Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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साधना की सफलता का उपयुक्त आश्रय
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विद्यार्थी अपने पुरुषार्थ से ही अच्छे नम्बरों से पास हुआ समझा जाता है और उसी से मान, पुरस्कार, छात्र वृत्ति आदि का लाभ मिलता है, पर वस्तुतः उसमें दूसरों का भी अनुदान जुड़ा होता है। अभिभावक उसके भोजन, वस्त्र, फीस, पुस्तक आदि का प्रबन्ध करते हैं अच्छा अध्यापक उसे पढ़ाता है। अच्छे विद्यालय में प्रवेश पाने से उसे सुविकसित साधनों का लाभ मिलता है। यों यह सहयोग परोक्ष होते हैं, पर विज्ञजन जानते हैं कि छात्र को यदि एकाकी पुरुषार्थ ही करना पड़ता, अभिभावक, अध्यापक आदि का सहयोग न मिलता तो उसकी सफलता संदिग्ध ही बनी रहती।
आत्मिक प्रगति की साधना एवं उसकी सफलता के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसके लिए उपयुक्त वातावरण, मार्गदर्शन, संरक्षण एवं वातावरण की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। वह न मिले तो किये हुए श्रम और प्रयास का सत्परिणाम संदिग्ध ही बना रहेगा। कुशल चिकित्सक के परामर्श बिना मनमाना इलाज यदि रोगी स्वयं ही करने लगे तो बात बनेगी नहीं। औषधि एवं तथ्य जुटाने के लिए भी दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है। गन्दगी, सीलन, सड़न के वातावरण में रहने पर भी रोग निवृत्ति कठिन पड़ती है। बीमारी दूर होने का लाभ और श्रेय तो रोग को ही मिलता है पर उसमें चिकित्सक, उपचार सामग्री परिचर्या तथा जलवायु का महत्व भी स्वीकार करना ही होगा।
आत्म कल्याण की साधना को भी मानसिक रुग्णता से परित्राण अथवा व्यायामशाला के सहारे स्वास्थ्य सम्वर्धन जैसा प्रयास माना जा सकता है। उसके लिए आवश्यक सहयोग एवं साधनों की सुविधा चाहिए ही। ब्रह्म वर्चस् आरण्यक में उसी प्रकार की सुविधाएँ जुटाई गई हैं जिस प्रकार कि अस्पतालों, सैनेटोरियमों एवं शोध संस्थानों में होती हैं। उपयुक्त संरक्षण एवं वातावरण में रहने पर जो लाभ मिल सकता है वह घरेलू अस्त−व्यस्तता के बीच रहते हुए मिल सकना सम्भव नहीं हैं। गंगा की गोद, हिमालय की छाया का समन्वय एक प्रकार के साधना लोक ही हुआ। सप्त ऋषियों की तपस्थली होने के कारण इस भूमि में साधना को सफल बनाने वाले सूक्ष्म तत्व पहले से ही मौजूद हैं।
ब्रह्म वर्चस् में रहकर साधना करने और घर रहकर किसी प्रकार पहिया घुमाते रहने से अस्पताल की भरती और चलती फिरती चिकित्सा जैसा अन्तर रहेगा। जो सफलता मिलने में अन्यत्र दस वर्ष लगेंगे। उसे इस उपयुक्त वातावरण में दो वर्ष में भी पूरा किया जा सकेगा।
पूर्ण गायत्री पुरश्चरण 24 लक्ष्य का होता है। यदि छह घण्टे नित्य साधना का जप, केवल उसी एक प्रयोजन में लगे रहा जाय तो इसमें एक वर्ष लगेगा। यदि उस साधना के साथ ब्रह्म विद्या का आत्म विज्ञान भी सुनना समझना हो−लोक साधना का समन्वय रखना हो तो अनुमानतः तीन घण्टे ही चल सकेगा और तीन−तीन घण्टे ब्रह्म विज्ञान और सेवा साधना के लिए रखने होंगे। ऐसी दशा में दो वर्ष का समय लगेगा। यह एक पूर्ण साधना एवं प्रशिक्षण कहा जा सकता है। जिनकी स्थिति इस योग्य हो उन्हें यहीं के वातावरण में रहकर वह तपश्चर्या करनी चाहिए। गंगाजल पीना, गंगा स्नान, आहार सम्बन्धी विशेष प्रतिबन्धों का पालन करने वाले, नियमित प्रकाश एवं अनुदान पाने वाले यह अनुभव करेंगे कि उनकी साधना प्रगति पथ पर द्रुत गति से अग्रसर हो रही है। ब्रह्म वर्चस् का निर्माण जिन दिव्य शक्तियों ने जिस दिव्य प्रयोजन के लिए कराया है वे इस बात के लिए सजग रहेंगी कि उनकी इस प्रयोगशाला में वो उत्पादन हो उसकी क्वालिटी घटिया न रहे। घटियापन में उत्पादित सामग्री से उत्पादन कर्त्ता और कारखाने की सम्मिलित रूप से बदनामी होती है। सामान्य मनुष्य असफलता और बदनामी से बचना चाहते हैं तो ब्रह्म वर्चस् के सूत्र संचालक ही क्यों अपने सिर यह अपयश आने देंगे।
दो माह के सत्रों में 24 लक्ष का नहीं मात्र सवा लक्ष का लघु पुरश्चरण कराया जाता है। उसके साथ योग साधना की पाँच धाराएँ ध्यान, प्राणायाम, त्राटक, नाद एवं मुद्रा आदि को भी जोड़कर रखा जाता है। साधक के स्तर के अनुरूप उसे इन धाराओं के विभिन्न स्तरों का निर्देश देने की व्यवस्था रखी जाती हैं। गायत्री की पंचमुखी उपासना पंचकोष अनावरण एवं कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया योग की इन्हीं धाराओं के विभिन्न प्रकार के संयोगों प्रयोगों से सम्भव है।
ब्रह्म वर्चस् द्वारा वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जीवन प्रधान लक्ष्य है। प्रशिक्षण लगभग उसी स्तर का है। मात्र भजन, पूजन की पर्याप्त नहीं होता। प्रखर साधना में जीवन को पवित्र और परमार्थ परायण भी बनाना पड़ता है। आत्म साधना और लोक साधना का खाद पानी पाकर ही साधना का कल्प वृक्ष बढ़ता और फलता फूलता है। यह तीनों ही प्रयोजनों वानप्रस्थ में सधते हैं। भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड वही है। इसी खदान में ऐसे लोकसेवी निकलते रहे हैं जो व्यक्ति को परिष्कृत और समाज को समुन्नत बना सकने में समर्थ सिद्ध हो सके। आज की साधु संस्थाओं में निठल्ले पड़े रहने, दिन काटते रहने भर की सुविधा तो है, पर वैसी परिस्थितियाँ जिन्हें अस्पताल, विद्यालय के शोध संस्थान एवं प्रयोगशाला की उपमा दी जा सके कदाचित ही कहीं मिलेगी। ब्रह्म वर्चस् ने इस अभाव की पूर्ति की है। अस्तु उसे आज की स्थिति में अनुपम ही कहा जा सकता है।
उपासना, साधनात्मक नियमों के अतिरिक्त ब्रह्म विज्ञान एवं सेवा साधना के अभ्यास क्रम की व्यवस्था एवं रूपरेखा आदर्श वानप्रस्थ के अनुरूप ही बनायी गयी है। जीवन की अगणित धाराओं को माया के भूल भटकाव से बचाकर बनाने के लिए किसे कब किन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए यह जाने बिना वानप्रस्थ स्तर के उत्तरदायित्व पूरे नहीं किये जा सकते। सेवा साधना के सूत्रों को जीवन में उतारने का व्यवस्थित अभ्यास भी उसी के अनुरूप होना आवश्यक है, अन्यथा इच्छा और ज्ञान होते हुए भी कुछ करना सम्भव नहीं होगा।
वानप्रस्थ जीवनचर्या अपनाने वालों के लिए लोक−मंगल के धर्म प्रचार का एक उपयोगी तन्त्र भी खड़ा किया जाना है। अन्यथा हर व्यक्ति अपने बूते वह कर भी नहीं सकता। स्वतन्त्र रूप से धर्म प्रचार करने के लिए व्यक्ति को कठिनाई पड़ती है। उसका परिचय कम रहने से कर्मक्षेत्र भी छोटा रहता है और प्रामाणिकता भी संदिग्ध रहती है। मिशन का अंग बनकर धर्म प्रचार के क्षेत्र में उतरने की उपयोगिता एकाकी प्रयत्नों की अपेक्षा सैकड़ों गुनी अधिक है। मिशन का सुविस्तृत कार्यक्षेत्र देश−देशान्तरों में बिखरा पड़ा है। भारत के कोने−कोने में उसका विस्तार है। मिशन की प्रामाणिकता का लाभ उसमें पले पोसे साधकों को सहज ही उत्तराधिकार में मिल जाता है। अधिक व्यापक क्षेत्र में काम करने−अधिक विज्ञ जनों का सहयोग पाने−अधिक लोगों को बीच यश पाने एवं अधिक सेवा करने का जो सुयोग ब्रह्म वर्चस् के साधकों को मिल सकता है; उससे उन्हें वंचित ही रहना पड़ेगा जो अलग−थलग रहकर अकेले ही काम करना चाहते हैं। तिनकों से मिलकर रस्सी और सींकों से मिल कर बुहारी बनने की बात सर्वविदित है। संयुक्त शक्ति सहारे ही बड़े कार्य सम्भव होते हैं। सेना का अंग रहने की स्थिति में किसी योद्धा को अपने पुरुषार्थ को बढ़ा एवं प्रकट करने का जो अवसर मिलता है वह घर रहकर योद्धा बनने के एकाकी प्रयत्न करने वाले को कहाँ मिल सकता है?
जिन्हें चुँचु प्रवेश करना हो जहाँ तहाँ का जैसा तैसा स्वाद चखना हो वे इधर−उधर भटकते हुए आधी अधूरी साधना करते रहें, पर जिन्हें किसी ठोस परिणाम की अपेक्षा है, उन्हें ब्रह्म वर्चस् जैसे साधन सम्पन्न आश्रम में ही अपने सुव्यवस्थित प्रयास चलाने चाहिए।
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