Magazine - Year 1978 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
यह सच या वह सच
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मिथिला पर किसी शत्रु नरेश ने आक्रमण कर दिया है। उसकी अपार सेना ने नगर को घेर लिया है। संग्राम छिड़ गया है। मिथिला की सेनायें शत्रु सेनाओं का डटकर मुकाबला कर रही हैं। परन्तु विजय शत्रु के पक्ष में ही जाती हुई प्रतीत हो रही हैं और यह मिथिला की सेनायें हार भी गयी। ........... महाराज जनक पराजित हुए ................. विजयी शत्रु ने आज्ञा दी- “मैं तुम्हारे प्राण तो नहीं लेता किन्तु तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम अपने सभी वस्त्राभूषण उतार दो और इस राज्य से निकल जाओ।”
राजा जनक ने अपने राजकीय वस्त्र और तमाम आभूषण उतार दिये। केवल एक छोटा-सा वस्त्र कटि प्रदेश पर रह गया। जनक पैदल ही राजमहल से निकल पड़े। सोचा किसी नागरिक से प्रश्रय माँगेंगे। परन्तु उनके सड़क पर आने से पूर्व ही यह राजाज्ञा सुनाई दी - निर्वासित जनक को जो भी नागरिक आश्रय या आहार देगा उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा।
विवश जनक ने उसी स्थिति में मिथिला प्रदेश की सीमा से बाहर जाने का निश्चय किया। फलतः कई दिनों तक अन्न का एक दाना भी पेट में नहीं गया।
जनक अब राजा नहीं एक भिक्षुक हैं .......... राज्य से बाहर एक अन्य क्षेत्र दिखाई देता है ......... जनक वहाँ पहुँच जाते हैं ................. किन्तु अन्न क्षेत्र के द्वार बन्द हो रहे हैं क्योंकि सारी खाद्य सामग्री बंट चुकी है। जनक बड़ी दीनता से याचना करते हैं और अन्नक्षेत्र का अधिपति थोड़ा-सा बचा हुआ चावल लाकर जनक की फैली हथेलियों पर रख देता है। इस दशा में वही वरदान प्रतीत होता है। उसे मुँह में रखने को हाथ आगे बढ़ाते ही हैं कि न जाने कहाँ से एक चील झपट पड़ती है और सारा चावल धूल में बिखर जाता है।
‘हे भगवान्’ - मारे व्यथा के जनक चीख उठते हैं। और चीख के साथ ही उनकी निद्रा टूट जाती है। स्वप्न टूट जाता है। किन्तु शरीर अभी भी पसीना-पसीना हो रहा है। आसपास सोयी रानियाँ और सेवक भी चीख सुनकर जाग उठे। जनक आँखें फाड़-फाड़ कर अपने चारों ओर देखने लगे सुसज्जित शयन कक्ष, स्वर्ण रत्नों से लदा हुआ पलंग, दुग्ध फेन-सी श्वेत कोमल शैय्या। रानियाँ पास खड़ी हैं और सेवक-सेविकायें भी हतप्रभ से उन्हें देख रही हैं।
स्वप्न का प्रभाव इतना गहन हुआ था कि जो भी सामने आते वे उसी से यह प्रश्न करते- ‘यह सच या वह सच?’ योगिराज अष्टावक्र से भी उन्होंने यही प्रश्न किया।
अष्टावक्र ने योग बल से इस प्रश्न के उद्गम को समझा और पूछा- ‘महाराज ! जब आप कटिप्रदेश में एक वस्त्र लपेटे अन्नक्षेत्र के द्वार पर भिक्षुक के वेश में दोनों हाथ फैलाये खड़े थे और अधिपति ने जब आपकी हथेली पर बचा हुआ चावल रखा था, उस समय यह राजभवन, आपका यह राजवेश, ये रानियाँ, मन्त्री और सेवक-सेविकाओं में कौन आपके पास था?’
जनक ने कहा- उस समय तो इनमें से कोई भी मेरे पास नहीं था भगवन्! उस समय तो विपत्ति का मारा मैं अकेला ही था।
‘और राजन्! जागने पर जब आप इस राजवेश में राजभवन के अन्तःपुर में स्वर्ण रत्नों से निर्मित पलंग पर आसीन थे, तब वह अन्नक्षेत्र उसका वह कर्मचारी वह आपका भिक्षुवेश, वह अवशिष्ट खाद्य क्या था आपके पास?’
‘कुछ भी नहीं महात्मन्! मेरे पास कुछ भी नहीं था।’
परन्तु दोनों अवस्थाओं में आप तो थे न?’ -अष्टावक्र ने फिर पूछा। हाँ कहने पर वे फिर बोले- जो क्षणिक और काल के अधीन है वह सच नहीं हो सकता। न यह सच है, न वह सच था, सब अवस्थायें हैं। परन्तु अवस्थाओं से भी परे जो आत्मतत्व साथी रूप से उन्हें देखता वही सच है। अतः राजन् उसी सत्य को जानना, मानना और ग्रहण करना चाहिए।’ और तभी से जनक अनासक्त भाव से अपने कर्त्तव्यों को पूरा करते हुए आत्मदेव की आराधना में लग गये।
----***----