Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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संगति का प्रभाव, परिणाम!
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ऐसे मनस्वी संसार में कम हैं जो अपनी उत्कृष्ट विशेषताएँ अनुपयुक्त व्यक्तियों तथा वातावरण में भी अक्षुण्ण बनाये रह सकें। अधिकतर लोग ऐसे होते हैं जो वातावरण से प्रभावित होते हैं। दुर्बल एवं सामान्य मनःस्थिति पर सम्पर्क एवं वातावरण ही अपना प्रभाव छोड़ता है। दर्पण के सामने जो भी दृश्य उपस्थित होता है उसी का प्रतिबिम्ब दीखने लगता है। जैसे लोगों के बीच रहा जाता है सामान्य व्यक्ति उसी प्रभाव से प्रभावित होता है और हवा के साथ उड़ने लगता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हर व्यक्ति को अपने सम्पर्क क्षेत्र के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्क रहना चाहिए। अवांछनीय तत्वों से बचना चाहिए। सत्सम्पर्क बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। कुसंग से तो सर्प की तरह बचना चाहिए उससे सब प्रकार हानि ही हानि है। शास्त्र कहता है—
यदि संतं सेवेति यद्यसंतं तपस्विनं यदि स्तेनमेव।
वासो यथा रंगवशं प्रयाति तथा स तेषां वशमुभ्यपैति॥
—लिंग पुराण
मनुष्य सज्जन, असज्जन, तपस्वी या चोर जिस किसी की भी संगति में रहता है, जिस प्रकार वस्त्र रंग में रंग जाता है उसी प्रकार वह मानव वह साथ रहने वाले मनुष्य के समान बन जाता है।
श्रीमद्भागवते भाग्योदयेन बहुजन्मसमर्जितेन
सत्संगमं च लभते पुरुषो यदा वै। अज्ञानहेतुकृतमोह−महांधकारनाशं
विधाय हि तदोदयते विवेकः॥
—भागवत
यदि भाग्य से किसी को सज्जनों की संगति प्राप्त हो जाय तो अज्ञान रूपी अन्धकार से छुटकारा मिलता है और विवेक रूपी प्रकाश का उदय होता है।
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्।
—नीति
सज्जनों की संगति से क्या−क्या सत्परिणाम प्राप्त नहीं होते?
लघुर्जनः सजुनसंग संगात् करोति दुस्साध्यमपि सुसाध्यम्। पुष्पाश्रयाच्छंभुशिरो धिरूढ़ा पिपीलिका चुम्बति चन्द्र विम्बम्।
—नीति सुधाकर
छोटे मनुष्य भी श्रेष्ठ जनों के साथ कठिन कार्यों को सरल बना लेते हैं। चींटी फूल का सहारा लेकर देवता के अधरों का चुम्बन करती है।
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।
तान् सेवत्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी॥
महा भा.वन. 1-26
“जिन महापुरुषों के विद्या, वंश और कर्म श्रेष्ठ हों उनकी सेवा में रहना चाहिए। उनके साथ उठना−बैठना शास्त्रों के स्वाध्याय से भी महत्वपूर्ण है।”
निसंगता मुक्तिपदं यति नां
संगाद्शेषाः प्रमवन्ति दोषाः
आरुढ़ योगोऽपि निपात्यते ऽ धः
संगेन यागी किमु ताल्ष सिद्धिः॥
—(स्मृति)
“यतियों का संग (आसक्ति) रहित होना मुक्ति का स्थान है। संग से ही समस्त दोष पैदा होते हैं। योगारूढ़ भी संग से अधोगति को प्राप्त होते हैं, तो फिर अल्प सिद्धि वाला अपक्व योगी की तो बात ही क्या है।”
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