Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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मृत्यु अर्थात् जीवन का अन्त नहीं
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महाभारत के यक्ष प्रश्न प्रसंग में यह पूछे जाने पर कि आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर उत्तर देते हैं- ‘‘मृत्यु निश्चित है और रोज-रोज कितने ही व्यक्तियों को मरते हुए देख कर लोग अपनी मृत्यु का विचार भी नहीं करते। जीवन से सम्बन्धित किसी भी घटना पर विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक है और जो घटना समूचे वर्तमान से सम्बन्ध तोड़ देती है उसका विचार तो और भी ज्यादा आवश्यक व स्वाभाविक है। परन्तु लोग उसी घटना को भुलाने की कोशिश करते हैं जो उनके पूरे अस्तित्व को ही झकझोर देती है।’’
इस तथ्य को भूलने या भुला देने की कोशिश करते रहने का कारण मृत्यु के प्रति मन में समाया हुआ भय है। यह एक तथ्य है कि मनुष्य जिस चीज को पसन्द नहीं करता या जिससे दूर रहना चाहता है उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहता। मृत्यु के बारे में न सोचने या इससे भयभीत होने का कारण जीवन के प्रति मोह ही हो सकता है। लेकिन यदि यह समझ में आ जाय कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है तो मृत्यु का भय कम हो सकता है। मृत्यु के बाद जीवन का अस्तित्व बना रहता है, यह बात अब तक केवल दर्शन शास्त्र का विषय थी। विज्ञान और भौतिक सत्ता, पदार्थ सत्ता में विश्राम करने वाले लोग मनुष्य को अभी तक यन्त्र मात्र समझते थे, जिसका संचालन केन्द्र हृदय और मस्तिष्क भर समझा गया। इन केन्द्रों के क्षीण होने, दुर्बल और अक्षम पड़ जाने पर ही मनुष्य का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, यह मान लिया गया।
परन्तु विज्ञान भी जीवन के गूढ़ रहस्यों को सुलझाने की ओर उन्मुख हुआ है तथा आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा मृत्यु का विश्लेषण करने के लिए किये गये प्रयास तथा उनके निष्कर्ष भारतीय मनीषियों की इसी धारणा को पुष्ट करते हैं कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के डॉ0 रेमण्ड ए॰ मूडी ने इस विषय पर वर्षों तक शोध की। अपनी शोध में उन्होंने तीन प्रकार के व्यक्तियों का अध्ययन किया। इन तीन प्रकार के व्यक्तियों में एक तो वह थे जो किसी रोग या दुर्घटना के कारण मृत्यु के एकदम समीप पहुँच गये। जिनके लिए कहा जा सकता है कि उन्हें नयी जिन्दगी मिली। दूसरे वह व्यक्ति जो मरणासन्न स्थिति में थे और अपने अनुभव आसपास के व्यक्तियों को बता रहे थे। तीसरे प्रकार के व्यक्तियों में वह थे, जो डाक्टरों द्वारा मृत घोषित कर दिये जाने के बाद किसी प्रकार जी उठे थे।
इस प्रकार के सैकड़ों से बातचीत, उसके कथनों का अध्ययन और अन्य व्यक्तियों के अनुभवी से संगति बिठाते हुए डॉ0 रेमण्ड ए॰ मूडी ने कई ऐसे निष्कर्ष निकाले जो आधुनिक संसार के लिए तो वास्तव में ही चौंका देने वाले हैं। इस शोधों से प्राप्त निष्कर्षों को उन्होंने ‘लाइफ औफ्टरलाइफ’ नामक पुस्तक में संकलित किया है। निष्पक्ष ढंग से लिखी गयी इस पुस्तक में यही धारणा पुष्ट होती है कि मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्व है और यह कि मृत्यु एक दुखद घटना होते हुए भी एक रोमांचकारी यात्रा है।
डॉ0 मूडी ने उपरोक्त प्रकार के जितने भी व्यक्तियों के अनुभव एकत्र किये, उनमें सबने एक बात स्पष्ट रूप से बतायी कि मृत्यु के समय यह भले ही लगता रहा हो कि अब सब कुछ समाप्त हो जायगा या हम कुछ भी देखने, सुनने, समझने में असमर्थ हो जायेंगे अथवा अब हम समाप्त ही हो जायेंगे परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब कुछ ज्यों का त्यों रहा, अनुभूति शरीर से पृथक अस्तित्व के रूप में होने लगी।
मरने के बाद पुनः जीवित हो उठी एक महिला मिसेज मार्टिनका ने डॉ0 मूडी को बताया- ‘‘मैं अस्पताल में थी, पर डाक्टरों को मेरे रोग का कुछ पता ही नहीं लग रहा था। मेरे चिकित्सक डॉ0 जेम्स ने मुझे छानबीन के लिए नीचे की मंजिल पर रेडियोलॉजिस्ट के पास भेजा। उसने एक खास दवा दी, परन्तु मैंने अनुभव किया कि मेरी साँस रुक गयी है। लेकिन इसके बावजूद मैं सब कुछ देख सुन और समझ रही थी। डॉक्टर मुझे कृत्रिम उपायों से श्वांस दिलवाने की कोशिश कर रहे थे मेरे लिए कोई खास दवा लाने का आदेश दिया गया। वे मुझे छू रहे थे, मेरी बाँहों में सुई भी चुभा रहे थे, मैं यह सब देख रही थी, परन्तु मुझे कुछ महसूस नहीं हो रहा था।”
कार दुर्घटना का शिकार हुए एक नवयुवक को, जिसे मृत घोषित कर दिया गया था, परन्तु वह पुनः जी उठा, अनुभव हुआ कि कोई महिला पूछ रही है- क्या इसका दम निकल गया? “दूसरे व्यक्ति ने उत्तर दिया था- हाँ, मर गया, पूरी तरह मर गया। इस नवयुवक ने बताया कि ऐसा सुनते समय वह उन बातचीत करने वाले और आस-पास खड़े दूसरे व्यक्तियों को ही नहीं देख रहा था बल्कि अपने शरीर, चेहरे, सिर में लगे घाव, उनमें से रिसा हुआ खून और टूटी हुई हड्डियों के बारीक-बारीक टुकड़े भी देख रहा था जैसे किसी दूसरे व्यक्ति का शव देख रहा हो।”
डॉ0 रेमण्ड ए॰ मूडी के अतिरिक्त प॰ जर्मनी के डॉ0 श्मिटने भी ऐसे व्यक्तियों से सम्पर्क किया, उन्हें डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था। उन्होंने भी लगभग उसी प्रकार के अनुभव बताये। निष्कर्षतः उनमें रेमण्ड ए॰ मूडी से पूर्णतः साम्य है कि मृत्यु के बाद अपना अस्तित्व शरीर से अलग अनुभव होता है। इसका अर्थ है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। मनुष्य या जीवन का अस्तित्व शरीर से सर्वथा भिन्न बात है, शास्त्रकारों ने इसी अस्तित्व को जीव कहा है।
जीवन को शरीर से सम्बन्ध मान लेने को देह भ्राँति करते हुए ‘योग वाशिष्ठ’ के निर्वाण प्रकरण में महर्षि वशिष्ठ ने कहा है- ‘‘यह जीव अस्थि, मांस और रक्त से बने स्थूल हाथ, पैर वाले शरीर को जो जन्म, कर्म और कामना का केन्द्र तथा परिणाम रूप से मरणशील है- ही अपना अस्तित्व मान लेता है और देह भ्रांति में पड़ जाता है। तब वह बाल्य, युवा, वृद्धावस्था, जरा-रोग, मरण, भ्रमण, व्यवहार आदि का ज्ञान भी कल्पित करता है।’’
अपने अस्तित्व को शरीर तक ही सीमित मानने अथवा महर्षि वशिष्ठ की भाषा में देह भ्रान्ति का शिकार होने के कारण ही सुख-दुःख, पीड़ा-व्यथा और कष्ट-वेदना का अनुभव होता है। मृत्यु के बाद जब देह से सम्पर्क टूट जाता है और किसी सीमा तक यह भ्रम दूर होता है कि जीवन शरीर तक ही सीमित नहीं था तो उन दैहिक कष्टों से भी मुक्ति मिल जाती है। ‘लाइफ इन द वर्ल्ड अनसीन’ में एन्थोनी बौर्गिया ने लिखा है कि आकस्मिक दुर्घटना के शिकार व्यक्तियों को पीड़ा या व्यथा वेदना का अनुभव नहीं होता।
भारतीय दर्शन की यह मान्यता है कि इस शरीर में स्थित जीवात्मा ही सब सुख-दुःख कष्ट सुविधा और लाभ-हानि का भोक्ता है। शरीर से जीवात्मा का सम्पर्क टूट जाने के बाद शरीर पर होने वाले प्रभावों की भी कोई संवेदना या अनुभूति प्रतिक्रिया नहीं होती। युद्ध में मारे गये एक सैनिक की अनुभूतियों का उल्लेख ‘फ्रण्टियर्स आफ द आफ्टर लाइफ’ उसी सैनिक के शब्दों में इस प्रकार किया गया है- ‘‘गोली लग जाने के कारण मैं मूर्च्छित सा हो गया था। कुछ समय बाद मैं मूर्च्छा से जगा तो उस समय मैंने देखा कि मैं अपने शरीर से अलग हूँ और भौचक्का-सा खड़ा हूँ। मैंने देखा मेरे शरीर के आस-पास और भी कई शरीर पड़े हैं। मुझे लड़ाई की बात याद आ गयी परन्तु इस बात की मुझे कोई स्मृति नहीं है कि गोली लगने के बाद क्या हुआ था। हाँ, इतना अवश्य याद है कि उस समय मुझे भयंकर पीड़ा हो रही थी, परन्तु अब उस पीड़ा का लेशमात्र भी अनुभव नहीं हो रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि शरीर से विलग होने के बाद मैं सारी पीड़ाओं से मुक्त हो गया हूँ।”
प्रायः लोग दुर्घटना के समय मूर्च्छित हो जाते हैं और उस स्थिति में ही उनकी मृत्यु हो जाती है। दुर्घटना में मृत घोषित कर दिये गये परन्तु बाद में जीवित हो उठे व्यक्तियों से सम्पर्क कर, उनके अनुभवों का अध्ययन करने के बाद एस॰ बेडफोर्ड ने अपनी पुस्तक ‘डेथ एण्ड आफ्टर डेथ’ में लिखा है- दुर्घटनाओं के कारण घटित होने वाली मृत्यु की घटना बड़ी तीव्र गति से घटती है और जीव को शरीर से विलग हो जाने का अहसास भी न होता। ये आकस्मिक दुर्घटनायें बड़ी निर्मम, भीषण और दर्दनाक होती हैं परन्तु जो मर जाते हैं उनके लिए मृत्यु बड़ी विस्मयपूर्ण घटना होती है। दुर्घटना के तत्क्षण बाद मर जाने वाले व्यक्तियों को किसी पीड़ा का आभास इसलिए नहीं होता कि जीवात्मा की चेतना हमारे भौतिक शरीर की चेतना से बहुत आगे होती है और उसे यह पहले ही मालूम हो जाता है कि अगले क्षण आकस्मिक मृत्यु होनी है। क्योंकि इस दुर्घटना के कारण यह शरीर जीवात्मा के रहने योग्य नहीं रह जायगा। इसलिए जीवात्मा स्थूल शरीर के दुर्घटनाग्रस्त होने से पहले ही उसे छोड़ देता है। यही कारण है कि दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति मृत्यु और दुर्घटना जनित पीड़ा का अनुभव नहीं करता।
डॉ0 रेमण्ड ए॰ मूडी जिनकी ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’ पुस्तक का उल्लेख आरम्भ में ही किया जा चुका है- के निष्कर्ष भी उपरोक्त निष्कर्ष से ही मिलते-जुलते हैं। इन परामनोवैज्ञानिकों के अतिरिक्त दूसरे कई परामनोवैज्ञानिकों तथा शोध संस्थाओं ने ऐसे व्यक्तियों के अनुभव संकलित किये हैं जो मृत्यु के उस पार जा कर ‘लौट’ आये। इन विवरणों में भिन्नताएं मिली हैं, परन्तु कुछ समानतायें भी पायी गयी हैं। पहली समानता तो यही है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है, उसके बाद भी जीवन का अस्तित्व रहता है। इसका अर्थ है कि जीवन का अस्तित्व शरीर जन्म और सत्य के बीच तक ही नहीं है। बल्कि जीवन उसके पूर्व भी है और बाद में भी है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही बात अर्जुन से हजारों वर्ष पूर्व कही है-
न त्वे वाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयामनः परम्॥
अर्थात्- न तो ऐसा ही है मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा यह राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है, कि हम सब लोग इससे आगे नहीं रहेंगे।
अविनाशितु तद्विद्वि येन सर्वमिन्दततम्।
विनाशम व्ययस्यास्य न कश्चित कर्तुमर्दति॥
अन्त बन्त इमे देहा नित्यसकोक्ताशरीरिणः।
अर्थात्- जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है उस (चेतन सत्ता) को तू नाश रहित जान। उस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाश रहित जीवात्मा के यह सब शरीर ही नाशवान् कहे गये हैं जबकि यह आत्मा किसी काल में भी जन्म नहीं लेती है और न यह मरती ही है अथवा कभी होकर दुबारा होने वाली भी नहीं है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता।
प्राप्त विवरणों में शरीर और चेतना की भिन्नता के अतिरिक्त दूसरी समानता चेतना की प्रधानता सम्बन्धी है। शरीर इस चेतन शक्ति के कारण स्पर्श, ग्रहण, संवेदन, स्पन्दन और क्रियाशीलता ग्रहण करता है। अर्थात् शरीर अपनी सार्थकता के लिए आत्मतत्व पर निर्भर है जबकि आत्मचेतना शरीर की शक्ति सामर्थ्य या स्थिति पर रंचमात्र भी निर्भर नहीं है। फटे हुए वस्त्र को व्यर्थ और अनुपयोगी जान कर जिस प्रकार उतार फेंक दिया जाता है उसी प्रकार जीवात्मा भी जीर्ण-अशक्त शरीर को अपने रहने योग्य न समझ कर उसका परित्याग करता है। भारतीय मनीषियों के अनुसार यह प्रतीति जीवन को विभाजित और खण्ड में देखने की दुर्बल दृष्टि के कारण ही होती है। अन्यथा जीवन तो शाश्वत और सनातन है- एक अन्तहीन यात्रा है। मृत्यु उस यात्रा का एक पड़ाव भर है। इसलिए मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण नहीं है।
यक्ष प्रश्न प्रसंग में युधिष्ठिर ने हमेशा मृत्यु की घटनायें घटती देख कर भी उससे भयभीत होने और पलायन करने की प्रवृत्ति को संसार का आश्चर्य कहा है। जान लिया जाय कि मृत्यु कोई विचित्र, दुखद और भयावह घटना नहीं है तथा उसे समझने और स्वीकार करने की मनःस्थिति बना ली जाय तो मनुष्य में एक अद्भुत परिवर्तन की सम्भावना बन जाती है।
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