Magazine - Year 1978 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रकृति पाठशाला में कला−संकाय
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य की कोमल भावनाओं, सूक्ष्म अभिव्यक्ति के तीन साधन तीन कलायें हैं (1) नृत्य (2) संगीत और अभिनय। इनसे आत्मा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है, साथ ही जीवन सत्ता के ललित और आह्लादकारी गुण का भी पता चलता है। इन्हें मनुष्य की बुद्धि और प्रगति शीलता का एक माप दण्ड भी कहा जा सकता है पर जीवन मनुष्य की ही विरासत नहीं, वह विराट् रूप में बिखरा पड़ा है। जिसमें जीव जन्तु भी आते हैं। विभिन्न कलाओं द्वारा पशु-पक्षी भी अपनी प्रमोद प्रियता का परिचय देते रहते हैं। कभी-कभी तो ऐसा विश्वास होने लगता है कि मनुष्य को ललित कलायें सिखाई ही अन्य जीवों ने हैं, क्योंकि उनमें से कई में यह कलायें अत्यन्त प्रौढ़ किस्म की होती हैं।
नृत्य कला प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों तथा भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक गूढ़ विज्ञान है। विश्व के अनेक प्रकार के नृत्य विख्यात श्रेणी में आते हैं। इनमें भारत के भारत नाटयम्, कचिपुड़ि, कत्थक, रूस का बैले तथा ब्रिटेन के काकटेल प्रमुख है, किन्तु आश्चर्य तब होता है जब कि प्रकृति के परिन्दों में भी न केवल उन्नत श्रेणी के अपितु विलक्षण अभिव्यक्ति और भंगिमाओं के नृत्यों की परम्परा पाते हैं। मोर इस कला में बादशाह माना जाता है।
यह न केवल ऋतु−नृत्य नाचने में ही प्रवीण होते हैं। अपितु संवादी, आक्रमण, भय आदि अवस्था में भी वे नृत्य कला का उपयोग करते हैं। ऋतु काल का नृत्य जो विशुद्ध प्रेम भावना से प्रेरित होता है। न्यूनतम 5 मिनट से एक घंटे तक भी चलता है। अपने भोजन या प्रणय क्षेत्र में किसी सजातीय या विजातीय को पाकर वे बहुत तेजी से पंख थरथरा कर तथा सीधी चोंच से प्रहार करते हुये नृत्य करते हैं। मोरों में ईर्ष्या वश भी नृत्य होते हैं। यह किसी दूसरे मोर को नाचता देख कर तब किये जाते हैं जब दूसरे मोर को यह आशंका हो जाती है कि कहीं मादा उसी की ओर आकृष्ट न हो जाये। अन्य नृत्यों को छोड़ कर प्रायः बादलों की गरज चमक के समय प्रातः और सायंकाल मोर नृत्य होते हैं। काली घटा देख कर मोर बहुत प्रसन्न होता है और कूहू−कूहू कर नाचने लगता है। मनुष्यों में भी अनेक प्रकार के नृत्यों की परम्परा है। भाव प्रदर्शन दोनों में समान है फिर मनुष्य को ही उन्नत श्रेणी का क्यों माना जाये मार्ग दर्शक इस जीव प्रकृति को ही क्यों न माना जाय।
ध्रुवों की खोज करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पेन्गुइन की सामाजिक व्यवस्था बहुत विकसित किस्म की है। नर को विवाह की इच्छा होती है तो वह अपने मुँह में एक पत्थर लेकर इच्छित मादा के पास जाता है और इस बात का संकेत देता है कि वह उसके लिये पत्थर का सुन्दर महल बनाने को तैयार है यदि मादा वह पत्थर स्वीकार करले तो विवाह पक्का फिर सभी पेन्गुइन इसी खुशी में नाचते गाते हैं। देखने वालों का तो यहाँ तक कहना है कि इस विवाह नृत्य में नर पेन्गुइन मादा की विधिवत पीठ थपथपा कर “एक्शन−साँग“ का सा दृश्य प्रस्तुत करते हैं। बहुत बार ऐसा भी होता है कि मादायें पत्थर लाने वाले नर से संतुष्ट नहीं होती उस स्थिति में वे पत्थर स्वीकार करने की अपेक्षा मुँह फेर कर खड़ी हो जाती हैं। मनुष्य की अपेक्षा यह कितने भले हैं। मनुष्य तो अपने सामाजिक दायित्वों में भी स्वार्थपरता और अहं प्रदर्शन जोड़ने से नहीं चूकना विवाहों पर दहेज की माँग, जेवर जकड़े, आतिशबाजी, नशेबाजी ऐसी ही दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। अन्य जीव तो उनसे मुक्त ही हैं।
हम समझते हैं कला का वरदान मात्र मनुष्य जाति को ही मिला है। बच्चे को सुलाने के लिये लोरी गाना, मेलों के प्रयाण पर गाये जाने वाले पीत, धान रोपाई के गीत, सावन के मल्हार और ब्याह शादियों पर गाये जाने वाले गीत मनुष्य की उदात्त कला संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं लगता है यह उपहार केवल मनुष्य को ही उपलब्ध है यह गीत तो आत्मा और मन के आह्लाद और प्रसन्नता के प्रदर्शन मात्र है और मनुष्येत्तर जीवन भी इस कला में कम पटु नहीं। कोयल के बसंत गान से तो सभी परिचित हैं किन्तु अपने घोंसलों का निर्माण करते समय “राबिन” पक्षी तथा “ओरिओल” के गीत कहीं उससे भी अधिक मन मोहक होते हैं। “दरजी” “बया” और “बुनकर” पक्षी भी गायकों−की श्रेणी में आते हैं। यह सब विशेष प्रकार की लय और ताल में गीत गाते हैं। स्काई लार्क के प्रभात गीत तो शेक्सपियर के लिये प्रेरणा स्रोत ही बन गये थे। शेक्सपियर इसे “प्रभात”−दूत” कहा करते थे और उसके मधुर संगीत में तन्मय हो जाने के बाद ही साहित्य साधना किया करते थे। बालजाक को रात में पपीहे का स्वर सुनने को मिल जाता तो वे एक तरह साहित्य साधना में समाधि ही लगा जाते। भावना शील व्यक्तियों ने सदैव ही जीवों से प्रेरणायें पाई हैं। प्रातःकाल उनका चहचहाना, सायंकाल ढलते हुये सूर्य का चंदन करना देख कर हृदय उमड़ने लगता है। यदि मनुष्य ने अपना जीवन कृत्रिम नहीं बनाया होता उसने भी इनकी तरह अपने को बंधन मुक्त रखा होता तो उसका जीवन भी कितना रसमय रहा होता यह स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
एक बार तो ह्वेल मछली से संगीत को टेप करने का भी प्रबन्ध किया गया। उसके जो परिणाम प्राप्त हुये वे और भी आश्चर्यजनक है−सर्व प्रथम एक ह्वेल मछली ने संगीतमय ध्वनि से नौ बाद “क्लिकं” “क्लिकं” की ध्वनि की। इस के बाद एक दूसरी ह्वेल ने वैसी ही ध्वनि सात बार की, फिर दोनों ने 8 बार वहीं ध्वनि समवेत दुहराई इसके बाद क्रमशः 14, 8 तथा 7 बार ध्वनि टेप की गई। इस संगीत ध्वनि के समय का दृश्य इस बात का साक्षी है कि मछलियों के पास अक्षरों और शब्दों का सुविस्तृत भंडार भले ही न हो पर उन्हें अपने विचार विनियम में कोई दिक्कत नहीं होती। पहले दोनों ह्वेलें एक नर एक मादा अलग अलग स्थानों में थीं 8 और सात की ध्वनि से उन्होंने अपने मिलने का स्थान तय किया 14 बार क्लिक की आवाज के द्वारा उन्होंने कोई बात तय की फिर 7 और 8 क्लिक के बाद दोनों दो भिन्न दिशाओं की ओर मुड़ गई। इनके संगीत में कुछ ऐसा आकर्षण होता है कि इनका शिकार स्वयं ही इनकी ओर चला आता है।
जापान की एक फर्म ने तो अत्यन्त संवेदन शील इलेक्ट्रानिक उपकरणों की सहायता से ऐसे विशेष संगीत रिकार्ड तैयार किये हैं, जो कुत्तों और बिल्लियों का क्रोध शान्त करने उनको मानसिक शान्ति प्रदान करने में सहायक होते हैं। इन रिकार्डों का व्यावसायिक उत्पादन प्रारम्भ भी कर दिया गया है और अमेरिका उनका सबसे बड़ा खरीददार है। संगीत आत्मा की अदम्य आकांक्षा है। ऐसा लगता है उसका संगीत से कोई सनातन सम्बन्ध है तभी वह इतना रस अता है। आज जब कि भौतिक आकर्षणों की दौड़ में हर व्यक्ति बुरी तरह परेशान है तब उसके मन और अन्तःकरण को इसी तरह संगीत माध्यमों से राहत पहुँचाई जा सकती है।
दक्षिणी अफ्रीका में पाये जाना वाला एक पक्षी तो नृत्य में इतना पटु होता है कि उसका नाम ही “दि डार्न्स” पड़ गया है। न्यूजीलैण्ड में पाई जाने वाली “वर्ल्ड आफ पैराडाइसों” में तो विवाह के अवसर पर विधिवत स्वयंवर होता है। एक विशेष ऋतु में सभी विवाह योग्य युवक पक्षी एक ओर पंक्तिबद्ध खड़े हो जाते हैं, युवतियां उसी तरह दूसरी ओर, बालक व वृद्ध पक्षी दर्शक के रूप में तीसरी पंक्ति में। अब कोई एक पक्षी बाहर निकल कर नाचना प्रारम्भ करता है। युवतियां ध्यान से उसका अंग परिचालन देखती हैं जिस युवती को वह नृत्य पसंद आ जाता है वह बाहर आकर उसकी चोंच में चोंच डालकर अपनी सहमति व्यक्त करती हैं फिर दोनों मिलकर नाचते और गाते हैं इस तरह वे अपना अपना जोड़ा बना लेते हैं। जटिल हो गई है कि आये दिन गृहस्थ जीवनों में विग्रह विद्रूप खड़े होते रहते हैं उनसे मुक्ति के लिये मनुष्य जाति को बहुत कुछ इन जीवों से सीखना पड़ेगा।
नृत्य कला में यों प्रवीण मोर को माना जाता है किन्तु कला पारखी मकड़े के नृत्य को अधिक उत्कृष्ट मानते हैं। भले ही अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के अभाव में वह किसी का ध्यान आकृष्ट न पर पाता हो। मकड़े प्रायः अपनी मादा को प्रसन्न करने के लिये नाचते हैं किन्तु यह जोखिम बड़ा घातक होता है यदि मकड़ी अप्रसन्न हो गई तो बेचारे को जान से भी हाथ धोना पड़ता है। मकड़े के सिर पर एक श्वेत कलंगी जैसी होती है नृत्य करते समय वह मकड़ी को इसे दिखने में सफल हो जाता है तो मकड़ी निश्चित रूप से प्रसन्न होती है। आठ दस मकड़ों का सामूहिक नृत्य तो और भी दर्शनीय होता है।
जीव जन्तुओं के अधिकांश नृत्य मादा को रिझाने या उनके सामूहिक विवाह के अवसरों पर ही होते हैं इस कला में बिच्छू भी प्रवीण होता है। बिच्छुओं में नर व मादा के साथ−साथ नृत्य करने की परम्परा है। जब तक थक कर चकनाचूर न हो जायें तब तक इनका नृत्य चलता रहता है। यह आगे पीछे कदम बढ़ाकर नाचते हैं गोल चक्कर में नहीं।
नृत्य कला एक महत्वपूर्ण व्यायाम भी है इससे योगासनों के लाभ भी मिलते हैं यदि इसे विशुद्ध कला की दृष्टि से विकसित किया जाये। मेफ्लाई नाम की मक्खी का नृत्य ऐसा ही होता है वह उड़कर, उठ बैठ कर लेटकर नाना प्रकार ने नृत्य करती है वह मक्खियाँ खा-पी नहीं सकतीं क्योंकि इनके मुख ही नहीं होता। शुतुरमुर्ग के लिये तो नृत्य पूरी तपश्चर्या है वे अपनी प्रेयसी को प्रसन्न करने के लिये एक पैर से भी थिरकते हैं इतने पर भी वे प्रसन्न न हों तो उस टाँग को भी तोड़कर नृत्य करना पड़ता है तब कहीं “देवी” प्रसन्न होती है?
वर्षा ऋतु में जब पानी बरसता है तो मोरों की तरह बत्तख भी पानी में तैरते हुये नृत्य करते हैं। मछलियाँ भी शृंगारिकता की ही भावना से नृत्य करती हैं पर इनकी मुद्रायें और हाव भाव उतने सूक्ष्म होते हैं जैसे भरतनाट्यम् और कत्थकली। घोंघे को यों सुस्तों का बादशाह कहा जाता है। एक स्थान पर पड़े रहना ही उसका काम है किन्तु किसी ने नृत्य−गीत कला को सच ही प्रकृति की नैसर्गिक चेतना कहा है इससे मानव मन के लालित्य का पता चलता है सदियों से इस कला का सांस्कृतिक परम्परा के रूप में विकास किया गया है और अब यह मनोरंजन का मूल साधन बन गया है किन्तु यदि उसका उद्देश्य मात्र शृंगारिकता रहे तो मनुष्य और अन्य जीवों में अन्तर ही क्या रहे। वह तो घोंघा जैसा आलसी प्राणी भी कर लेता है। घोंघा मादा के आस−पास घूम कर गुनगुनाता हुआ नृत्य करता है किन्तु यदि उसे कला−साधना का रूप दिया जाये तो इसके माध्यम से सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का भी प्रदर्शन संभव है। जैसा कि भारतीय नृत्यों की शैली से स्पष्ट है।
नृत्य−गीत ही नहीं मनोविनोद और क्रीड़ा का स्वाभाविक जीव−गुण भी इन पक्षियों में पाया जाता है कुत्ते और बन्दरों को अपने बच्चों से खेलते कभी भी देखा जा सकता है। तोते और कनेरियाँ पेड़ में लटक-लटक कर झूलते और विचित्र तरह से कह कहा कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। पीलक, क्या परस्पर एक दूसरे से ठिठोली करते देखे जा सकते हैं। न्यूनाधिक मात्रा में यह गुण हर जीव में होता है।
अमरीका में पायी जाने वाली “मार्किंग चिड़िया” अपनी विनोद प्रियता के लिये विख्यात है। यह न केवल मनुष्यों की अपितु दूसरे पशु−पक्षियों की आवाज की भी नकल उतारने में बड़ी पटु होती है। उसके इस स्वभाव का बूढ़े बच्चे सभी आनन्द लेते हैं। वह स्वयं भी इससे बड़ी प्रसन्न होती है।
एक बार इंग्लैंड में एक पक्षी ने वहाँ के लोगों को असमंजस में डाल दिया। वे लोग जब प्रातः काल मीठी नींद में सो रहे होते तो वृक्षों की ओर से मनुष्यों की सी खिल खिलाकर हँसने की कभी−कभी तो अट्टहास की ध्वनि आती और उनकी नींद टूट जाती। लोग परेशान थे आखिर यह हँसता कौन है? पीछे पता चला कि यह और कोई नहीं “कूकावड़ा” पक्षी है जो कुछ दिन पहले ही आस्ट्रेलिया से इंग्लैंड आ गये थे।
एक मनुष्य है जो दूसरों को समुन्नत देख कर ईर्ष्या, विद्वेष, राग−रोष और तृष्णा की कीचड़ में सड़ता रहता है दूसरी ओर यह जीव हैं। कितने आनन्द और उल्लास का उन्मुक्त जीवन जीते हैं। जीवन समस्या रहित है उसमें कुछ भी जटिलता नहीं। समस्यायें तो मानवीय दुर्गुण और मनोविकार हैं उनसे मुक्ति पाना है तो मनुष्य को भी ऐसा ही सहज और सरल जीवन क्रम अपनाना पड़ेगा।
नृत्य−गीत, मनोविनोद की भाँति अभिनय भी आत्माभिव्यक्ति का एक साधन है। यह अलग बात है कि मनुष्य अपनी इस कला में बहुत निष्णात हो गया है पर यह भी सच है कि झूठी अभिनय बुद्धि के कारण सर्वत्र अभिनय ही अभिनय शेष रहा है। यथार्थ से मनुष्य कोसों दूर हटता जा रहा है। पति−पत्नी के सम्बन्धों, बच्चों के पालन पोषण, सामाजिक दायित्वों के निर्वाह में कलाबाजी अधिक, सच्चाई और ईमानदारी कम है यदि अभिनय का उद्देश्य सत्य का प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदना जागृत करना न होकर मात्र मिथ्या प्रदर्शन और दूसरों को भ्रम में डालना ही हो तब तो यह जीव ही हमसे अच्छे।
मेन्टिस कीड़ा यह जानता है कि उसका रंग हरा होता है तभी तो वह रहे पत्तों के बीच अपनी दोनों टाँगें इस प्रकार ऊपर करके लेट जाता है मानों किसी पौधे की जड़ से दो किल्ले फूटे हों। कीड़े की शक्ल में तो ऐसा लगता है मानो वह किसी से प्रार्थना कर रहा हो पर यह वास्तव में शिकार पकड़ने के लिये उसका बगुला−भक्तपना है। मृतक की-सी स्थिति में पड़े इस कीड़े के समीप से कोई शिकार निकला तो वह अत्यन्त द्रुत गति से उठ खड़ा होता है और चिमटे की शक्ल की अपनी दोनों टाँगों में उसे धर दबोचता है।
स्पाइडर केकड़े पानी के पौधों या जल काई को अपने शरीर में लगा लेते हैं। उनमें से कई पादप तो विधिवत जड़ पकड़ लेते हैं इस तरह वह एक हरी भरी पहाड़ी का लघु−संस्करण प्रतीत होने लगता है और तब क्या मजाल जो कोई भी व्यक्ति या जानवर इन्हें बहुत पास से पहचानले।
दण्ड कीट और अमेरिकी “वाकिंग स्टिक” के नाम करण से ही यह पता चलता है कि वे लकड़ी की टहनियों के बीच किस तरह सादृश्य बना लेते हैं कि उनके और लकड़ी के मध्य अन्तर करना भी संभव नहीं रह जाता। “माथ” का नन्हा बच्चा तो अपने अस्तित्व की रक्षा भी केवल इसी कारण कर पाता है यदि वह लकड़ी की किसी टहनी में चिपक कर स्वयं भी पूर्ण विकसित होने तक उसकी एक नन्हीं डाली न बना रहे तो कोई भी जीव उसे विकास के प्रारम्भिक चरण में ही सफाचट कर डाले।
कैलीमा तितली, फ्लावर फ्लाई तथा कुछ रंगीन सर्पों में अपने रंग की प्रकृति में छुप जाने की प्रवृत्ति होती हैं। कुछ जीव तो इस कार्य विधिवत मन चाहा रंग भी उत्पन्न कर शरीर की स्थिति के अनुरूप रंगीन वातावरण में डालने तक की क्षमता रखते हैं।
कुछ जीवों में गोल छल्ले की आकृति में, कुछ में ढेले की शक्ल में लुढ़क जाने की प्रवृत्ति होती है इनमें घिनहरी (गिंजाई) काँतर कंगारू वर्ग का आर्मडिल्लों आदि प्रमुख होते हैं। भूरे बटेर में भी छिपने की ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है। कई बार खोजी इनके आस−पास ही चक्कर काटते रहते हैं और यह साँस साधे मिट्टी बने पड़े रहते हैं किन्तु वहाँ से जरा-सा हटे कि फुर्र से उड़कर भाग जाते हैं।