Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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पात्रता प्रमाणित करें और विभूतियों का वरदान पायें
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महा कवि शूमैन कहा करते थे-विभूतियों की अप्सरा उस यक्ष के साथ सहनृत्य करने के लिए अन्तरिक्ष में आतुर फिरती है जो अपनी कला को प्रामाणिकता की कसौटी पर खरी सिद्ध कर सकें।
विविध स्तर की सफलताएँ जब सामान्य समझे जाने वाले लोगों को उपलब्ध होती है तो लोग उसे कोई चमत्कार समझते हैं पर तथ्य यह है कि वे अपने व्यक्तित्व के विकास में चुपचाप लगे रहते हैं। अपने गुण, कर्म और स्वभाव की मलीनता ही प्रगति पथ पर बढ़ चलने में सबसे बड़ी बाधा है। आत्म-निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है।
ज्ञानवान वह है जिसने आनन्द की खोज के मूल स्रोत अन्तःकरण में विद्यमान् होने की मान्यता परिपक्व कर ली है। दूरदर्शी वह है जिसने दूसरों का सहारा तकने की व्यथा से विरत होकर आत्म निर्भरता की गरिमा स्वीकार कर ली। विचारवान आपसी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी नहीं ठहराते वरन् गम्भीरता पूर्वक यह खोजते हैं कि किन त्रुटियों के कारण पिछड़ना पड़। जिनका ध्यान अपनी कमियों को समझने में ही लगा रहता है वे आत्म निरीक्षण कर्त्ताः यह साहस भी करते हैं कि सुधार के लिए क्या किया जाना चाहिए। जो अपने दुर्गुणों के दमन में साहस और शौर्य का परिचय देता है उसके सामने वह सब कुछ सरल हो जाता है जिसे साधारणतया दुर्लभ समझा जाता है।
यह उक्ति अक्षरशः सही सिद्ध होती है कि जो अपनी सहायता आप करता है उसी की सहायता ईश्वर भी करता है उसी की सहायता ईश्वर भी करता है। अपने को सुयोग्य समुन्नत एवं परिष्कृत बनाने के लिए यदि हम कटिबद्ध हों तो वे प्रयास ही अपनी प्रामाणिकता के सबूत हो सकते हैं और उनसे प्रभावित होकर अन्यान्य व्यक्ति भी सहयोग के लिए उद्यत हो सकते हैं। ठीक प्रकार जोते सींचें गये खेत में बीज बोने के लिए बाहर के व्यक्ति भी अनुदान दे सकते हैं। पर ऊसर भूमि से तो उसका मालिक भी-कतराता है और कोठे में भरा बीज भी डालने का साहस नहीं करता। उस व्यक्ति की भला कोई क्यों सहायता करेगा जो हेय स्थिति में पड़े रहने में संतुष्ट है और दुर्भाग्य के सामने नतमस्तक होकर गिर पड़ा है। गन्दे गड्ढे में कोई सुगन्धित इत्र को डालने के लिए क्यों तैयार होगा?
दीनता की करुणा से द्रवित होकर दानी कुछ दे सकते हैं, उसमें गौरव दानी का है दीन का नहीं दरिद्रता का प्रदर्शन करके कुछ प्राप्त कर लिया जाय तो भी उसके साथ तिरस्कार तो जुड़ा ही रहता है। उपकृत होना स्वयं एक ऐसा भार है जिससे लदता चलने वाला व्यक्ति क्रमशः घटता और गिरता ही चला जाता है। गौरव गरिमा खोकर कुछ प्राप्त करना-अपने को दया पात्र सिद्ध करना और तब कुछ पाना वस्तुतः एक ऐसा घाटा है जिसकी तुलना बड़ी से बड़ी सम्पदा प्राप्त करने से भी नहीं की जा सकती।
ईश्वर की सच्ची और गहरी अनुकम्पा सदा से तपस्वी साहसी को ही मिलती रही है, उन्हीं को बढ़े-चढ़े दैवी अनुदान प्राप्त हुए है। अपने को दीन दरिद्र, असमर्थ और असहाय कहकर कोई अपनी अकर्मण्यता का ही परिचय दे सकता है। ऐसी दशा में यदि ईश्वर भी उनकी ओर से आंखें मीच ले, मुँह फेर ले तो आश्चर्य की बात ही क्या है?
हम पात्रता विकसित करें जीवन विद्या के कलाकार सिद्ध हों ताकि विभूतियों की अप्सरा हमारी प्रामाणिकता पर मुग्ध होकर सहनृत्य के लिए अन्तरिक्ष से उतर कर हमारे निकट आये और आनन्द उल्लास से निकटवर्ती वातावरण को भर दे।