Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवन साधना के 14 स्वर्णिम सूत्र
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पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मथा गया था और उसमें से 14 बहुमूल्य रत्न निकले थे, जिनमें सूर्य, चन्द्र और अमृत जैसी दिव्य विभूतियाँ भी सम्मिलित थीं। कथानक की यथार्थता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता पर यह सत्य है कि जीवन एक समुद्र है और यदि उसे सही रीति से मथा जा सके तो उसमें से वे रत्न प्राप्त हो सकते हैं जो देवताओं के लिए समुद्र मन्थन से प्राप्त उपलब्धियों से भी कहीं अधिक मूल्यवान सिद्ध हो सकें।
आत्मिक प्रगति के पथ पर जिन दो चरणों को बढ़ाते हुए चला जाता है उनमें एक है उपासना, दूसरा साधना। उपासना पूजा उपक्रम को कहते हैं और साधना—जीवन को परिष्कृत स्तर पर जीने की प्रक्रिया को उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य की नीति अपना कर सज्जनता और परमार्थ परायणता के समन्वय को जीवन साधना कहा जा सकता है। उपासना व्यायाम है और साधना आहार। उपासना बीज है और साधना उपजाऊ भूमि। उपासना पौधा है और साधना सिंचाई। उपासना कारतूस है और साधना बन्दूक। दोनों के समन्वय से ही आत्मोत्कर्ष की दिशा में अभीष्ट प्रगति हो सकती है।
साधना स्वर्ण जयन्ती वर्ष में 45 मिनट की साधना का उपक्रम चल रहा है। उसमें जिन लोगों ने भाग लिया है वे उसे उत्साहपूर्वक जारी रखें। साथ ही इस तथ्य पर भी ध्यान रखें कि उपासना के साथ जीवन साधना के लिए भी प्रयत्नशील रहना है। अपने दृष्टिकोण को अपेक्षाकृत अधिक उत्कृष्ट और क्रिया−कलाप को अधिकाधिक आदर्श बनाने के लिए निरन्तर जागरूकता बरतें और सचेष्ट रहें।
इसके लिए समुद्र मन्थन द्वारा निकले हुए रत्नों की तरह जीवन साधना के 14 सूत्र धर्मशास्त्रों और आप्त वचनों के सार रूप निचोड़े गये हैं। इन पर साधना वर्ष के सदस्यों को विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
1. आस्तिकता (ईश्वर विश्वास)
ईश्वर विश्वास मानवी नैतिकता का मेरुदंड है। उसे हर कीमत पर सुरक्षित रखा जाना चाहिए। कर्म फल सिद्धान्त आस्तिकता से जुड़ा हुआ है। तत्काल कर्म फल मिलने की छूट देकर मनुष्य की निजी गरिमा परखी गई है, अन्यथा तत्काल कर्मफल की व्यवस्था रही होती तो मनुष्य दण्डभय से एक जैसे बने रहते और उनको निजी स्तर निखर न पाता। कर्मफल तत्काल मिलते न देखकर लोग इस भ्रम में पड़ते हैं कि वे सदा ही अपनी चतुरता से बचे रह सकते हैं और मनमानी स्वार्थपरता एवं अनीति में लगे रह सकते हैं। इसी भ्रम में मनुष्य कुमार्गगामी बनता है। अस्तु जनमानस में ईश्वरीय शासन की आस्था दृढ़तापूर्वक जमा रहनी चाहिए।
2. आध्यात्मिकता (आत्मविश्वास− आत्मनिष्ठा)
अपने गौरव एवं वर्चस्व को सदा ध्यान में रखा जाय। अपनी मूल सत्ता को ईश्वर का पवित्र एवं समर्थ अंश माना जाय। अपने भीतर छिपी अगणित विशेषताओं को ध्यान में रखा जाय और उन्हें जागृत करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाय। गुण, कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता की अपनी सबसे बड़ी पूजा समझा जाय और इस आधार पर उत्पन्न हुई आत्म−शक्ति की मात्रा को जीवन की वास्तविक सफलता अनुभव किया जाय।
अपने भाग्य का निर्माणकर्ता मनुष्य स्वयं है। इस तथ्य को पूरी तरह हृदयंगम रखा जाय। हर दिन कुछ समय निकाल कर आत्म−चिन्तन, आत्म−सुधार, आत्म−निर्माण एवं आत्म विकास को ध्यान में रखते हुए वर्तमान स्थिति की समीक्षा और प्रगति की भावी योजना बनाने की प्रक्रिया नियमित रूप से जारी रखी जाय।
मनुष्य शरीर को ईश्वर प्रदत्त सर्वोपरि उपहार और चौरासी लाख योनियों की लम्बी शृंखला का अनुपम सौभाग्य माना जाय। समझा जाय कि इतना साधन सम्पन्न शरीर सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला इसमें ईश्वर का पक्षपात नहीं वरन् विशिष्ठ उत्तरदायित्व सौंपकर प्रामाणिकता परखना ही एक मात्र कारण है। यह धरोहर ईश्वर के इस विश्व उद्यान को अधिक सुविकसित सुसंस्कृत बनाने में हाथ बटाने के लिए मिली है। इस सम्पदा को लोभ, मोह और वासना, तृष्णा की संकीर्ण स्वार्थपरता में नष्ट नहीं किया जाना चाहिए वरन् अपने को अधिकाधिक पवित्र बनाते हुए पूर्णता के स्तर तक पहुँचने में, लोकमंगल के लिए बढ़े−चढ़े अनुदान देने में जीवन की सार्थकता माननी चाहिए।
3. धार्मिकता (कर्त्तव्य−निष्ठा)
मानवी गरिमा को उच्चस्तरीय धर्म कर्त्तव्यों से पूरी तरह जकड़ा माना जाय। नैतिक और सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए अपने को कठोर अनुशासन में बाँध कर रखा जाय। उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अनैतिकता अपनाने की पशु प्रवृत्ति को प्रत्यक्ष आत्मपतन माना जाय। और पिछले दिनों ऐसा कुछ बन पड़ा हो तो उस पर पश्चाताप किया जाय। अनैतिक आचरणों से व्यक्ति विशेष को ही नहीं समूचे समाज को क्षति पहुँचती है इसलिए जो अपने से हों उसकी क्षतिपूर्ति के लिए प्रायश्चित्त का साहस जुटाया जाय। पापों के रूप में पतन की दिशा में जो बन पड़ा है उसी के समतुल्य सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने वाला पुण्य परमार्थ करके ही पिछले पापों का प्रायश्चित्त हो सकता है।
धर्म का अर्थ है कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह अपने प्रति तथा दूसरों के प्रति कर्त्तव्य पालन में तत्परता बरती जाय और जो व्यवधान इस मार्ग में आड़े आते हो उन्हें हटाया जाय।
शरीर, आत्मा, परिवार, समाज एवं ईश्वर के प्रति अपने पवित्र कर्त्तव्यों का निरन्तर ध्यान रखा जाय और उनके पालन करने में कुछ भी भेद न रखा जाय।
4. प्रगति शीलता (आत्मोत्कर्ष)
हमें विचारशील दूरदर्शी होना चाहिए और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर हर बात की यथार्थता समझने की चेष्टा करनी चाहिए। एकांगी दृष्टिकोण रखने से भ्रमपूर्ण स्थिति मस्तिष्क पर छा जाती है और उसके प्रभाव से अनुचित निर्णय हो जाते हैं जिनका परिणाम पीछे पश्चाताप करने जैसा ही सामने आता है। हमें सर्वत्र सत्य की खोज करनी चाहिए और उचित निर्णय लेने चाहिए।
ज्ञान वृद्धि की दृष्टि से हर दिन ऐसा साहित्य पढ़ने का नियम बनाना चाहिए जो अपने व्यक्तित्व को सुसंस्कृत बनाने में तथा सामाजिक समस्याओं के हल करने में उपयुक्त मार्ग दर्शन कर सके। ऐसा स्वाध्याय मानसिक भूख बुझाने के लिए दैनिक आहार की तरह ही आवश्यक समझा जाय उसके लिए नित्य कुछ समय निर्धारित रखा जाय।
5. संयम शीलता (इन्द्रिय निग्रह)
इन्द्रिय शक्ति के दुरुपयोग से असंयम से केवल हानि ही हानि है। जीभ को मिर्च-मसाले और पकवान−मिष्ठान्नों का आदी बनाकर अनावश्यक और अनुपयोगी पदार्थ पेट में भरे जाते हैं फलतः अपच उत्पन्न होता है और तरह−तरह के रोग खड़े होते हैं। तामसिक राजसिक आहार में धन समय और स्वास्थ्य की बर्बादी अत्यन्त स्पष्ट है। जैसा अन्न वैसा मन की उक्ति सर्वविदित है। आहार की सात्विकता का प्रभाव साधक की मनोभूमि पर सीधा पड़ता है। जीभ का चटोरापन रोके बिना इन हानियों से नहीं बचा जा सकता। समझदारी इसी में है कि कड़ी भूख लगने पर सात्विक और सुपाच्य आहार ही उचित मात्रा में ग्रहण किया जाय।
ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन किया जाय। ओजस का कामुकता के क्षणिक मनोरंजन में अपव्यय करना बहुत महंगा सौदा समझा जाय। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य पालन की उपयोगिता स्वीकार की जाय और आचरण में लाया जाय।
6. समस्वरता (मानसिक सन्तुलन)
मस्तिष्कीय समस्वरता को हर स्थिति में अक्षुण्ण रखा जाय। प्रिय और अप्रिय परिस्थितियाँ हर किसी के जीवन में आती हैं, उनमें उद्विग्न हो उठने से मानसिक तन्त्र गड़बड़ा जाता है और उत्तेजित स्थिति में ऐसे निर्णय एवं काम करता रहता है जिनसे स्वनिर्मित विपत्ति के संकट घुमड़ने लगते हैं। सफलताओं पर कई व्यक्ति हर्षोन्मत्त हो उठते हैं। अहंकारी बनते और दुस्साहस करने पर उतारू होते हैं। उद्धत प्रदर्शन करने एवं शेखीखोरी पर उतारू भी ऐसे ही लोग होते हैं फलतः वे ठोकर खाते और यश गँवाते हैं। सफलताओं को ईश्वरीय अनुग्रह एवं साथियों का सहयोग समझा जाय। आत्म−विश्वास तो बढ़े पर नम्रता एवं गम्भीरता हर हालत में बनी रहे।
7. पारिवारिकता (आत्मविस्तार की प्रक्रिया)
परिवार एक छोटा समाज एवं छोटा राष्ट्र है। उसकी सुव्यवस्था एवं शालीनता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी बड़ी रूप में समूचे राष्ट्र की। इस छोटी-सी प्रयोगशाला में व्यायामशाला एवं पाठशाला में उसके प्रत्येक सदस्य को वैयक्तिक कर्त्तव्यों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को समझने निबाहने की शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल सके, ऐसा ढाँचा खड़ा किया जाना चाहिए। यही प्रवृत्ति विकसित होते−होते विश्व नागरिकता एवं मानव परिवार का सृजन करेगी।
दिनचर्या बनाकर घर के सब काम निपटाये जाय। कोई सदस्य बेकार न रहे और किसी पर श्रम का अनावश्यक दबाव न पड़े। श्रमशीलता, मितव्ययिता, सहकारिता, शिष्टता, एवं उदार आत्मीयता की सत्प्रवृत्तियाँ सीखने और बढ़ाने का अवसर घर के हर सदस्य को मिले। बड़ों को समुचित आदर और छोटों को भरपूर स्नेह दुलार मिलना चाहिए। उत्तराधिकार में प्रचुर सम्पदा छोड़ने की बात किसी को भी नहीं सोचनी चाहिए। सद्गुणी और स्वावलम्बी बना देना ही अभिभावकों का कर्त्तव्य है।
8. सामाजिकता (नागरिकता)
दूसरों के साथ वही व्यवहार किया जाय जो हम दूसरों से अपने प्रति किये जाने की अपेक्षा करते हैं। इस कसौटी पर जो भी कार्य खरे उतरे उन्हें नैतिक एवं सामाजिक कहा जा सकता है। हमें किसी के नागरिक अधिकारों का हरण नहीं करना चाहिए। शोषण, दबाव, छल की नीति किसी के प्रति भी नहीं अपनायी जानी चाहिए। हर किसी को सम्मान दिया जाय और सद्व्यवहार किया जाय। अपनी शालीनता की रक्षा इसी में होती है। अपराधी आचरण न तो स्वयं किए जायं और न दूसरों को करने दिया जाय। जहाँ अनीति बरती जा रही हो वहाँ असहयोग और विरोध तो किया ही जाय। आवश्यकता पड़ने पर संघर्ष करने और सरकारी सहायता से उसे रोकने में भी शिथिलता न की जाय। अनैतिक और असामाजिक कार्यों के विरोध में संगठित चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए।
शिष्टाचार, सद्व्यवहार, मनुजता, सामूहिकता और नागरिकता की प्रवृत्तियाँ सभ्य समाज के प्रत्येक सदस्य को अपनानी पड़ती हैं। उसे अपना चिन्तन उदार और कर्त्तृत्व आदर्श रखना पड़ता है। हमारा स्वभाव समाजनिष्ठ होना चाहिए। व्यक्तिवाद के प्रति उपेक्षा और समूहवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों का समाज ही समुन्नत होता है और उसके सदस्य सुखी रह सकते हैं यह तथ्य हर किसी को हृदयंगम करना और कराना चाहिए।
9. शालीनता (स्वच्छता एवं सादगी)
स्वच्छता मनुष्य की जागरूकता, सुरुचि एवं कलात्मक दृष्टिकोण की परिचायक है। उससे मनुष्य की सौन्दर्यप्रियता व सतर्कता का प्रमाण मिलता है। मनुष्य की सुरुचि का उसके विकसित सभ्यता स्तर का पता इस बात से लगता है कि उसका स्वभाव कितना स्वच्छता प्रिय है।
स्वच्छता की स्थिति तभी रह सकती है जब गन्दगी से निपटने के लिए हर समय कटिबद्ध रहा जाय। स्वच्छता से प्रेम हो तो गन्दगी साफ करने में अपना निज का उत्साह करना चाहिए। शरीर, वस्त्र, वस्तुएँ, उपकरण, घर आदि की स्वच्छता सुव्यवस्था देख कर यह पता चलता है कि आपने मानवी सभ्यता के क्षेत्र में कितना प्रवेश पा लिया। सौन्दर्यप्रियता की एक मात्र परख स्वच्छता और सुव्यवस्था है। अपने पहनाव−उढ़ाव, परिधान, वेश विन्यास एवं उपकरणों में सादगी सस्तेपन का समावेश होना चाहिए। अपव्यय और उद्धत प्रदर्शन से शालीनता का स्तर गिरता है बढ़ता नहीं। यह तथ्य भली प्रकार ध्यान में रखा जाय।
10. नियमितता (समय और श्रम का संतुलन)
समय ही जीवन की आवश्यक सम्पत्ति है दुनिया के बाजार में से अभीष्ट वस्तुएँ समय और श्रम का मूल्य देकर ही खरीदी जाती हैं। प्रत्येक क्षण को बहुमूल्य माना जाय और समय का कोई भी अंश आलस्य−प्रमाद में नष्ट न होने पावे इसका पूरा−पूरा ध्यान रखा जाय। समय की बर्बादी अप्रत्यक्ष आत्महत्या है। धन के अपव्यय से भी असंख्य गुनी हानि समय के अपव्यय से होती है। खोया धन पाया जा सकता है, पर खोया हुआ समय नहीं।
सोकर उठने से लेकर रात्रि को सोते समय तक की पूरी दिनचर्या हर रोज निर्धारित कर ली जाय और शक्ति भर यह प्रयत्न किया जाय कि हर कार्य अपने समय पर पूरा होता रहे। परिस्थिति बदल जाने पर आकस्मिक कारणों से तो हेर-फेर हो सकता है, पर आलस्य प्रमादवश व्यतिरेक न होने दिया जाय।
11. प्रामाणिकता (ईमानदारी− जिम्मेदारी)
धन सम्बन्धी ईमानदारी और कर्त्तव्य सम्बन्धी जिम्मेदारी का समन्वय किसी व्यक्ति को प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित बनाता है। हर व्यक्ति को अपनी योग्यता बढ़ाकर तथा कठोर श्रम करके अधिक उपार्जन, उत्पादन करना चाहिए, तभी राष्ट्रीय समृद्धि और व्यक्तिगत क्षमता का विकास होगा। किन्तु जो पैसा कमाया जाय वह न्यायनीति युक्त एवं श्रम उपार्जित होना चाहिए, बेईमानी, मिलावट, रिश्वत, मुनाफाखोरी के उपार्जन को भी चोरी, लूट, ठगी, डकैती जैसे बड़े अपराधों की कोटि में ही गिनना चाहिए। श्रमिकों को पूरा श्रम करना चाहिए। व्यापारियों को उचित कीमत पर सही चीज बेचनी चाहिए और किसी को भी अनीतिपूर्वक पैसा नहीं कमाना चाहिए। बजट बनाकर अपना खर्च उतना ही सीमित रखा जाय जिसमें ईमानदारी की सीमित कमाई से ही गुजारा हो सके। आमतौर से अपव्ययी और संग्रह के लालची लोगों को ही बेईमान बनना पड़ता है। फिजूल खर्ची अपनाकर ऋणी बनने वाले लोग भी बेईमानों की हेय श्रेणी में ही गिने जायेंगे।
12. विवेकशीलता (औचित्य की ही मान्यता)
अपनी संस्कृति कभी बहुत ही उच्च कोटि की थी उसकी श्रेष्ठ परम्परायें संसार भर में सम्मानित होती थीं। पर पिछले अन्धकार युग में विदेशी दासता के साथ साथ अनेक विकृतियाँ घुस पड़ी हैं और उसमें कुरीतियों अन्ध विश्वासों और मूढ़ मान्यताओं ने जड़ें जमा ली हैं। शुद्ध रक्त यदि सड़ जाय तो वह विषैले मवाद का रूप धारण कर लेता है। विषाणुओं का उन्मूलन न किया जाय तो शरीर की रुग्णता बढ़ेगी और अकाल मृत्यु का संकट सामने आ खड़ा होगा। अपने समाज में फैली हुई अवांछनीय मान्यताओं को उसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए और उनके उन्मूलन का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए।
13. परमार्थ परायणता (अंशदान)
हर मनुष्य के पास (1) समय (2) श्रम (3) बुद्धि (4) धन, ये चार सम्पदायें होती हैं। इनमें से समय और श्रमशक्ति युक्त जीवन तो विशुद्ध रूप से ईश्वर प्रदत्त है। बुद्धि भी उन्हीं की देन है। इसे विकसित करने में चिर काल से असंख्य लोगों द्वारा संचित अनुभवों के संग्रह का ही योगदान रहता है। धन कमाना तो मनुष्य पुरुषार्थ से है, पर वह संभव तभी होता है जब दूसरे भी उस उत्पादन एवं विनिमय में सहयोग करें। इन चारों सम्पत्तियों को भगवान की एवं समाज की अमानत माना जाय और इनके द्वारा मात्र अपना ही स्वार्थ सिद्ध नहीं करते रहा जाय वरन् परमार्थ प्रयोजनों के लिए भी अंशदान किया जाय।
हम में से प्रत्येक को ज्ञानघट में न्यूनतम दस पैसे प्रतिदिन निकालने और एक घण्टा नित्य विचार क्रान्ति के लिए जन सम्पर्क में लगाने का कर्त्तव्य नियत किया है। इतना न्यूनतम अंशदान तो हर भावनाशील व्यक्ति को करना ही चाहिए। यह पैसा और समय मात्र जन मानस का भावनात्मक परिष्कार करने के लिए उपयोगी साहित्य खरीदने और उसे पढ़ाने सुनाने में लगाया जाना चाहिए।
14. प्रखरता (साहस एवं पराक्रम)
हर व्यक्ति को निर्भीक और साहसी होना चाहिए। इसके लिए उद्दण्डता की सीमा तक जाने की या आतंकवादी बनने की आवश्यकता नहीं है। सज्जनता के साथ निर्भीकता और साहसिकता जुड़ी रहे तभी उसका कुछ मूल्य है। बिना कटुता उत्पन्न किये एवं बिना कष्ट के अपनी आदर्शवादिता को अक्षुण्ण बनाये रखा जा सके तो इसे व्यवहार कुशलता माना जायगा। सहयोग मात्र सत्प्रवृत्तियों का ही किया जाय, सज्जनता का ही समर्थन हो। अपने भले या भोले होने का लाभ अवांछनीय व्यक्तियों को अवांछनीय कर्मों के लिए न मिलने पावे इसके लिए समुचित सतर्कता बरती जानी चाहिए।
हर किसी को आत्म−विश्वासी होना चाहिए। अपने पुरुषार्थ और साहस पर भरोसा करना चाहिए। अपने बलबूते, अपने साधनों से अपने संकल्प बल के सहारे अपनी योजनाएँ बनानी चाहिए।
लक्ष्य तक पहुँचने की दृढ़ता और हिम्मत अपने भीतर उगानी चाहिए। अपनी दुर्बलताओं को आत्मबल से समाप्त करना चाहिए। परामर्शदाताओं की बातों में जितना तथ्य एवं औचित्य हो, केवल उतना ही मानना चाहिए। आदर्शों को पालन करने में एकाकी खड़े रह सकने की प्रखरता उत्पन्न करनी चाहिए। ऐसे मनस्वी व्यक्ति ही सांसारिक एवं आत्मिक प्रयोजनों में सफल होते हैं। इस कटु सत्य को हृदयंगम करने में ही कल्याण है।
उपरोक्त 14 स्वर्णिम सूत्रों को यहाँ संक्षेप में लिखा गया है। इनका अधिक विस्तार 30 पैसा मूल्य की “जीवन साधना के 14 स्वर्णिम सूत्र” नामक पुस्तिका में छाप दिया गया है। इन आदर्शों को अपने व्यावहारिक जीवन में उतारने का प्रयत्न भी आरम्भ कर देना चाहिए।
आरम्भ के दिन ही इन सब आदर्शों का पालन पूरी तरह किया जाने लगेगा इसकी अपेक्षा तो नहीं की गई, पर यह आशा अवश्य की गई है कि इन्हें सिद्धान्त रूप से निष्ठा पूर्वक स्वीकार कर लिया जाय और प्रतिदिन यह समीक्षा की जाय कि आदर्श और व्यवहार में कितना अन्तर है उस अन्तर को क्रमशः घटाते चला जाय। यह प्रगति भले ही धीमी हो पर प्रयास आगे ही आगे चलते रहने चाहिए। जहाँ यह निश्चय होगा वहाँ परिवर्तन में तीव्रता आती जायगी। स्पष्ट है कि जीवन साधना की पृष्ठभूमि पर ही उपासना का कल्पवृक्ष पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।