Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने पैरों आप कुल्हाड़ी न मारें
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शरीर शास्त्रियों से पूछा तो उनने काया की संरचना के ईश्वरीय कौशल पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला और बताया कि इस तुलना में मनुष्यकृत सारे निर्माण तुच्छ हैं। इसका प्रत्येक कल-पुर्जा इतनी कुशलता के साथ बनाया गया है कि उसे सौ वर्ष तक नहीं सैंकड़ों वर्षों तक भली प्रकार काम करते रहने में किसी प्रकार की अड़चन नहीं हो सकती। वे अपना काम बिना किसी गड़बड़ी के चिरकाल तक बड़ी आसानी से करते रह सकते हैं। हथौड़ा कुल्हाड़ी लेकर उसे बर्बाद करना हो तो बात दूसरी है अन्यथा इतनी मजबूत और इतनी सही स्वसंचालित मशीन संसार भर में एक भी नहीं है जैसी कि मानवी काया। इतना ही नहीं इसमें एक और भी विशेषता है कि टूट−फूट की मरम्मत और बाहरी आक्रमणों को निरस्त करने की भी अद्भुत क्षमता इसके कण−कण में भरी पड़ी है। रक्त के श्वेत सैनिक बाहर से भीतर आने वाले अथवा भीतर ही उत्पन्न होने वाले मारक विषाणुओं को परास्त करने की क्षमता से पूरी तरह सम्पन्न हैं। चोट लग जाने पर रक्त का एक विशेष अंश ऊपर चमड़ी पर चिपककर खुरंट बन जाता है और रक्त बहने को रोकने तथा बाहर के अवांछनीय तत्वों को उसमें न घुसने देने के दोनों ही कार्य पूरे कर देता है। रक्त में प्रवेश विष फोड़े फुंसियों के दर्द, ताप, दाह आदि के रूप में बाहर निकाल फेंकने के लिए जीवनी शक्ति अनायास ही प्रबल प्रयत्न करती रहती है। शरीर शास्त्री बताते हैं कि शरीर जैसी अद्भुत रसायनशाला इस धरती पर कहीं भी नहीं है। अनाज से रक्त बना देने वाली रासायनिक क्रिया की वैज्ञानिक अभी कल्पना भी नहीं कर सके हैं। आहार का शारीरिक बल और मस्तिष्कीय चिन्तन में बदल जाना ऐसा चमत्कार है जिसे रसायन शास्त्री स्वयं प्रस्तुत कर सकने में अपने को सर्वथा असहाय अनुभव करते हैं।
लगता है पूर्ण सृष्टा ने अपनी इस कलाकृति को यथासम्भव सर्वथा पूर्ण न सही पर पूर्णता के अनुरूप तो अवश्य ही बनाया है। अनावश्यक और अवांछनीय तोड़−फोड़ की जाय तब तो बारूद के सहारे पहाड़ तक गिराये जा सकते हैं, पर यदि सम्भाल कर रखा जा सके और अनावश्यक छेड़खानी करने से हाथ रोका जा सके तो यह शरीर बिना किसी विशेष प्रयत्न के ऐसे ही सुदृढ़ बना रह सकता है।
शरीर विज्ञानियों का यह तथ्य अक्षरशः सही प्रतीत होता है क्योंकि जानबूझ कर तोड़−फोड़ न मचाने वाले वनवासी−अभाव ग्रस्त और अशिक्षित होते हुए भी सशक्त रोग मुक्त और दीर्घजीवी बने रहते हैं। रूस के उजेविस्तान क्षेत्र में लोग अधिक स्वस्थ और अधिक दीर्घजीवी पाये जाते हैं। तलाश करने पर इतना ही निष्कर्ष निकला है वे भी अन्यत्र रहने वाले, पिछड़े समझे जाने वाले लोगों में से ही हैं, विशेषता एक ही है कि शरीर को अपने ढंग से काम करने देते हैं उसके साथ शरारत नहीं करते। इतने भर से उनका स्वास्थ्य, समस्या का रूप धारण नहीं करता है और निरोगता की गाड़ी अपने पहियों पर ठीक तरह लुढ़कती हुई−लम्बा सफर पार कर लेती है। यही बात अन्यत्र पाये जाने वाले स्वस्थ मनुष्यों के सम्बन्ध में भी है। प्रकृति प्रदत्त सहज ज्ञान के आधार पर यदि आहार−विहार की क्रिया पद्धति बनी रहे तो फिर न तो कमजोरी घेरेगी और न बीमार पड़ना पड़ेगा। काया को क्षत−विक्षत कर डालने वाली कुल्हाड़ी असंयम की अनियमितता ही है। इसी भारी रेती से हम अपने अच्छे भले कल−पुर्जों को काट-पीट कर दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पटक देते हैं। अस्वस्थता के अभिशाप में दैवी प्रकोप की, विधि−विधान की बात सोचना व्यर्थ है। इस आत्म प्रवंचना को अपनाने से तो सुधार का उपाय सोचने की भी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और भविष्य पूर्णतया अन्धकारमय बन जाता है।
बात विधि के विधान और भाग्य दोष की चल पड़ी तो लगे हाथों इस पर भी विचार क्यों न कर लिया जाय? सृष्टि के समस्त प्राणियों पर दृष्टि डालकर उसकी शारीरिक स्थिति का पर्यवेक्षण किया जाय और देखा जाय कि उनमें से कितनों को दुर्बलता एवं रुग्णता का शिकार बनना पड़ रहा है। जलचर, नभचर और थलचर प्रकृति के स्वदेज, अंडज, उद्विज, जरायुज वर्ग के समस्त प्राणियों का गहरा उथला सर्वेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि इनमें से किसी के भी सामने स्वास्थ्य समस्या नहीं है। बुढ़ापा और मरण तो सभी के सामने आता है, पद मध्यावधि में किसी को भी बीमारियों का त्रास नहीं सहना पड़ता। सर्दी−गर्मी, भूख, आक्रमण के शिकार होते रहने—अनेकानेक प्रतिकूलताओं का सामना करते रहने पर भी वे आजीवन निरोग ही बने रहते हैं। मनुष्य को तो अनेक सुविधाएँ प्राप्त हैं। फलतः उसे अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ रहना चाहिए था पर देखा विपरीत जाता है। पिछड़ी समझी जाने वाली योनियों के प्राणी आरोग्य का आनन्द लेते रहे और प्रगतिशील कहलाने वाला मनुष्य उस सहज सौभाग्य से वंचित ही बना रहे यह कैसी विषम विडम्बना है? मनुष्य स्वयं बीमार पड़ा और अपने चंगुल में फँसे हुए पालतु पशुओं, पक्षियों को भी बीमार बनाया। यदि इसी का नाम बुद्धिमत्ता है तो उसे पाकर मनुष्य ने क्या लाभ कमाया?
इन सब बातों पर विचार करने से अपने समीपवर्ती क्षेत्र में जो भी निरोग, समर्थ, प्रफुल्लित, उल्लसित, स्फूर्तिवान व्यक्ति पाये जाते हैं उनके सम्बन्ध में यही धारणा बनानी पड़ती है कि वे किन्हीं विशेष सुविधाओं के कारण इस उत्तम स्थिति में नहीं रह रहे हैं मात्र शरीर यात्रा के लिए प्रकृति निर्धारित आचार संहिता का पालन करने भर से ही आरोग्य का वह आनन्द पाया जा सकता है जिसे जीवन का प्रथम सुख कहा जाता है।
स्वस्थ, उत्साही और स्फूर्तिवान मनुष्य से अपनी तुलना की जाय, यदि उनके अंग−अवयवों से अपनों की समता की जाय तो प्रतीत होगा कि एक ही वर्ग के जीवधारी होते हुए भी हम लोगों के बीच अन्य क्षेत्रों में ही नहीं आरोग्य स्तर की विषमता भी बुरी तरह छाई हुई हैं। यह सभी विषमताएँ कृत्रिम हैं। ईश्वर प्रदत्त नहीं। मनुष्य ने अपनी सभी पुत्रों को प्रायः समान स्तर के शरीर और मन दिये हैं। इनका सही गलत उपयोग करके ही मनुष्य पिछड़ेपन की एवं समुन्नत स्तर की परिस्थितियों का निर्माण करते हैं। इसी प्रयास प्रक्रिया के परिणाम ही देर−सवेर में सामने आते रहते हैं। इसलिए भाग्य का एक नाम कर्म भी है। कर्म विधान, कर्म रेख, कर्म लेख आदि शब्दों का यदि भाग्य के स्थान पर प्रयोग किया जाय तो इसमें उसकी अधिक सार्थकता समझी जा सकेगी।
कुछ अपंग, अविकसित अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी मनुष्य एक जैसी स्थिति में उत्पन्न होते हैं। आरोग्य से लेकर जीवन के अनेकानेक क्षेत्रों में दृढ़ता एवं प्रगति की सफलताएँ तो मनुष्य की अपनी गतिविधियों पर निर्भर रहती है। अपना आरोग्य यदि पिछड़ा या बिगड़ा हुआ है तो उसके लिए परिस्थितियों को दोष देते रहने से काम नहीं चलेगा। अपना उत्तरदायित्व स्वीकार करना पड़ेगा। कहीं अपने से ही भूल होती है या होती रही है। अपने पैर कुल्हाड़ी मारने से ही यह जख्म हुआ है। ऐसा दूसरा कोई पास में दिखता नहीं जिसके कारण इतनी मजबूत इमारत खोखली होती। आँखें बन्द किये रहें तो बात दूसरी है अन्यथा पलक खोल कर देखने पर वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जाती है और वह छिद्र स्पष्ट दीखते हैं जिनमें होकर इस नाव में पानी भरा है और वह डूबने के करीब जा पहुँची है। अपनी ही बुरी आदतें हैं जिनने घुन की तरह इस मजबूत शहतीर को खोखला करके रख दिया है। यदि अपनी भूलें स्वास्थ्य की बर्बादी का कारण समझ में आ सकें और उनका पश्चात्ताप हो तो प्रायश्चित्त एक ही है कि जो हो चुका है उसे सुधारने के लिए उतनी ही हिम्मत के साथ कदम बढ़ाये जायें, जितने उत्साह से विनाश के पथ पर बढ़ने में उत्साह दिखाया गया है।
देखा जाता है कि सृष्टि के समस्त प्राणी अपने लिए निर्धारित आचार संहिता का पालन करते हैं। अन्तःचेतना में विद्यमान प्रकृति−प्रेरणा मार्गदर्शन करती है और प्राणी उसका अनुसरण करते हैं। इतने भर से सुव्यवस्था बनी रहती है और आरोग्य पर कोई आँच नहीं आने पाती। हर प्राणी के लिए जीवन निर्वाह की आचार−संहिता उसकी मूल प्रकृति में मौजूद है। यदि उसे विकृत न किया जाय तो वह ऐसा मार्गदर्शन करती रहती है जिसका अनुसरण करने पर किसी निरोग को पूर्णायुष्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती। आदत बिगाड़ने पर तो कोई भी अनुपयुक्त आचरण करने लग सकता है। घोड़ों का शराब, बन्दरों को भाँग, पक्षियों को अफीम की थोड़ी−थोड़ी मात्रा देकर पीछे उन्हें ऐसा अभ्यस्त बना लिया जाता है कि बिगड़ी आदत के अनुसार ही उनके आचरण होते हैं। इन्द्रियों की आदतें हमीं बिगाड़ते हैं। पीछे वे इतनी ढीठ हो जाती हैं कि उसी बिगड़ी आदत को पूरा करने के लिए मचलती रहती हैं उसमें कमी पड़े तो रूठने मटकने लगती हैं। नवजात बालक की जीभ पर जरा−सी मिर्च लग जाय तो वह बेतरह व्याकुल हो उठता है, पीछे वह अभ्यास चलता रहे तो मिर्च के बिना भोजन में रस ही नहीं आता है और कई बार तो उसकी मात्रा बढ़ाते रहने पर ही सन्तोष होता है। यही बात तम्बाकू आदि नशों के सम्बन्ध में है, आरम्भ में उनके तनिक से सेवन से मिचली आती है पर पीछे अभ्यस्त बनते बनते उसे खाये−पिये बिना टट्टी उतरना तक कठिन हो जाता है। यह अभ्यास की करामात है जिसके सहारे बुरे आचरण के लिए भी मनुष्य विवश होता चला जाता है।
मूल प्रकृति को समझा गया होता, प्रकृति के संकेतों का अनुसरण किया गया होता तो न स्वास्थ्य सम्वर्धन के उपाय खोजने पड़ते और न रोग निवारण के उपाय उपचार खोजने के लिए जहाँ−तहाँ ठोकरें खाते−फिरने की, पैसा समय गँवाने की झक मारनी पड़ती। तब सृष्टि के अन्य प्राणियों की तरह अपना जीवन भी बिना दुर्बलता एवं रुग्णता का कष्ट सहे हुए ही आनन्दपूर्वक व्यतीत हो रहा होता।
अपना शरीर काम चलाऊ भले ही हो पर जिसे स्वस्थ कहा जा सके उस स्तर की उसकी स्थिति कहाँ है? फिर आये दिन छोटी-बड़ी बीमारियों की खट−खट भी तो लगी रहती है। अपच को ही लें, स्वभाव का अंग बन जाने से अखरता नहीं, किन्तु है तो वह भी शरीर में जड़ता आलस्य, उदासी, अनख आदि कितने भार लादे रहने वाला अभिशाप ही। नींद में कमी, शिर का भारीपन यह छोटे रोग ही हैं पर पेड़ की जड़ में लगने वाली दीमक की तरह उनकी विनाशलीला तो किसी प्रकार कम नहीं है। मसूड़ों में पाया जाने वाला पायेरिया न तो बहुत कष्ट कर होता है और न विद्रूप फिर भी मुँह की बदबू और पेट में पहुँचने वाली मवाद कितनी अधिक हानिकारक होती है इसका पता आरम्भ में नहीं बाद में चलता है।
अपने शरीर को छोटी हानि सहनी पड़ रही है या बड़ी, इसकी विवेचना करना आवश्यक नहीं। इतना जान लेना ही काफी है कि छोटे से विकार भी यदि पनपते रहें तो अन्ततः भारी संकट उत्पन्न करते हैं। छप्पर के एक कोने में लगी आग बढ़ते−बढ़ते उस घर को और समूचे गाँव को जला डालने वाली विभीषिका बन जाती है। यदि कोई बड़ा रोग नहीं है किन्तु अपच जैसे घुन स्वास्थ्य को खोखला करने में लगे हुए हैं तो भी यह कम चिन्ता की बात नहीं हैं। उसके द्वारा पहुँचने वाली क्षति बढ़ते−बढ़ते आयु का बड़ा भाग समाप्त कर सकती है और आगे चलकर किसी भयंकर रोग का कारण बन सकती है। ऐसा न भी हो तो उसकी वर्तमान क्षति ही कौन प्रसन्नता दायक है? उससे कुछ तो असुविधा होती है। क्रियाशक्ति की घटोत्तरी−उत्साह और स्फूर्ति की कमी से भी तो अर्ध मृतक की स्थिति बन जाती है और जो कुछ किया या पाया जा सकता है उसका आधा अंश ऐसे ही बर्बाद हो जाता है। हमें अपने स्वास्थ्य में यदि थोड़ी−सी भी गड़बड़ी दीखती है तो उसे सम्भालने−सुधारने में उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रोग और शत्रु को छोटा मान कर नहीं चलना चाहिए, यह बड़ों की शिक्षा बहुत ही अनुभवपूर्ण है। हम दूसरों के लिए इतना करते हैं कि अपने सम्बन्ध में सोचना या करना नहीं बन पड़ता। यह आत्म−प्रवंचना अपनी त्याग वृत्ति का रौब गाँठने के लिए गढ़ी जाती है पर वस्तुतः उसमें अदूरदर्शिता और प्रमाद की वृत्ति ही काम करती है। दूसरों को सम्भाला जा सकता है तो अपने आप को भी क्यों न सम्भाला जाय? बच्चे को स्वच्छ रखा जा सकता है और स्वच्छता अच्छी बात समझी जाती है तो स्वयं भी स्वच्छ क्यों न रहा जाय? शरीर दुर्बल और अस्वस्थ रहने लगे और स्वयं उसकी ओर आँखें बन्द करके रहा जाय तो इसमें अदूरदर्शिता का ही परिचय मिलेगा।
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