Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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गंगा माता की गोद में अमृतोपम पयःपान
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पौराणिक मान्यता के अनुसार भागीरथ ने प्रचण्ड तप करके गंगा को स्वर्ग से उतरकर धरती पर प्रवाहित होने का अनुग्रह करने के लिए सहमत किया था। इससे पूर्व उनका लाभ देव लोक के निवासी ही उठाते थे। गंगावतरण में भगवान शिव का महान योगदान रहा। स्वर्ग से धरती पर उतरते समय उनका प्रचण्ड वेग धारण करने का प्रश्न बड़ा विकट था, उसका समाधान भगवान शिव ने अपनी जटाओं पर उतरने का अवसर देकर सम्भव किया। भागीरथ तो तप करके वरदान पाकर ही निवृत्त हो गये। धार्मिक मान्यता के अनुसार शिवजी तो अभी भी उन्हें अपनी जटाओं में धारण किए हुए हैं। वे कहाँ से निकलीं? पौराणिक उत्तर है-विष्णु भगवान के चरणों से। इस प्रकार गंगाजल, विष्णु का चरणामृत ही होता है।
दूसरी दृष्टि से गंगा को हिमालय का अमृत रस कह सकते हैं। उस क्षेत्र की रासायनिक विशेषताएँ प्रख्यात हैं। उनका सार तत्व निचुड़ता और गंगा के जल में सम्मिश्रित होकर प्रवाहित होता है। दिव्य जड़ी बूटियाँ इस क्षेत्र में अभी भी पाई जाती हैं। अन्य क्षेत्र में उगने पर उनकी वे विशेषताएँ नहीं रहतीं जो हिमालय क्षेत्र में उगने पर रहती है। ब्राह्मी, अष्ट वर्ग, रत्न ज्योति जैसी बूटियाँ शिलाजीत जैसे खनिज होते तो अन्यत्र भी हैं, पर भूमि की विशेषता के कारण उनके गुण इस क्षेत्र के उत्पादन में रहते हैं। वे दूसरी जगह नहीं रहते। ये विशेषताएँ जल स्रोतों के साथ घुलकर गंगा में जा पहुँचती हैं। गंगा लगभग 500 मील हिमालय क्षेत्र में परिभ्रमण करने के उपरान्त मैदानी भूमि में आती है। इस बीच प्रायः तीस नदियाँ दूर-दूर से बहकर आती और गंगा में विसर्जित होती चलती हैं। इस प्रकार हिमालय के अति महत्वपूर्ण क्षेत्र का रासायनिक निचोड़ उसकी जलधारा में सम्मिलित होता रहता है। इस प्रकार आरोग्य शास्त्र की दृष्टि से गंगाजल की उपयोगिता किसी बहुमूल्य औषधि द्रव से कम नहीं रहती।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य सम्बन्ध गंगा की सर्वोपरि विशेषता है। मनुष्य मानवी सत्ता की तरह पदार्थ सत्ता भी (1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण स्तर हैं। स्थूल प्रत्यक्ष को कहते हैं। सूक्ष्म अदृश्य और सूक्ष्म की गहन अन्तरात्मा कह सकते हैं। मनुष्य में स्थूल भाग प्रत्यक्ष शब्द है। सूक्ष्म मनःचेतना और कारण अन्तरात्मा। यही बात पदार्थों के सम्बन्ध में भी है। तुलसी पौधे के रासायनिक पदार्थ औषधि रूप हैं। उसके सूक्ष्म प्रभाव से वातावरण में शान्तिदायक प्रभाव फैलता है। कारण प्रभाव से तुलसी भक्ति भावना का, श्रद्धा का, पवित्रता का संचार मानवी अन्तःकरण में करने वाली होने के कारण देवोपम गिर गई है। उसे वनस्पति वर्ग में देवतुल्य माना गया है। वह पीपल, आंवला आदि वृक्षों में भी ऐसी ही दिव्य विशेषताएँ रहने से उनके अन्तराल में रहने वाले, तत्वों के परखने वाले, सूक्ष्मदर्शियों ने उन्हें वृक्ष वर्ग के देव माना है। पिप्पलाद ऋषि पीपल वृक्ष के नीचे निवास करते थे और उसी के फलों से अपनी आहार आवश्यकता पूरी थे। पशु वर्ग में गौ को माता इसी आधार पर कहा है। दूध आदि का लाभ तो अन्य पशु भी दे सकते हैं, कृषि कर्म में तो बैलों की जगह अनेक देशों में घोड़े आदि भी काम देते हैं। गौ की मान्यता पशु उपयोगिता प्रतिस्पर्धा में अग्रणी होने से नहीं उसे देव संज्ञा में आध्यात्मिक ‘कारण’ विशेषताओं के कारण मिली है। भगवान के चरणामृत में, पंचामृत, पंचगव्य, में यज्ञ प्रयोजनों में गौ रस की महिमा है। यह गौरव उस पशु की विशेषताओं के कारण नहीं, उसमें पाई जाने वाली आध्यात्मिक गरिमा के आधार पर मिली है। गौ को ब्राह्मण के समतुल्य माना गया है और उसकी सेवा को देवाराधन के समान कहा गया है।
गंगाजल की विशेषता में ऐसे ही दिव्य कारणों का समावेश होने से उसे देव संज्ञा दी गई है। उसके स्नान से शरीर की गर्मी एवं मलीनता हटाना ही नहीं, अन्तः पवित्रता का संचार होना ही प्रधान हेतु है। इसी उद्देश्य से असंख्य भावनाशील नर-नारी उसमें स्नान करने के लिए दौड़े आते हैं और अपनी धर्म भावना तृप्त करते हैं। यह अन्धविश्वास भर नहीं है, इसके पीछे तथ्य है। जहाँ गंगा की पवित्रता अभी भी अक्षुण्ण है वहाँ उसके तट पर कुछ समय निवास करके यह प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है कि उससे आन्तरिक शान्ति का कितना लाभ मिलता है। शहरी कोलाहल-गटरों का गन्दा पानी मिलते चलने से उनका प्रभाव घटते जाना स्वाभाविक है। किन्तु अभी भी हिमालय क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली धारा में प्राचीन काल जैसी पवित्रता का अनुभव किया जा सकता है।
सप्त ऋषियों ने अपनी तपस्थली हिमालय की छाया और गंगा की गोद में ही बनाई थी। भगवान राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन अयोध्या की सुविधाओं को छोड़कर गंगा तट की दिव्य विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही इस क्षेत्र में तप करने के लिए आ गये थे। तपस्वियों की परम्परा हिमालय क्षेत्र में पहुँचने और गंगा तट पर निवास करने की रही है। यह सब अकारण ही नहीं होता रहा है। तत्वदर्शी अध्यात्म विज्ञानियों ने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुकूलताओं, उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए ही इस प्रकार का चयन किया था। गंगा यों एक नदी भर है, पर सूक्ष्म दृष्टि से उसे प्रवाहमान देव-सत्ता ही कहा जा सकता है। उसके स्नान, दर्शन, जलपान आदि से सहज ही पवित्रता का संचार होता है। माता की गोदी में रहने के समान ही उसके सान्निध्य का भाव भरा आनन्द कभी भी भावनाशील लोग सहज ही उपलब्ध करते हैं।
गंगा भारत भूमि की सर्व प्रधान पयस्विनी है उसके धार्मिक आध्यात्मिक महत्व पर कोटि-कोटि धर्म प्रिय भारतीय विश्वास करते हैं। उसके सम्पर्क सान्निध्य में शान्ति प्राप्त करते और प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उसकी अन्य पवित्रता को, सद्ज्ञान की गरिमा के साथ जोड़ते हुए तत्वदर्शी लोग ज्ञान गंगा की तुलनात्मक चर्चा करते हैं।
आर्थिक दृष्टि से उसके द्वारा होने वाली, सिंचाई, नौकायन, भूमि को उपजाऊ बनाने जैसे कितने ही महत्व हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार किया जाय तो उसका जल अमृत है और समीपवर्ती क्षेत्रों में जो वातावरण बनता है उसका अपना महत्व है। तटवर्ती क्षेत्र में उगे हुए वृक्ष, गुल्म और वनस्पति न केवल आर्थिक दृष्टि से वरन् स्वास्थ्यकर वायु प्रदान करने की दृष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी है।
गंगाजल न केवल शारीरिक, आर्थिक प्रभाव रखता है वरन् उसकी क्षमता मनुष्य के मानसिक सन्तुलन को उच्चस्तरीय बनाये रखने में भी योगदान देती है। धार्मिक क्षेत्र की यह मान्यता अब विज्ञान के क्षेत्र में भी उपहासास्पद नहीं है। उसे क्रमशः अधिक तथ्यपूर्ण माना जा रहा है। गंगा स्नान, गंगा तट पर निवास, गंगाजल पान का महात्म्य अब मात्र श्रद्धा का विषय ही नहीं है उसके पीछे अनेक तथ्य, तर्क और प्रमाण भी जुड़ते जा रहे हैं।
गंगा के आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक प्रभावों को मात्र हिन्दू धर्मावलम्बी ही स्वीकार करते रहे हों सो बात नहीं। भूतकाल में उसकी विशेषताओं को अन्य धर्मावलम्बी ही स्वीकार करते रहे हों सो बात नहीं, भूतकाल में उसकी विशेषताओं को अन्य धर्मावलम्बी भी स्वीकार करते रहे हैं। अब उसकी कमी नहीं वरन् वृद्धि ही हो रही है। गंगा की गरिमा को सार्वभौम और सर्वजनीन स्तर पर मान्यता मिल रही है। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में उसकी बहुमुखी विशेषताओं को और भी अच्छी तरह समझा जायगा और जनसाधारण द्वारा उसका और भी अधिक लाभ उठाया जायेगा।
इतिहास के पृष्ठ बताते हैं कि गंगाजल को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के किस तरह उपयोगी एवं महत्वपूर्ण माना जाता रहा है।
इब्नबतूता नामक एक भ्रमणशील लेखक अफ्रीका महाद्वीप, एशिया की लम्बी यात्रा करते हुए भारत भी आया था। उसने जो संस्मरण लिखे हैं उनका गिव्स ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इस पुस्तक में तत्कालीन सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासन का विस्तृत वर्णन है। उसमें यह भी उल्लेख है कि बादशाह गंगाजल पीते थे। उनके लिए दौलताबाद गंगाजल पहुँचाने में 40 दिन लग जाते थे।
फ्रान्सीसी यात्री बर्नियर सन् 1459 से 1467 तक आठ वर्ष भारत रहा। उसने शाहजादा दाराशिकोह की चिकित्सा भी की थी। औरंगजेब के भोजन के साथ गंगा जल भी रहता है। बादशाह ही नहीं अन्य दरबारी भी गंगाजल का नियमित प्रयोग करते हैं। यात्रा में भी वे ऊँटों पर लदवा कर गंगा जल अपने साथ ले जाते थे।
एक दूसरे फ्रान्सीसी यात्री टैवर्नियर ने लिखा है हिन्दुस्तान के राजे और नवाब समान रूप से गंगा जल का दैनिक उपयोग करते हैं।
ब्रिटिश कप्तान एडवर्ड मूर ने अपने स्मरणों में लिखा है, शाहनवर के नवाब केवल गंगा जल पीते थे इसके लिए उन्होंने काफिला तैनात कर रखा था।
इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक ‘रियाजुस-सलातीन’ में लिखा, हिन्दुओं की तरह इस देश के अन्य धर्मावलम्बी भी गंगा जल की बड़ी कद्र करते हैं और उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी मानते हैं।
पेशवाओं के पीने का पानी गंगा जल ही होता था। गढ़मुक्तेश्वर तथा हरिद्वार से वहँगियों द्वारा उनके लिए गंगा जल पहुँचता था।
अंग्रेजी शासन के दिनों वैज्ञानिक हैकिन्स ने गंगा जल की विशेषताओं के संबंध में प्रचलित किम्वदन्तियों पर शोध कार्य किया था। उन्होंने काशी नगर के गन्दे नालों का जल जाँचा जिसमें हैजे के असंख्य कीटाणु भरे हुए थे। वही नाला जब गंगा में मिला तो उसमें रहने वाले विषाणु तत्काल मर गये। सड़े हुए मुर्दों की लाश से निकलने वाला विष भी गंगा में घुलते ही अपनी हानिकारक प्रकृति खो बैठता है। कुँए में तथा अन्य जलों में हैजा के कीटाणु डाले गये तो वे तेजी से बढ़े किन्तु गंगा जल में मिलते ही स्वयंमेव नष्ट हो गये।
नन्दा देवी, गुरला, मान्धाता, धौलागिर, गोसाई थान, कंचन जंगा, एवरेस्ट जैसे संसार के सबसे ऊँचे गिरी शिखरों का पिघलता हुआ बर्फ हिमालय में इधर-उधर चक्कर काटता हुआ गोमुख पर एकत्रित होकर गंगा जल के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इन विशिष्ट भू क्षेत्रों की धातुएँ तथा रासायनिक वस्तुएँ ऐसी हैं जो गंगाजल को मानवी उपयोग के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण बनाती हैं।
रसायन विज्ञानी प्रो. एन.एन. गोडवोले ने गंगाजल की विशेषताओं का कारण ढूँढ़ने के लिए लम्बी रासायनिक छान-बीन की। उन्होंने गंगा जल में कुछ ऐसे विशेष ‘प्रोटेक्टिव कालौइड’ पाये जो उसे सदा पवित्र एवं कीटाणु रहित बनाये रहते हैं। यह तत्व अन्य नदियों में बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। गोडवोले ने अपने शोध निष्कर्ष में लिखा है, गंगाजल जीवाणु वृद्धि को रोकता ही नहीं वरन् उनका विनाश भी कर देता है। उनका यह भी कथन है गंगा जल का वास्तविक स्वरूप प्रयाग तक ही पाया गया। बाद में कई बड़ी नदियाँ मिल जाने से उसके वह गुण नहीं रहते जो इससे ऊपर पाये जाते हैं।
आयुर्वेद शास्त्र में गंगा जल को शारीरिक और मानसिक रोगों का निवारण करने वाला और आरोग्य तथा मनोबल बढ़ाने वाला बताया गया है।
गंगा वारि सुधा समं बहु गुणं पुण्यं सदायुष्करं,
सर्व व्याधि विनाशनं बलकरं वर्ण्यं पवित्रं परम्।
हृद्यं दीपन पाचनं सुरुचिम्मिष्टं सु पथ्यं लघु-
स्वान्तध्वान्त निवारि बुद्धि जननं दोष त्रयघ्नं वरम्।
अर्थात्- गंगा का जल अमृत के तुल्य बहुगुणयुक्त पवित्र, उत्तम, आयु का बढ़ाने वाला, सर्व रोगनाशक, बलवीर्य वर्द्धक, परम पवित्र, हृदय को हितकर, दीपन, पाचन, रुचिकारक, मीठा उत्तम पथ्य और लघु होता है तथा भीतरी दोषों का नाशक, बुद्धि-जनक, तीनों दोषों का नाश करने वाला सब जलों में श्रेष्ठ है।
आध्यात्मिक गरिमा के अतिरिक्त गंगा की भौतिक उपलब्धियाँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। उससे कितनी सिंचाई होती है कितने बाँध तालाब भरे जाते हैं, उससे कितनी उपलब्धियाँ मिलती हैं इसका लेखा-जोखा आश्चर्यचकित करता है वह भारती की अर्थ समृद्धि में भी भारी योगदान देती है। गंगा का कुल जल ग्रह क्षेत्र 9 लाख 69 हजार वर्ग किलोमीटर है। गंगा नहरों में इन दिनों 6 लाख 95 हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है। सिंचाई के अतिरिक्त गंगा की प्रवाह शक्ति का उपयोग करके भद्रावाद, मुहम्मद पुर और पथरी पर विशालकाय बिजलीघर बने हैं। वर्षा में गंगा का फालतू पानी जो व्यर्थ ही बहकर समुद्र में चला जाता है, उसे दक्षिण की कावेरी नदी में मिलाने की योजना विचाराधीन है। यदि वह नहर सम्भव हो सकी तो वह छह राज्यों को पानी देती हुई दक्षिण भारत की जन व्यवस्था में भी बहुत योगदान देगी। गंगाजल से पाचक, कीटाणु नाशक प्राण और शक्ति वर्द्धक गुणों की प्रशंसा सुनते-सुनते बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्र के प्रवक्ता डॉ.एन.एन. गोडवोले ने निश्चय किया कि क्यों न गंगाजल की रासायनिक परीक्षा करके देख ली जाय? उसके विश्लेषण के निष्कर्ष इस प्रकार प्रकाशित हैं- “मुझे फिनाइल यौगिकों की जीवाणु निरोधता के परीक्षण का काम दिया गया था, तभी मुझे गंगाजल पर कुछ ‘चिकित्सा सम्बन्धी शोध पत्र’ पढ़ने को मिले जिनमें यह बताया गया था कि ऋषिकेश से लिए गये, गंगाजल में कुछ ‘प्रोटेक्टिव कालौइड’ होते हैं, यही उसकी पवित्रता को हर दर्जे तक बढ़ाते हैं। कालौइड एक ऐसा तत्व है, जो पूरी तरह घुलता भी नहीं और ठोस भी नहीं रहता। शरीर में लार, रक्त आदि देहगत कालौइड हैं ऐसे ही कालौइड गंगाजी के जल में भी पाये जाते हैं, जब उनकी शक्ति का ‘रिडैलबाकर’ नामक यन्त्र से पता लगाया तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि गंगाजल जीवाणु की वृद्धि को रोकता ही नहीं, उन्हें मारता भी है। रिडैल और बाकर नामक दो वैज्ञानिकों ने मिलकर बनाया था। इसमें, जिस तरह परमाणुओं के भार को हाइड्रोजन के परमाणु से सापेक्षित (रिलेटिव) मान निकालते हैं, उसी तरह फीनोल से सापेक्षित (रिलेटिव) जीवाणु निरोधता (कीटाणु नष्ट करने की शक्ति) निकालते हैं।
पौराणिक कथानक के अनुसार सगर के 60 हजार पुत्र जब श्राप वश मृत हो गये तो सगर को उनके उद्धार की चिन्ता हुई। उन्होंने असमंजस के पौत्र भागीरथ को उसके लिए तप करने और गंगाजी को लाने को भेजा। भागीरथ ने हिमालय में जाकर घोर तप किया। उसके फलस्वरूप गंगा का प्राकट्य हुआ।
कवियों और शास्त्रकारों द्वारा अभिव्यक्त इस श्रद्धा के पीछे कोई निराधार कल्पनाएँ और मात्र भावुकता नहीं रही। किसी भी तत्व के प्रति श्रद्धा, उसकी उपयोगिता और वैज्ञानिक गुणों के आधार पर रही है। गंगाजी के जल में ऐसे उपयोगी तत्व और रसायन पाये जाते हैं, जो मनुष्य की शारीरिक विकृतियों को ही नष्ट नहीं करते वरन् विशेष आत्मिक संस्कार जागृत करने में भी वे समर्थ हैं, इसीलिए उसके प्रति इतनी श्रद्धा व्यक्त की गई। वैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह बातें स्पष्ट होती जा रही हैं।
प्राचीनकाल में जब भारतवर्ष का अरब, मिस्र और यूरोपीय देशों से व्यापार चलता था, तब भी और इस युग में भी सब देशों के नाविक गंगा की गरिमा स्वीकार करते रहे हैं। डॉ. नेल्सन ने लिखा है कि हुगली नदी का जो जल कलकत्ता से जहाजों में ले जाते हैं, वह लन्दन पहुँचने तक खराब नहीं होता, परन्तु टेम्स नदी का जल जो लन्दन से जहाजों में भरा जाता है, बम्बई पहुँचने के पहले ही खराब हो जाता है।
तब जबकि जल को रासायनिक सम्मिश्रणों से शुद्ध रखने की विद्या की जानकारी नहीं हुई थी, तब पीने के पानी की बड़ी दिक्कत होती थी। खारी होने के कारण लोग समुद्र का पानी नहीं पी सकते थे। अपने साथ जो जल लाते थे, वह भी कुछ ही दिन ठहरता था, जबकि समुद्री यात्रायें महीनों लम्बी होती हैं। यह दिक्कत उन्हें आने में ही रहती थी। जाते समय वे लोग (हुगली) गंगाजी का बहुत जल भर ले जाते थे, बहुत दिनों तक रखा रहने पर भी उसमें किसी प्रकार के कीड़े नहीं पड़ते थे। समुद्री जल में रखे चावल बहुत दिन तक अच्छे नहीं रहते, सड़ने लगते हैं, जबकि गंगाजी के पानी में वह शीघ्र नहीं सड़ते। यों संसार में और भी अनेक पवित्र नदियाँ हैं। पर गंगाजी के जल में पाई जाने वाली जैसी पवित्रता किसी में भी नहीं है।
गंगाजल के जो रासायनिक परीक्षण किए गए हैं, उनके निष्कर्षों पर एकाएक वैज्ञानिक भी विश्वास नहीं करते, क्योंकि उसमें कुछ ऐसे तत्व पाये जाते हैं, जो संसार की और किसी भी नदी के जल में नहीं पाये जाते, गंगाजल में अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व पाया गया है उनका नाम ‘कालोइड’ रखा गया है।
फ्रान्स के प्रसिद्ध डॉ. डी हेरेल ने जब गंगाजल की इतनी प्रशंसा सुनी तो वे भारत आये और गंगाजल का वैज्ञानिक परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि इस जल में संक्रामक रोगों के कीटाणुओं को मारने की जबर्दस्त शक्ति है। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक गिलास में किसी नदी या कुएँ का पानी लें, जिसमें कोई कीटाणु नाशक तत्व न हों, उसे गंगाजल में मिला दो तो गंगाजल के कृमिनाशक कीटाणुओं की संख्या बढ़ जाती है, इससे सिद्ध होता है कि गंगाजी में कोई ऐसा विशेष तत्व है जो किसी भी मिश्रण वाले जल को भी अपने ही समान बना लेता है। यही कारण है 1557 मील लम्बी गंगाजी में गोमती, घाघरा, यमुना, सोन, गण्डक और हजारों छोटी-छोटी नदियाँ मिलती चली गईं, तब भी गंगासागर पर उसकी यह कृमिनाशक क्षमता अक्षुण्ण बनी रही। यह एक प्रकार का चमत्कार ही है।
डॉ. डी हेरेल ने अपने प्रयासों से सिद्ध कर दिया कि इस जल में टी.बी. अतिसार, संग्रहणी ब्रण, हैजा के जीवाणुओं को मारने की शक्ति विद्यमान् है। गंगाजी के कीटाणुओं की सहायता से ही उन्होंने सुप्रसिद्ध औषधि ‘बैक्टीरियोफैज’ का निर्माण किया, जो ऊपर कही गई बीमारियों के लिए सारे संसार में लाभप्रद सिद्ध हुई।
हमारी इस श्रद्धा का आधार वह विज्ञान है, जिसे भारतीय तत्ववेत्ता आदि काल से जानते रहे हैं और आज का विज्ञान जिसकी अक्षरशः पुष्टि करता है।
डॉ. केहिमान ने लिखा है- ‘‘किसी के शरीर की शक्ति जवाब देने लगे तो उस समय यदि उसे गंगाजल दिया जाय तो आश्चर्यजनक ढंग से जीवनी शक्ति बढ़ती और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनन्द का स्रोत फूट रहा है।”
लगता है इस बात का पता भारतीयों को आदिकाल से था तभी प्राचीन काल के अधिकांश सभी वानप्रस्थ और संन्यासी जीवन के अन्तिम दिनों में हिमालय की ओर चले जाते थे। आज भी गंगाजी के किनारे जितने आश्रम हैं, उतने सब मिलाकर समूचे भारतवर्ष में भी नहीं है।
डॉ. हेनकेन आगरा में गवर्नमेंट साइन्स डिपार्टमेन्ट में एक बड़े अफसर थे। प्रयोग के लिए उन्होंने जो जल लिया वह स्नान घाट वाराणसी के उस स्थान का था, जहाँ बनारस की गन्दगी गंगाजी में गिरती है। परीक्षण से पता चला कि उस जल में हैजा के लाखों कीटाणु भरे पड़े हैं। 6 घण्टे तक जल रखा रहा, उसके बाद दुबारा जाँच की गई तो पाया कि अब उसमें एक भी कीड़ा नहीं है, जल पूर्ण शुद्ध है, हैजे के कीटाणु अपने आप मर चुके हैं। उसी समय जब इस जल का प्रयोग किया जा रहा था, एक शव उधर से बहता हुआ आ रहा था। वह शव भी बाहर निकाल लिया गया, जाँचने पर पता चला कि उसके बगल के जल में भी हजारों हैजे के कीटाणु हैं, 6 घण्टे तक रखा रहने के बाद वे कीटाणु भी मृत पाये, यही कीटाणु निकाल कर एक दूसरे कुएँ के जल में दूसरे बर्तन में डालकर रखे गये तो उसमें हैजे के कीटाणु अबाध गति से बढ़ते रहे।
यह घटना अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्कट्वेन को आगरा प्रवास के समय ब्योरेवार बताई गई, जिसका उन्होंने ‘भारत यात्रा वृत्तान्त’ में जिक्र किया है। इस प्रयोग का वर्णन प्रयाग विश्व विद्यालय के अर्थशास्त्र के अध्यापक पण्डित दयाशंकर दुबे एम.ए.एल.एल.बी. ने भी अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘श्री गंगा रहस्य’ में किया है।
बर्लिन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जे ओलिवर ने तो भारत की यमुना, नर्मदा, रावी, ब्रह्मपुत्र आदि अनेक नदियों की अलग-अलग जाँच करके उनकी तुलना गंगाजल से की और बताया कि गंगा का जल न केवल इन नदियों की तुलना में श्रेष्ठ है वरन् संसार की किसी भी नदी में इतना शुद्ध कीटाणुनाशक और स्वास्थ्यकर जल नहीं होता।
डा.ओलिवर का इस सम्बन्ध में एक लेख न्यूयार्क से छपने वाले ‘इन्टरनेशनल मेडिकल जर्नल’ में भी छपा था।
भावनाशील श्रद्धासिक्त कवि हृदय भगवती गंगा को मूर्तिमान देव-सत्ता के रूप में अनुभव करता है और उसके सान्निध्य की पुलकन को अपनी अभिव्यंजना में इस प्रकार व्यक्त करता है :-
विधिर्विष्णुः शम्भुस्त्वर्मास पुरुषत्वेन सकला,
रमोमागीर्मुख्यात्वमसिललनाजन्हुतनये।
निराकारागाधा भगवति सदात्वं विहरसि,
क्षितौ नीराकाराहरसि जनतापान्स्वकृपया॥
हे जाह्नवी। पुरुष रूप में तुम ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हो और स्त्री होकर तुम रमा, उमा तथा सरस्वती हो। हे भगवती! तुम निराकार तथा अत्यन्त गम्भीर हो, किन्तु इस पृथ्वी तल पर जल स्वरूप धारणकर विहार करती हो और अपनी कृपा से लोगों के पाप तापों को दूर करती हो।
प्रसिद्धाते कीर्तिर्भवजलधिपारं गमयति स्मृतौ,
वेदे लोके व्रजनहरिणी शान्ति सरणिः।
अतोहवं यामित्वां शरणम भये मोक्षजननि,
भर्वत्या पाल्योऽस्मि प्रभवसि समुद्धारयशसा॥
तुम्हारी यह कीर्ति प्रसिद्ध है कि तुम संसार सागर से पार करा देती हो। लोक, वेद तथा स्मृति में तुम्हारी प्रशंसा अत्यन्त प्रशस्त है। हे अभय तथा मोक्ष देने वाली, मैं तुम्हारी शरण आया हूँ। मेरा उद्धार करो।