाय?
इस सन्दर्भ में शोध निष्कर्ष यह निकले है कि रज वीर्य के सूक्ष्म स्वत्व गुण सूत्रों का परिष्कृतीकरण किया जाय, उन्हें नये स्तर पर सुधारा सँभाला जाय, उनमें समाविष्ट विकृतियों का नये आधार पर संशोधन किया जाय और इस परिशोधन के उपरान्त सुविकसित पीढ़ियाँ आरम्भ करने का श्रीगणेश किया जाय।
प्राचीन काल में सम्भवतः नियोग प्रथा इसी दृष्टि से था। सुयोग्य सन्तानोत्पादन में समर्थ नर नारी यदि परस्पर विवाह सम्बन्ध में नहीं बँधना चाहते थे तो भी सुसन्तति की उपलब्धि के लिए शारीरिक संयोग को वैध मान लेते थे। भारतीय धर्म ग्रन्थों में इस प्रकार के प्रचलन को मान्यता दी गई है। कुन्ती के पाँचों पुत्र उनके वैध पति द्वारा उत्पादित नहीं थे। व्यास द्वारा पाण्डु और धृतराष्ट्र को जन्म देना, शुकदेव की , शकुन्तला की उत्पत्ति कुछ ऐसे ही स्तर की थी। ऐसे अगणित उदाहरण उपलब्ध है। पर इस अनुकरण में भी वंश परम्परा की पूर्ण शुद्धि का निश्चय नहीं फिर दाम्पत्य जीवन की पवित्रता का भी व्यतिरेक होता है। किन्हीं उच्चस्तरीय प्रयोगों की बात दूसरी है पर यह प्रचलन भी सर्व सुलभ प्रथा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे व्यभिचारजन्य दुष्परिणाम से सुसन्तति प्राप्त करने की तुलना में होने वाले लाभ का कुछ विशेष महत्त्व न रह जाएगा
अस्तु यह मार्ग अधिक उपयुक्त है कि गुण सूत्रों को परिष्कृत करके सुसन्तति की प्रक्रिया आगे चलाई जाय। दशरथ जी को पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा सुसन्तति प्राप्त होने का उदाहरण उसी स्तर का है। भारत में उसके लिए पति पत्नी के लिए तप साधना को आधार बताया जाता रहा है। कृष्ण और रुक्मिणी द्वारा बद्रीनाथ धाम में बारह वर्ष तक तक तप करने की तपश्चर्या इसी उद्देश्य से की गई थी और उन्हें मनोवाँछित सन्तान प्रद्युम्न के रूप में प्राप्त हुई।
वंश परम्परा की महत्ता को अधिक प्रकाश में लाने वाले आनुवांशिक विज्ञान के क्रमिक अन्वेषणों में एक के बाद एक रहस्योद्घाटन किये है। जिनके आधार पर यह सम्भावना स्पष्ट हो सकी है कि अभीष्ट विशेषताओं से सम्पन्न मनुष्य का निर्माण सम्भव है। पैतृक दोष प्रवाह को हटाया भी जा सकता है और ये नर-नारी युग्मों की केवल विशेषताओं में ही विकसित हो सकती है और विकृतियाँ क्रमशः समाप्त की जा सकती है। यह उपलब्धियाँ भावी मनुष्य विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आशा की जानी चाहिए कि यदि प्रयास आगे बढ़ते रहे तो समुन्नत वर्ग का मनुष्य निर्माण कर सकना स्वप्न न रहकर एक तथ्य बन जाएगा
जेनेटिक (आनुवांशिकी) के विशेषज्ञ पियरेलुई और लैमार्क इस बात से सहमत है कि इस विज्ञान की सहायता से मानवी पीढ़ियाँ क्रमशः अधिक सुविकसित बनाई जा सकेंगी और वह दिन आएगा जब इस धरती पर ‘सुपरमैन’ (देव मानव) ही प्रधान रूप से पाये जायेंगे पर दो नोबेल पुरस्कार विजेता जैक मोनो और प्रो० निकोलाय दुबिनिन इस सम्बन्ध में बहुत संदिग्ध है। वे कहते हैं कि उन सबका सुधार परिष्कार कर सुपरमैन पीढ़ी का निर्माण तो अभी आकाश कुसुम ही कहा जा सकता है।
प्रयोग यह भी चल रहा है कि मनुष्य जाति की अगणित पीढ़ियों में घुसी विकृतियाँ का संशोधन करके परिष्कृत ‘जीन’ विनिर्मित करने की उपेक्षा-विभिन्न जीवों की विशेषताओं को लेकर एक ऐसा सम्मिश्रण बनाया जाय जिससे सर्वथा नये स्तर का जीवन तत्त्व बन सके और उसमें उन विशेषताओं का समावेश किया जाय जिनकी कि संसार को अगले दिनों आवश्यकता पड़ेगी।
जड़ समझे जाने वाले पदार्थों में जीवन तत्त्व होता है और उसे विकसित करके चेतन तत्त्व का सृजन किया जा सकता है। यह तथ्य अब ‘कृत्रिम जीन’ निर्माण हो जाने की सफलता ने प्रमाणित कर दिया है। अस्तु यह संभावना स्पष्ट हो चली है कि संसार के उपयोगी पदार्थों के स्वत्व लेकर अभिनव मनुष्य का निर्माण निकट भविष्य में हो सकेगा।
नोबेल पुरस्कार प्राप्त डॉ० हरगोविंद खुराना ने अपने अन्वेषणों से सिद्ध किया है कि एक परीक्षण नलिका में जैविक रसायनों के सम्मिश्रण से ‘कृत्रिम जीन तैयार किया जा सकता है। अब वंश-वृद्धि के लिए प्राकृतिक जीन की अनिवार्य आवश्यकता नहीं रही। भविष्य में खिलाड़ी, विद्वान्, कलाकार, लड़ाकू आदि प्रकृति के मनुष्य इच्छानुसार उत्पन्न किये जा सकेंगे कृत्रिम तन्तुखण्ड भी ठीक वैसे ही है जैसे कि प्राकृतिक डीओक्सीरिवो न्यूक्लिक एसिड (डी० एन० ए०) के अणु।
कृत्रिम ‘जीन’ का निर्माण एक बड़ी दार्शनिक गुत्थी उत्पन्न करता है या सुलझाता है। अब तक जड़ चेतन का भेद इस आधार पर किया जाता रहा है कि जड़ वे हैं जिनमें चेतना नहीं। अब हर जड़ को चेतना मानना पड़ेगा या हर चेतन को जड़। शरीर और आत्मा के सन्दर्भ में आत्मवादी दर्शन यह परिभाषा करता रहा है कि शरीर जड़ है और आत्मा चेतन। पर अब कृत्रिम जीन का निर्माण यह सिद्ध करता है कि जड़ को विकसित करके चेतन की स्थिति में पहुँचाया जा सकता है। मूलतः हर जड़ में चेतना विद्यमान् है। इस प्रतिपादन से वेदान्त की अद्वैत मान्यता की पुष्टि भी होती है जिसके अनुसार इस जगत् को ब्रह्ममय बताया गया है और किसी ‘जड़’ के अस्तित्व से ही इनकार किया गया है।
इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध प्रकृति शास्त्री डार्विन ने प्राणियों और वनस्पतियों के मूल अस्तित्व के सम्बन्ध में विशेष अध्ययन किया। 16 वीं शताब्दी के तृतीय और चतुर्थ दशक में उसने अपनी शोधों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि विभिन्न जीवों की विभिन्न उप जातियों के बीच गज़ब की समानताएँ और असमानताएँ विद्यमान् है। उसने अपने दो ग्रन्थों में यह प्रतिपादन किया कि-समस्त जीवधारी एक ही आदि जीव के विकसित और परिवर्तित रूप है। परिस्थितियों का सामना करने के लिए जीवों ने अपने आपमें आवश्यक परिवर्तन किये है। डार्विन का कथन यही हैं कि परिस्थितियों का दबाव और प्राणी की जीवित रहने की इच्छा इन दोनों तत्त्वों के समन्वय ही जीवों की अगणित आकृतियों और प्रकृतियों के उद्भव का मूल कारण है।
जब समस्त जीवधारी एक ही आत्मा सत्ता की शाखा प्रशाखा हैं और उनके बीच एकता की सघन सम्भावनायें विद्यमान् है तो फिर उनका पुनः विभाजन संयोजन करके क्यों नहीं एक ऐसी नई जाति का सृजन किया जा सकता है। जो आज की परिस्थितियों के अनुकूल उपयुक्त हो। वैज्ञानिक इस सम्भावना को स्वीकार करते हैं और इसके अभिनव उत्पादन की सूत्र शृंखलायें ढूँढ़ने में तत्परता पूर्वक संलग्न है। उनके मत से भावी पीढ़ियाँ शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ऐसी उपयुक्तताओं से भरी पूरी बनाई जा सकेंगी जो संसार में शान्ति और प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकें।
अध्यात्म विद्या इस प्रकार के सफल निष्कर्ष बहुत पहले ही निकाल चुकी है कि तप साधना से पति-पत्नी के शरीरों में विद्यमान् गुण सूत्र परिष्कृत किये जा सकते हैं। पीढ़ियों से चली आ रही विकृतियों का निराकरण किया जा सकता है और साधना पूँजी से सुसम्पन्न व्यक्ति यदि ब्रह्मचर्य पालन की तरह ही सुसन्तति उत्पादन का प्रयोजन सामने रखें तो निस्सन्देह ऋषि परम्परा की पीढ़ियों का सृजन हो सकता है और आनुवांशिकी विज्ञान जिस महामानव के आदि पूर्वज को विनिर्मित करने में संलग्न है उसका प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। अध्यात्म और विज्ञान के सहयोग समन्वय से यह युगान्तर-कारी प्रयोग और भी अधिक सफलता एवं शीघ्रता से सम्पन्न हो सकता है।