Magazine - Year 1973 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
जड़ और चेतन सूर्य की समानान्तर गतिविधियां
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आत्मा की तुलना सूर्य से की गई है जीवात्मा का स्वरूप प्रकाशबिन्दु के रूप में वर्णित किया गया है। ब्रह्मरंध्र स्थित सूर्य सदृश तेजस्वी परब्रह्म का ध्यान करने की ध्यान पद्धति प्रख्यात है। अणु का नाभिक एक छोटा सूर्य है। अणुपरिवार की तुलना सौरपरिवार से की जाती है। दोनों की रीति-नीति एवं क्रिया प्रक्रिया प्रायः एक सी है। जीव और ब्रह्म की सत्ता भी इसी प्रकार तद्भव-तत्सम कही गई है।
सौरमण्डल महासूर्य और ध्रुवसूर्य की परिक्रमा करते हुए 4,32,000 वर्ष पश्चात उसी स्थान पर लौट कर आता है। यदि उस पुराने समय की ग्रह गणना किसी के पास सही हो तो द्वितीय आवृत्ति में भी वह ज्यों की त्यों मिलेगी। इसमें किंचित भी अन्तर न होगा। वर्ष गणना का अभी पूर्णतया सही हिसाब बन नहीं सका है। वर्ष और दिन की पूर्ण संगति न बैठने से कोई पंचांग सर्वांग पूर्ण नहीं बन सकता। जो अन्तर पड़ता है उसे सुधारने के लिए बार-बार घट बढ़ करनी पड़ती है। फिर भी वह कमी पूरी नहीं होती और जितना जितना समय बीतता जाता है, उतना ही पूर्व निर्मित ग्रहगणित पिछड़ जाता है और नये सिरे से उसकी गणना ग्रहों की स्थिति देखकर सही करनी पड़ती है। सही खांचा 4,32,000 वर्ष बाद ही बैठता है। इसलिए इस अवधि को एक युग माना गया है। वर्तमान युग की गणना भी इतने ही वर्ष की इसी आधार पर कही गई है।
जीवात्मा का चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना सर्व विदित है। इस भ्रमण परिचय को पूरा करने के उपरान्त जीवन फिर मनुष्य योनि को प्राप्त करता है। मनुष्य को यह विशेष अवसर मिला हुआ है कि वह चाहे तो इस कुचक्र को तोड़ कर अपने उद्गम केन्द्र परमात्मा में लीन-लय हो सकता है। भौतिकसूर्य प्रकृतिगत नियम बन्धनों से बंधा है पर जीव सूर्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह अपने पुरुषार्थ के बल पर भव-चक्र की बन्धना रज्जु से मुक्ति प्राप्त कर अपना यात्रा प्रयोजन जल्दी ही पूरा करले।
मोटी दृष्टि से सूर्य, चन्द्रमा एवं तारक बहुत छोटे दीखते हैं पर उनका यथार्थ स्वरूप एवं विस्तार विदित होने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
मनुष्य की सत्ता और महत्ता सूर्य के समान ही असीम है। उसका वास्तविक विस्तार विश्व ब्रह्माण्ड के ही समकक्ष है। व्यक्ति का काय कलेवर सीमित हो सकता है पर उसका प्रभाव परिणाम असीम क्षेत्र को आच्छादित करता है। सम्पर्क में अपने वाले प्राणी तथा पदार्थ तो प्रखर व्यक्तित्व की ऊर्जा से प्रभावित होते ही हैं। उनकी संकल्प शक्ति एवं विचार धारा आकाश में प्रवाहित होकर असीम क्षेत्र पर अपना प्रभाव डालती है। सूर्य का क्रिया कलाप भी आत्मसत्ता के सदृश ही है।
सूर्य देखने में ही छोटा लगता है वैसे है वह बहुत बड़ा। धरती पर खड़े होकर देखें तो दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा दोनों ही लगभग एक सी गोलाई के लगते हैं पर इनमें अन्तर बहुत है। चन्द्रमा का व्यासमान 2160 मील है जबकि सूर्य का घेरा 8,31,000 मील का है इस सूर्य के इर्द-गिर्द भी उसकी कई परिधियां हैं। दूरबीन से देखने पर सूर्य के इर्द-गिर्द पीले गुलाबी रंग का एक वलय सा दिखाई पड़ता है। 10-15 हजार किलोमीटर की इस पट्टी को सूर्य का वर्ण मण्डल- क्रोमोस्फियर कहते हैं। लगभग 10,000 तापमान के इस क्षेत्र में कभी-कभी नुकीली ज्वालाएं उछलती हैं इनकी ऊंचाई 10,000 किलोमीटर तक उभरती देखी गई है।
सूर्य के प्रकाश का हम बहुत छोटा अंश ही देख समझ पाते हैं। अपनी पृथ्वी की ओर उसकी न्यूनतम किरणें ही आती हैं। वे बहुत अधिक मात्रा में तो अन्य दिशाओं में ही प्रवाहित होती रहती हैं। परमात्मा का एक स्वल्प सामर्थ्य अंश ही मनुष्य को- अपने भूलोक को मिला है। उसकी समग्र सत्ता जो अगणित ब्रह्माण्डों में बिखरी पड़ी है, इतनी अधिक है कि उसे ठीक प्रकार सोच सकना भी अपने लघुकाय मस्तिष्क के लिए सम्भव नहीं। फिर भी अपनी सत्ता को तो जाना समझा ही जा सकता है। आत्मस्वरूप का यदि बोध हो सके तो प्रतीत होगा कि परम चेतना की एक छोटी किरण होते हुए भी मानवी सत्ता कितनी प्रचण्ड है। इस प्रचण्डता का स्वरूप और उपयोग यदि समझा जा सके तो पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की संभावना मूर्तिमान् होकर सामने आये।
धरती पर सूर्य के समान प्रकाश का एक बँटा दस लाखवाँ भाग ही आता है। 6 लाख 66 हजार, 666 भाग तो दूसरी दिशाओं में वह प्रकाश बिखरता है और यहाँ उसकी सीमा का हमें कुछ पता ही नहीं है। सूर्य का किरीट-कोरोना-कितना विस्तृत और कितना प्रभावी है इसे जानने के लिए ‘कोरोना ग्राफ’ नामक यन्त्र कुछ समय पूर्व ही विनिर्मित हुआ है वह अथाह सूर्य सागर की थाह लेने का प्रयत्न कर रहा है।
सूर्य में समय-समय पर उठती रहने वाली ज्वालाएँ अपने आप में एक आश्चर्य है। एक विशिष्ट सूर्य ज्वाला 26 जुलाई 1646 को देखी गई थी। यह 10-10 मिनटों में लगभग तीन लाख मील फैल गई और कुछ सेकेण्ड के लिए उसके कारण सूर्य का प्रकाश तीस गुना अधिक हो गया। वह ज्वाला फिर वापस लौटी और सूर्य में ही समा गई। 13 दिसम्बर सन् 72 को भी एक ऐसा ही विस्फोट हुआ जिसमें सूर्य के पृष्ठ भाग में प्रभामण्डल से निकलते हुए भीमकाय बादल दिखाई पड़े। यह गैसों का विस्फोट पृथ्वी की अपेक्षा 20 से लेकर 40 गुना तक बड़ा था। और उसकी गति प्रति सेकेण्ड 660 किलो मीटर थी। ऐसी ज्वालाएँ अक्सर उठती रहती है। सन् 1646 में तो वे 40 बार उठी थी। खगोल विद्या विशारदों का मत है कि सूर्य के आलोक का जो क्षेत्र है वह भी नियमित और निश्चित नहीं जब ज्वालाएँ उभरती हैं तो वह बढ़कर 100 गुना तक अधिक विस्तृत हो जाता है। सूर्य का वर्ण मण्डल एक प्रकाश क्षेत्र ही नहीं चुम्बक क्षेत्र भी है। उसी में तो वह अपने सौर परिवार के ग्रहों को बाँधें जकड़े है। परिवार के दूरवर्ती प्लेटो प्रभृति ग्रहों तक प्रकाश स्वल्प पहुँचता है पर चुम्बकत्व वहाँ भी काम करता है और उस परिधि के ग्रह पिण्डों को पकड़े रहता है। इस प्रकार सूर्य का प्रभाव क्षेत्र बहुत बढ़ा और चूँकि सूर्य पृथ्वी की सीमा में आता है। इसलिए उसका किरीट आलोक एवं चुम्बकत्व वाला क्षेत्र भी पृथ्वी का हुआ। गाय खरीदी जाती है तो उसका छोटा बच्चा और रस्सा भी साथ ही आता है, उसका मोल भाव अलग से नहीं करना पड़ता।
सूर्य की तुलना में असीम अगणित शक्ति सम्पन्न परमात्मा की चर्चा तो कौन करे, आत्म सूर्य को भी यदि ठीक तरह समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि भौतिक ऊर्जा तथा प्रभा बिखेरने वाला सूर्य जितना बड़ा है- जितना सशक्त है उससे आत्मा की सीमा और गरिमा किसी प्रकार कम नहीं। आत्मा जब अपने स्वरूप में अवस्थित होकर शक्ति किरणें बखेरता है और विस्फोटक कदम उठता है तो उसका स्वरूप देखते ही बनता है। महामानव, ऋषि, देवदूत और अवतारी आत्माओं को ज्योतिर्मय स्थिति आश्चर्य जनक लगती अवश्य है पर वह मूलतः होती हर मनुष्य में समान रूप से है। उसे जो चाहें प्रयत्न पूर्वक चाहे जितनी मात्रा में विकसित कर सकता है।
सूर्य की तरह ही पृथ्वी का क्षेत्रफल भी निरन्तर बढ़ता हुआ अंकित किया गया है। सर्वतोमुखी प्रगति ही अन्ततः पूर्णता के रूप में परिणत होती है।
लन्दन के न्यूकैसेल्स विश्व विद्यालय में भौतिक विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो० के एम॰ क्रोर ने अपने शोध प्रबन्ध में यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी रहस्यमय ढंग से गुब्बारे की तरह फूलती चली जा रही है। जब वह बनी थी तब उसका जो आदि रूप था उसकी अपेक्षा वह अब तक लगभग दूनी फूल चुकी है और भविष्य में उसका यह फैलाव क्रम तीव्र ही होता जाने वाला है।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के खगोल विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचें है कि सौरमण्डल का फैलाव बढ़ रहा है। इतना ही नहीं यह समस्त ब्रह्माण्ड अपना विस्तार कर रहा है उसके क्षेत्रफल में आश्चर्य जनक वृद्धि हो रही है।
सर्वत्र विस्तार और विकास की ही हलचलें चह रही है फिर मनुष्य का आत्म विस्तार संकीर्ण स्वार्थ परता में सीमाबद्ध क्यों रहे?